इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
देश की कई समस्याओं के लिए अभी भी नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाता है। अपनी ताजा किताब ‘द नेहरू इरा इकनॉमिक हिस्ट्री ऐंड थॉट ऐंड देयर लास्टिंग इंपैक्ट’ में अरविंद पानगड़िया ने जवाहरलाल नेहरू की सभी आर्थिक गलतियों को याद किया है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि कैसे इन गलतियों का प्रभाव इतना गहरा रहा है कि उन्हें उलटना अत्यधिक कठिन रहा है। यह सही है कि देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने अपनी आर्थिक नीतियों में कई गलतियां कीं लेकिन नेहरू की बुराई कुछ ज्यादा ही हो रही है।
सबसे पहले, जब नेहरू ने 1964 में सत्ता छोड़ी, तब भारत आर्थिक रूप से अपने एशियाई पड़ोसियों से बहुत पीछे नहीं था। देश की प्रति व्यक्ति आय थाईलैंड से थोड़ी कम थी और चीन या यहां तक कि कोरिया से बेहतर थी। लेकिन इन देशों की तुलना में भारत की प्रति व्यक्ति आय बाद में बहुत पीछे रह गई। उन्होंने 1970 और 1980 के दशक में अपनी दिशा बदल ली, जबकि भारत धीमी गति से आगे बढ़ता रहा।
दूसरा, नेहरू की नीतियों में विशिष्टता नहीं थी। नेहरू राज्य के नेतृत्व वाले आयात प्रतिस्थापन मॉडल के हिमायती थे। औपनिवेशिक शासन और दूसरे विश्व युद्ध के बाद विकासशील दुनिया के बड़े हिस्से में इसका अनुकरण किया गया। लैटिन अमेरिका से लेकर अफ्रीका के अधिकांश हिस्से, चीन और पूर्वी एशिया तक वह मॉडल बहुत लोकप्रिय रहा। भारत में खास बात थी लाइसेंस राज जहां निजी क्षेत्र को उत्पादन का कोटा दिया गया। इसके अलावा औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के जरिये 100 से अधिक कर्मचारियों वाले उपक्रमों से कर्मियों की छंटनी को बेहद कठिन बना दिया गया था। डॉ. पानगड़िया शायद यह दिखाना चाहते हैं कि नेहरू ने समाजवादी विचार खुद विकसित किए लेकिन हकीकत यह है कि वे विचार उस दौर में चलन में थे।
वास्तव में 1944 में बिड़ला और टाटा के नेतृत्व में पूंजीपतियों द्वारा तैयार किए गए बॉम्बे प्लान की रूपरेखा भी बहुत हद तक समाजवादी अभिरुचि वाली दूसरी पंचवर्षीय योजना के जैसी ही थी जिसे नेहरू और महालनोबिस द्वारा 1956 में तैयार किया गया था। डॉ. पानगड़िया इस असहज प्रमाण को यह कहकर समझाते हैं कि इन उद्योगपतियों को पहले से ही नेहरू की सोच का पता था और इसलिए उन्होंने एक ऐसी योजना तैयार की जो नेहरू की सोच के अनुरूप थी। वे यह समझाने में असफल रहते हैं कि इतने शक्तिशाली उद्योगपति, जिनकी पहुंच गांधीजी तक थी, वे 1944 में नेहरू से इतने भयभीत क्यों होते।
जैसा कि मैंने बॉम्बे प्लान पर मेघनाद देसाई और संजय बारू द्वारा संपादित किताब के एक अध्याय में तर्क दिया है, भारत के उद्योगपतियों ने जापानी और कोरियाई उद्योगों का मार्ग नहीं अपनाया, जिन्होंने औद्योगीकरण के लिए सरकारी समर्थन मांगा था। इसके बजाय, उन्होंने एक ऐसी योजना तैयार की जिसने सभी प्रमुख क्षेत्रों और भारी उद्योग को राज्य के हवाले कर दिया, और केवल उपभोक्ता वस्तुओं को निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया।
तीसरा, पूर्वी एशिया के देश मसलन ताईवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और हॉन्ग कॉन्ग और फिर जापान 1970 के दशक में निर्यात आधारित वृद्धि की ओर बढ़ गए। 1980 के दशक में चीन ने तंग श्याओ पिंग के नेतृत्व में यही किया और जबरदस्त कामयाबी हासिल की। भारत ने 1991 के आर्थिक संकट के पहले तक अपना रास्ता नहीं बदला।
