वोडाफोन समूह और केयर्न एनर्जी तथा कुछ अन्य मामलों को प्रभावित करने वाले अतीत की तिथि से लागू कानून में संशोधन को समाप्त करना एक शानदार कदम था और यह साबित करता है कि सरकार क्या कुछ करने में सक्षम है। ऐसे में दो और बंधन हैं जिन्हें तोड़कर दूरसंचार और डिजिटलीकरण का अधिकतम लाभ लिया जा सकता है:
– दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के समेकित सकल राजस्व (एजीआर) को तार्किक ढंग से नीति और विधान के जरिये लाइसेंस संबंधी राजस्व के रूप में परिभाषित करने की आवश्यकता है।
– स्पेक्ट्रम आवंटन और मूल्य निर्धारण में आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है। समुचित नीति और विधान बनाकर स्पेक्ट्रम को साझा हित के संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके लिए नीलामी के बजाय इस्तेमाल के आधार पर साझा राजस्व तय होना चाहिए।
इससे स्पेक्ट्रम की लागत और परिचालन व्यय की भरपाई हो जाएगी और उपक्रमों को बिजली, पानी और लीज पर ली गई जमीन की तरह अग्रिम पूंजी निवेश नहीं करना पड़ेगा। अतीत से प्रभावी कर दर की तरह इन स्वत: लागू बाधाओं ने दूरसंचार और डिजिटलीकरण संबंधी सहायता को बाधित किया है और हमारी क्षमताओं को सीमित किया है। यह धारा के विरुद्ध तैरने जैसा है जहां नीतिगत बदलाव इन सीमाओं को खत्म कर सकते हैं और सेवा प्रदाताओं और उपयोगकर्ताओं को धारा के साथ तैरने में मदद मिलती है। तीनों दिक्कतों को दूर करके ऐसा किया जा सकता है। इससे भारत के दूरसंचार और ब्रॉडबैंड क्षेत्र की संभावनाओं अधिकतम दोहन किया जा सकेगा।
सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो संचार और डिजिटलीकरण के क्षेत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी ढंग से जनहित का प्रयोग करें ताकि स्पेक्ट्रम की कीमतों का सही निर्धारण हो सके। फिलहाल ये कीमतें आर्थिक सहयोग एवं विकास संघ के देशों की तुलना में पांच गुना हैं जबकि उन देशों की प्रति व्यक्ति आय हमसे 15-20 गुना ज्यादा है। इससे हमें न्यूनतम कीमत वाले ब्रॉडबैंड और उच्च लागत वाले ढांचे के विरोधाभास को समाप्त करने और खराब सेवा गुणवत्ता में मदद मिलेगी।
अड़चन दूर करने के लिए नीतियां
एजीआर: एजीआर की परिभाषा कुछ ज्यादा ही चतुराई से तैयार की गई है जो अपने आप में एक बाधा है। दूरसंचार विभाग ने सन 1999 में लाइसेंस समझौतों में इसे अपरिभाषित छोड़ दिया। इसे भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की अनुशंसा के बाद परिभाषित करना था लेकिन जब 2002 में लाइसेंस समझौतों को अंतिम रूप देते वक्त विभाग ने इस अनुशंसा की अनदेखी कर दी कि एजीआर में केवल सेल्युलर मोबाइल सेवा का राजस्व शामिल किया जाना चाहिए।
सन 2003 में दूरसंचार विवाद निस्तारण और अपील पंचाट (टीडीसैट) के समक्ष सेवा प्रदाताओं की अपील को 2006 में बरकरार रखा गया। दूरसंचार विभाग ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की लेकिन उसने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। हालांकि उसने कहा कि विभाग को अपनी चिंता टीडीसैट के सामने रखनी चाहिए। अगस्त 2007 में टीडीसैट ने ट्राई की अधिकांश अनुशंसाएं मान लीं। 2015 में टीडीसैट ने अपने एक निर्णय में पुराने निर्णयों को पलट दिया। केवल पूंजीगत प्राप्तियां अपवाद रहीं। बाद में 2019 में सर्वोच्च न्यायालय की अपील में पूंजीगत प्राप्तियां भी शामिल कर ली गईं।
निम्नलिखित उदाहरण इसके विचित्र दावों, विरोधाभासों और आदेशों को सामने रखते हैं:
