अमेरिका को फिर से महान बनाने के नाम पर राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दुनिया के उन हिस्सों में अमेरिका विरोध को नए सिरे से जन्म दे रहे हैं जहां वह सुषुप्तावस्था में पहुंच गया था। अब तक उनका तरीका यही रहा है, सहयोगियों का सार्वजनिक रूप से मखौल उड़ाना और विरोधियों के साथ पींगें बढ़ाना।
भारत की बात करें तो वह बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि उन्होंने भारत-पाक जंग रुकवाई और मध्यस्थता की। इन दावों ने उन पुराने जख्मों को कुरेद दिया है जो भारत-पाकिस्तान को एक समान पलड़े पर रखने ने दिए थे। वाम रुझान वाले और मोदी विरोधी विचारों को मानने वालों में खामोश जश्न का माहौल है: जब आप अविश्वसनीय लोगों से डील कर रहे थे तो आपने क्या उम्मीद की थी? और क्या पता इस वर्ष के आखिर में अगर वह क्वाड की बैठक में शामिल होने भारत आते हैं तो कहीं कुछ समय के लिए पाकिस्तान में भी न रुक जाएं।
कूटनीति के पुराने नियम उन पर लागू नहीं होते। अगर पाकिस्तान के साथ अपना नाम आने से भारत चिढ़ता है तो यह भारत की दिक्कत है। ट्रंप इससे अपने लिए नियम नहीं तय करेंगे। कम से कम चार वक्तव्यों में उन्होंने एक ही वाक्य में नरेंद्र मोदी और फील्ड मार्शल आसिम मुनीर का नाम लिया है। सबसे ताजा मामला 19 जून का है जब उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी जनरल (जो दोपहर के खाने पर व्हाइट हाउस गए थे) बहुत ही स्मार्ट व्यक्ति हैं और भारत के प्रधानमंत्री मोदी एक शानदार व्यक्ति और मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं।
इस तरह उन्होंने एक बार फिर हमें पाकिस्तान के साथ बराबरी पर रखा और अब मोदी और मुनीर को एक साथ रख रहे थे। क्या बदकिस्मती है। मैं गहरी सांस लेने और मुस्कुराने की सलाह दूंगा। अगर ट्रंप मुनीर को मोदी के बराबरी पर रख रहे हैं तो सबसे अधिक शिकायत क्या शहबाज शरीफ को नहीं होनी चाहिए। आखिर बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने ही तो मुनीर को फील्ड मार्शल बनाया। कम से औपचारिक तौर पर तो अभी भी फील्ड मार्शल ही प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता है।
यहां तक कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी शरीफ को केवल अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से बात करने को मिला। यानी भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर के समकक्ष से। ऐसे में अगर किसी को दुखी होना चाहिए तो वह हैं शरीफ। अब तक किसी अमेरिकी नेता ने पाकिस्तान की हकीकत और उसके पाखंड को उतने मुखर और सच्चे ढंग से नहीं उजागर किया है जितना कि ट्रंप ने।
इस पर शांति से विचार करें। दशकों तक भारत यह कहता रहा है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र तमाशा है और असली शक्ति सेना के हाथों में है। पाकिस्तान के साथ अपनी मोहब्बत में ट्रंप उसी बात को और पुष्ट कर रहे हैं। एक तरह से वह भारत का ही काम कर रहे हैं। ट्रंप के पूर्ववर्ती मूर्ख नहीं थे। उन्हें पता था लेकिन फिर भी वे इन तमाम दशकों के दौरान पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की कोशिश (या दिखावा) करते रहे।
ट्रंप अब एक्स या ट्रुथ सोशल पर जब अपने ही वफादार समर्थकों को फटकार लगाते हैं- अपने प्रिय शब्द ‘बकवास’ के द्वारा, तब वह कोई बकवास नहीं करते बल्कि सीधी बात करते हैं। किसी भी देश में जिसका भी शासन हो वह उससे निपट लेंगे। समय के साथ भारत के साथ भी उनका यही रवैया होना चाहिए।
अगर ट्रंप अपनी घरेलू राजनीति को यूं ही सोशल मीडिया पोस्ट से चलाते रहे, जिसकी वर्तनी और व्याकरण इतनी खराब होती है कि वे हमारी यूपीएससी परीक्षा के प्रीलिम्स में ही फेल हो जाएंगे, तो फिर भला वे कूटनीति को जरा भी तवज्जो क्यों देंगे। वह पुरानी संकेतों वाली कूटनीति से बोर हो गए हैं जहां निजी तौर पर कुछ कहा जाता है और सार्वजनिक रूप से कुछ और।
बात केवल यह है कि उन भरोसा नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए नाटो महासचिव (और पूर्व डच प्रधानमंत्री) मार्क रट का ट्रंप को लिखा गया चापलूसी भरा नोट आपको याद होगा जिसका ट्रंप ने तुरंत स्क्रीनशॉट लिया और सार्वजनिक कर दिया। यूरोपीय लोग सन्न रह गए। वह यही चाहते हैं: स्तब्ध करना और विस्मित करना। दुनिया को यह सब और अमेरिका की ताकत महसूस करनी चाहिए और इसे स्वीकार करना चाहिए। रट ने तो अपने नोट में चापलूसी की हद पार कर दी थी और नाटो के नेताओं से कह डाला था कि वे ट्रंप को अपने ‘पिता’ के रूप में देखें।