उस समय भी उसने आंशिक रूप से ही बदलाव किया और बड़े पैमाने पर सरकारी क्षेत्र को बरकरार रखा। इंदिरा गांधी ने पूरे बैंकिंग तंत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया। नेहरू ने कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी। वर्ष 1951 में भारत में पांच सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम (पीएसयू) थे, और 1965 तक यानी नेहरू के निधन के एक वर्ष बाद यह संख्या लगभग 80 हो गई थी। वर्ष 1991 में, जब आर्थिक सुधारों की पहली लहर शुरू हुई, तब यह संख्या बढ़कर 246 हो गई थी, और 2014–15 तक यह लगभग 298 तक पहुंच गई। आश्चर्यजनक रूप से, मोदी सरकार ने इस संख्या को और बढ़ाकर 365 कर दिया, महारत्नों (विशाल पीएसयू) की संख्या 7 से दोगुनी कर 14 कर दी, और 2018 से आयात संरक्षण को फिर से लागू किया।
डॉ. पानगड़िया के मुताबिक नेहरू मॉडल के स्थायित्व का कारण यह था कि इसने राजनेताओं, अफसरशाहों, नीति विश्लेषकों और यहां तक कि व्यापारियों की एक ऐसी जमात तैयार कर दी थी जो समाजवादी मॉडल से बंधे हुए थे और किसी भी बदलाव का विरोध करते थे। उनकी किताब की दिक्कत यह है कि उसमें कोई तुलनात्मक विश्लेषण नहीं है। आखिर क्यों तंग श्याओ पिंग 1979 के बाद माओ की नीतियों में इतने भारी बदलाव करने में सक्षम हुए, जबकि वे उसी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ काम कर रहे थे जो पहले माओ के प्रति पूर्ण निष्ठा रखती थी।
वहीं नेहरू के उत्तराधिकारियों को दिशा बदलने में इतनी कठिनाई क्यों हुई? इसका कोई ठोस स्पष्टीकरण वे नहीं देते। वे 1991 में आंशिक बदलाव के लिए नरसिंह राव की प्रशंसा करते हैं और इसका श्रेय इस बात को देते हैं कि उन्होंने तंग श्याओ पिंग के सुधारों को पढ़ा था। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि 1990 में भी भारत की प्रति व्यक्ति आय चीन से अधिक थी। सच तो यह है कि राव ने पत्रकार शेखर गुप्ता को दिए एक साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से कहा था कि वे तंग के सुधारों से प्रेरित नहीं थे।
मैं मोदी सरकार द्वारा गत माह अधिसूचित श्रम सुधारों को लेकर खुश हूं। ये सुधार संसद द्वारा पांच वर्ष पहले पारित किए गए थे। 19 राज्यों ने पहले ही श्रम बाजारों के अनुरूप लचीलेपन को मंजूरी दे दी थी और अब उनके यहां कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार की मंजूरी तभी चाहिए होगी जब कम से कम 300 कर्मचारी हों। पहले यह सीमा 100 की थी। यानी गत माह की अधिसूचना के कोई बहुत बड़े लाभ नहीं हैं लेकिन यह फिर भी स्वागतयोग्य है।
अब भारत को आवश्यकता है अधिक आक्रामक और पारदर्शी निजीकरण की ताकि सरकारी उपक्रमों में फंसी पूंजी का लाभ उठाया जा सके। उसका इस्तेमाल और अधिक सार्वजनिक अधोसंरचना तैयार करने और सरकारी कर्ज कम करने में किया जा सकता है। अमेरिकी शुल्क वृद्धि के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था बेहतर हालात में है और मुद्रास्फीति कम है। मुझे उम्मीद है कि अगले बजट में इस पर ध्यान दिया जाएगा।
मेरा उद्देश्य नेहरूवादी आर्थिक मॉडल का बचाव करना नहीं है। मैंने राज कृष्ण जैसे प्रख्यात विद्वान के अधीन अर्थशास्त्र का अध्ययन किया, जो उस मॉडल के कट्टर आलोचक थे। उन्होंने ही भारत की 1950 से 1980 तक की दयनीय आर्थिक प्रगति के लिए प्रसिद्ध वाक्यांश ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ गढ़ा था और लाइसेंस राज के भी कठोर आलोचक थे।
मेरा कहना यह है कि हमें नेहरू द्वारा छोड़ी गई व्यवस्था को सुधारने के लिए 60 साल मिले हैं, और यदि उनके उत्तराधिकारियों ने ऐसा नहीं किया, तो इसके लिए बार-बार नेहरू को दोषी ठहराना उचित नहीं है। भले ही उनकी आर्थिक नीतियां बाद में गलत साबित हुईं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अनेक त्याग किए। इनमें 9 वर्ष का कारावास भी शामिल है। उन्होंने हमें एक जीवंत लोकतंत्र दिया, जो अनेक चुनौतियों के बावजूद आज तक कायम है।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी में विशिष्ट अतिथि विद्वान हैं। ये उनके निजी विचार हैं)