सरकार और कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात को लेकर आश्वस्त दिख रहे हैं कि देश में कोविड-19 महामारी का पहला चरण अपने चरम पर पहुंच चुका है। पिछले तीन हफ्तों में रोजाना देश में संक्रमित लोगों की संख्या में भी करीब 20 प्रतिशत तक की कमी आई है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय में महामारी विशेषज्ञों का भी यही कहना है। उन्होंने सितंबर के लिए आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कहा है कि संभवत: 17 से 30 सितंबर के बीच महामारी अपने चरम पर पहुंच गई थी। खासकर महाराष्ट्र में मध्य सितंबर में कोविड-19 संक्रमण में खासी कमी आई है और नए मामलों की तादाद 40 प्रतिशत तक कम हो गई है।
हालांकि इस निष्कर्ष पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं। इसके पीछे चार कारण हैं। पहली बात यह कि भारत और अमेरिका जैसे बड़े देशों के संबंध में पुख्ता तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि महामारी उस स्तर पर पहुंच गई है, जहां से इसके अब और जोर पकडऩे की आशंका नहीं है। अमेरिका के उत्तर-पूर्वी राज्यों में महामारी के चरम पर पहुंचने का शुरुआती संकेत जरूर मिला, लेकिन बाद में गर्मी में दक्षिण राज्यों में संक्रमण की आंधी चलने लगी। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंउेशन में मेरे सहकर्मी उम्मेन कुरियन ने कहा कि हमें अमेरिका की तर्ज पर ही भारत में भी संक्रमण के लिए तैयार रहना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर संक्रमण के आंकड़े जितनी बात बताते हैं उतनी ही छुपा लेते हैं।
दूसरी वजह यह है कि भारत में जांच बड़े स्तर पर नहीं हो रही है। हालांकि हमें यह नहीं मालूम कि कितनी तादाद में कोविड-19 संक्रमण की जांच हो रही है, लेकिन ज्यादातर जांच रैपिड ऐंटीजन टेस्ट से हो रही है। इस पद्धति में कई बार गलत नतीजे भी आते हैं, आरटी-पीसीआर टेस्ट में कहीं अधिक सही नतीजे सामने आते हैं (प्रधानमंत्री ने स्वयं भी अधिक से अधिक आरटी-पीसीआर टेस्ट करने के लिए कहा है)। कुछ राज्यों में संक्रमित लोगों की अधिक दर को देखते हुए यह माना जा सकता है कि हम बड़े पैमाने पर संक्रमण की जांच नहीं कर रहे हैं।
तीसरा कारण यह है कि देश के उन हिस्सों में सामुदायिक स्तर पर कोविड-19 संक्रमण तेजी से फैलने की आशंका है, जो मुंबई या दिल्ली या दक्षिण राज्यों की तरह बढ़ते मामलों से निपटने में सक्षम नहीं है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से जुटाई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कोविड-19 संक्रमित मरीजों के प्रति लोगों का रवैया रूखा हो जाता है, इसलिए कई लोग तो लक्षण होने पर भी जांच नहीं कराते हैं। इस समाचार पत्र के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कई लोगों का ऐसा व्यवहार है कि मानो कोविड-19 जैसी कोई चीज ही नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार जिन पुलिस अधिकारियों पर महामारी से सुरक्षा के नियम लागू करने की जिम्मेदारी है वे स्वयं मास्क नहीं पहनते हैं।
चौथा कारण आगामी त्योहार हैं। दुनिया के किसी भी देश में धार्मिक भावनाओं पर बात करना थोड़ा पेचीदा होता है। अमेरिका जैसे देश में भी न्यूयॉर्क सिटी में यहूदी समुदाय के लोग धार्मिक सभाओं पर लगी रोक के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। भारत में तो इस मुद्दे से निपटना और भी मुश्किल है, जहां पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में धर्म का दखल काफी हद तक बढ़ गया है। ऐसे में तेजी से बढ़ते संक्रमण के बीच त्योहारों का आयोजन एवं इनका प्रबंधन एक बड़ी चुनौती साबित होगी। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों का कहना है कि दुर्गा पूजा के दौरान संक्रमण बड़ी तादाद में फैल जाएगा। पूजा के दौरान करीब 40,000 पांडालों में किसी में भी आधे दर्जन समारोह भी राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था पर जबदस्त दबाव डाल सकते हैं। कोलकाता में कॉलेज स्ट्रीट के मेडिकल कॉलेज ने हाल में राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं के निदेशक को लिखे पत्र में आगाह किया था कि उसके 26 लोग कोविड-19 की वजह से पृथकवास में हैं या अस्पताल में भर्ती कराए गए हैं। उसने कहा कि अधिक डॉक्टरों की तत्काल जरूरत है। पूजा से पहले खरीदारी जोर पकड़ चुकी है और लोगों के संक्रमित पाए जाने की दर भी 6.6 प्रतिशत से बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गई है। इसके साथ ही कोलकाता में नए मामलों में 70 प्रतिशत तेजी आई है। राज्य के डॉक्टरों ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आगाह कर दिया है कि अगर दुर्गा पूजा समारोह सावधानी से आयोजित नहीं किए गए तो कोविड-19 संक्रमण के मामले अचानक कई गुना बढ़ जाएंगे। उन्होंने केरल का उदाहरण दिया जहां ओणम के बाद मामलों में 750 प्रतिशत तक तेजी आई। डॉक्टरों ने गुजरात का भी हवाला दिया, जहां नवरात्रि के दौरान गरबा आयोजित नहीं होगा। इससे पहले पश्चिम बंगाल में ईद और मुहर्रम पर भी विशेष समारोह नहीं हुए। भारत में राजनीति का ताना-बाना कुछ ऐसा है कि कुछ राज्य सरकारें सही कदम उठाने के लिए लोगों का गुस्सा मोल लेने जा रही हैं।
कम से कम अगले छह महीने तक कोविड-19 को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। यह वायरस अब भी नियंत्रण में नहीं आया है और उन जगहों में तेजी से फैल रहा है, जहां इसकी रोकथाम की तैयारी सबसे कमजोर है। लॉकडाउन के कारण लोग अब उबने लगे हैं और स्वास्थ्य दिशानिर्देशों की अनदेखी हो रही है और महामारी को लेकर देश के कई हिस्सों में लोग जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं। स्वास्थ्य दिशानिर्देशों पर राजनीतिक एकता कायम करना सबसे दुरूह कार्य है। हमें इसी संदर्भ में महामारी के कमजोर पडऩे या आर्थिक सुधार को लेकर जताए गए जरूरत से अधिक आशावादी रुख का मूल्यांकन करना चाहिए। इस महामारी ने अपना तांडव शुरू किया था तभी यह लगने लगा था कि कम से कम अगले 12 से 18 महीने तक हालात चुनौतीपूर्ण रहेंगे, इसके मद्देनजर इस नजरिये में बदलाव नहीं आना चाहिए था।