जब कभी आप परेशान महसूस करें तो देखिए कि ट्रंप अपने करीबी सहयोगियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। उन्होंने कनाडा को आमंत्रित किया कि वह अमेरिका का राज्य बन जाए और पूरी सुरक्षा, शून्य टैरिफ और कम कर दरों का लाभ ले। उन्होंने जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कहकर पुकारा और नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी के सामने भी 51वें राज्य का विचार रखा। यहां तक कि उनके नकारने पर भी ट्रंप ने हार नहीं मानी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ट्रंप मोदी के साथ बैठे हैं और उनसे कह रहे हैं, ‘मेरा ख्याल है कि आपको कश्मीर का हजारों साल पुराना युद्ध खत्म करना चाहिए। दोनों पक्षों के पास जो है उसी में खुश रहिए।’ ध्यान रहे कि वे कनाडा से इससे भी बुरी बात कह चुके हैं।
जब वह चाहते हैं कि हमास लड़ाई रोक दे तो कहते हैं कि गाजा को अमेरिका को तोहफे में दे दिया जाएगा और वह वहां एक बेहतरीन रिवेरा बनाएंगे। वह एआई से बनी तस्वीरें पोस्ट करते हैं जिनमें वे समुद्र तट पर आराम फरमा रहे हैं। वह ईरान से बातचीत कर रहे थे लेकिन जब इजरायली हमले हो रहे हों तभी वह भी बमबारी करते हैं।
इसके बाद उन्होंने अपने करीबी साझेदार इजरायल से कहा कि वह अपने बमवर्षक विमान वापस बुला ले। अब वह ईरान से बातचीत दोबारा शुरू करना चाहते हैं और अब्राहम समझौते का विस्तार करते हुए सऊदी अरब को भी इसमें शामिल करना चाहते हैं।
वह जेलेंस्की को सार्वजनिक रूप से अपमानित करते हैं, उन्हें त्याग देने का दिखावा करते हैं, इस बात पर जोर देते हैं कि खनिज सौदे के बदले उन्हें संरक्षण दिया जाएगा, वह नाटो को डराने के लिए पुतिन की तारीफ करते हैं और उसके बाद खुद ही उनसे नाराज हो जाते हैं। अब वह यूरोप से नए हथियारों की कीमत चुकाने को कह रहे हैं।
इसे ही हम ‘ट्रंप्लोमेसी’ कहते हैं। मुखर, जोरदार, स्पष्ट, अनुचित और अतिशय प्रशंसा से भरपूर, कभी-कभी अपमान से युक्त। परंतु व्यापक लक्ष्य एक ही है, अमेरिका की श्रेष्ठता का विचार। उनके प्रशंसक उनके इस अंदाज को पसंद करते हैं। उनका हालिया गुस्सा विशुद्ध रूप से घरेलू मुद्दों पर है। उदाहरण के लिए एप्सटीन फाइल्स जारी करने से उनका इनकार।
अमेरिका के दोस्त उन्हें ठुकराए हुए प्रेमी की तरह नहीं छोड़ सकते। उन्हें अमेरिका की जरूरत है। इसी सप्ताह वॉल स्ट्रीट जर्नल ने एक शानदार स्टोरी प्रकाशित की जिसमें इस बात को लेकर जानकारी दी गई कि कैसे यूरोप के लोग उन्हें अपने पाले में कर रहे हैं। इसके लिए उनके परिवार और मित्रों को तोहफे दिए जा रहे हैं, अपमान पर मुस्कराया जा रहा है वगैरह। वहीं उनके शत्रु अगले कदम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चीन जैसे देश जिनके पास अहम खनिज संसाधन हैं, वे शांत हैं। उन्हें पता है कि यूक्रेन में शांति हो या नहीं लेकिन ट्रंप उन पर असामान्य शुल्क दर के साथ हमला नहीं करेंगे। ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत अपनी स्थिति देखें। भारत को सोचना होगा कि अगर ट्रंप पाकिस्तान में रुकते हैं और बहुत पहले भुलाए जा चुके दो देशों वाले नियम को दोबारा जिंदा करते हैं तो क्या उनसे कहा जा सकता है कि वे फिर कभी आएं?
दुनिया नई हकीकत को स्वीकार कर रही है। अमेरिका में ट्रंप के आलोचक कहते हैं कि उनकी नीतियां चीन को दोबारा महान बना रही हैं और इस बात में दम है। उनकी नीतियों के अनचाहे परिणाम सामने आ रहे हैं। दुनिया ट्रंप के बारे में दो बातें समझती है। पहली, अनिश्चितता, बेतुकी बातें करना और नीति निर्माण में अव्यवस्था। दूसरा, वह हमेशा नहीं रहने वाले। ज्यादा से ज्यादा 2026 के अंत तक उनका प्रभाव सिमट जाएगा। ऐसा नहीं होता है तो भी ज्यादा से ज्यादा 2028 तक हम प्रतीक्षा कर सकते हैं। तीसरी बात, हम सभी को यह सीखने की जरूरत है कि उनकी नीतियों से अधिक उनके तरीके अस्थिरता पैदा करने वाले हैं। ऐसे में अच्छा यही होगा कि अगले कुछ वर्षों तक शांति से ट्रंप्लोमेसी का आनंद लिया जाए।