– सरकार ने 2011 में एक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि गैर दूरसंचार राजस्व को एजीआर में शामिल नहीं किया जाना था। इसके बावजूद 2015 के टीडीसैट के निर्णय में इसके ठीक विपरीत निर्णय दिया गया। केवल पूंजीगत लेनदेन को बाहर रखा गया।
– 24 अक्टूबर, 2019 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने ट्राई और टीडीसैट की 2006 और 2007 की अनुशंसाओं को खारिज किया और एजीआर की परिभाषा को सभी गैर दूरसंचार राजस्व तक बढ़ा दिया। इससे पहले विभिन्न अदालतों ने 2006, 2007, 2011 और 2015 में ऐसे दावों को नकारा था।
– इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में सरकारी क्षेत्र की 2.7 लाख करोड़ रुपये की राशि को इससे बाहर कर दिया। इसमें गेल, ऑयल इंडिया, पावर ग्रिड आदि शामिल थीं। सरकारी कंपनियों से ऐसी मांग पर नाराजगी जाहिर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निजी सेवा प्रदाताओं को अपना 1.47 लाख करोड़ रुपये का बकाया अवश्य चुकाना चाहिए। आश्चर्य नहीं कि दूरसंचार विभाग और शेष सरकार भ्रमित दिखी क्योंकि अतीत से लागू कर की तरह ये कदम भी मनमाने थे।
यह जरूरी है कि सरकार ट्राई की अनुशंसाओं के मुताबिक एजीआर की एक तार्किक परिभाषा गढे। सरकारी और निजी कंपनियों के बीच बेहतर, निष्पक्ष, पारदर्शी और गैरभेदभावकारी संचार के लिए यह आवश्यक है।
स्पेक्ट्रम आवंटन और मूल्य निर्धारण
मौजूदा तकनीक सेवाप्रदाताओं को प्रोत्साहित करती है कि वे तमाम तकनीकों के तहत स्पेक्ट्रम और नेटवक्र्स का साझा इस्तेमाल करें क्योंकि कवरेज और क्षमता में इजाफे की लागत कम होती है। इसके बावजूद क्योंकि वायरलेस संचार उस समय से विकसित हुआ जब हस्तक्षेप को सीमित करना प्रमुख तकनीकी चिंता थी। ऐसे में विभिन्न बैंड में हर सेवाप्रदाता को स्पेक्ट्रम आवंटित किया गया।
यह शुरुआत में तकनीकी आवश्यकता थी लेकिन कई देशों की सरकारों द्वारा स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए भारी शुल्क वसूले जाने के कारण यह आम चलन में आ गया। कई देशों में दूरसंचार क्षेत्र इस बोझ के तले ढह गया। भारत में भी ऐसा ही हुआ क्योंकि हमारी मोबाइल टेलीफोनी का तेेज उभार रुक गया और अब स्थिति ठीक नहीं है। नतीजा, ऊर्जा और जल प्रबंधन, शिक्षा और कौशल, स्वास्थ्य तथा वाणिज्य, परिवहन, स्वागत और पर्यटन, विनिर्माण, कृषि आदि क्षेत्रों में संचार के बुनियादी ढांचे पर बुरा असर पड़ा।
उच्च डेटा के लिए तकनीक को काफी स्पेक्ट्रम की आवश्यकता होती है। यह प्रबंधन के बेहतर प्रबंधन में भी सक्षम है। बिना बेहतर वायरलेस पहुंच नेटवर्क के हम प्रभावी कवरेज नहीं पा सकते। हम 5जी और उससे आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में वायरलेस संचार पर जोर बढ़ेगा। यह विभिन्न सेवाप्रदाताओं के बीच स्पेक्ट्रम साझेदारी से होगा। 5जी और 6जी के लिए यह मानक हो सकता है। इससे पंूजी निवेश कम होगा और नेटवर्क इस्तेमाल बढ़ेगा।
ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो इसमें मददगार हों। इसके लिए अतीत से प्रभावी कर, एजीआर और स्पेक्ट्रम पर पूंजीगत व्यय जैसी बाधा समाप्त करनी होंगी। ऐसी नीतियां होनी चाहिए जो बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल, उत्पादकता और जीवन स्तर दिला सकें। स्पेक्ट्रम को साझा संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने और उपयोग के अनुसार भुगतान करने तथा अतीत से लागू कर तथा एजीआर को समाप्त करना जरूरी कदम हैं। यह कई तरह से किया जा सकता है और सरकार को स्वीकार्य तरीके से इस दिशा में आगे बढऩा चाहिए ताकि प्रभावी संचार और डिजिटलीकरण हो सके।