विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा हाल में जारी किए गए दो कार्य पत्रों में भारत के गरीबी कम करने संबंधी प्रदर्शन पर छिड़ी बहस पर जोर दिया गया है। हालांकि ये पर्चे दोनों संगठनों का आधिकारिक नजरिया सामने नहीं रखते लेकिन वे भारत की गरीबी हटाने में दीर्घकालिक सफलता तथा महामारी समेत हालिया घटनाओं ने इन प्रयासों को किस तरह प्रभावित किया हो इस विषय पर चर्चा का प्रस्थान बिंदु तो प्रस्तुत करते ही हैं। विश्व बैंक के पर्चे का शीर्षक है, ‘पॉवर्टी इन इंडिया हैज डिक्लाइन्ड ओवर द लास्ट डिकेड बट नॉट एज मच एज प्रीवियसली थॉट’ (बीते एक दशक में भारत में गरीबी घटी है लेकिन उतनी नहीं जितना पहले सोचा गया था)। इसे लिखा है सुतीर्थ सिन्हा रॉय तथा रॉय वान डेर वीड ने। आईएमएफ के पर्चे का शीर्षक है, ‘पैनडेमिक, पॉवर्टी ऐंड इनिक्वैलिटी: एविडेंस फ्रॉम इंडिया’ (महामारी, गरीबी और असमानता: भारत से मिले साक्ष्य)। इस रिपोर्ट को लिखा है आईएमएफ में भारत के प्रतिनिधि सुरजीत भल्ला, देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद विरमानी तथा करण भसीन ने। विश्व बैंक के पर्चे में कहा गया है कि भारत ने 2011 से 2019 के बीच ‘अत्यधिक गरीबी’ वाले लोगों में आधी कमी की है जबकि आईएमएफ का पर्चा इससे भी आगे बढ़कर यह सुझाता है कि अगर खाद्यान्न राशन हस्तांतरण जैसी चीजों को ध्यान में रखा जाए तो भारत ने अत्यधिक गरीबी का उन्मूलन कर दिया है। दोनों पर्चे ‘अत्यधिक गरीबी’ के लिए वही परिभाषा इस्तेमाल करते हैं जो आम तौर पर बहुपक्षीय संस्थानों द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं यानी क्रय शक्ति समता के संदर्भ में रोजाना 1.90 डॉलर से कम आय। आईएमएफ का पर्चा विश्व बैंक की तुलना में ज्यादा आशावादी है और उसमें यह दावा भी किया गया है कि 2020-21 में खपत की असमानता बीते चार दशकों के न्यूनतम स्तर पर थी।
विश्व बैंक के आंकड़े दर्शाते हैं कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले अत्यधिक गरीब भारतीयों की तादाद 2011 के 26.3 फीसदी से घटकर 2019 में 11.6 फीसदी रह गयी। शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 14.2 फीसदी से घटकर 6.3 फीसदी रह गया, जो अपेक्षाकृत धीमा था मगर इसका आधार भी अलग था। पर्चे में कहा गया कि यह गिरावट वृहद स्तर के निजी अंतिम खपत व्यय (पीएफसीई) की अपेक्षा से कमतर रही। आईएमएफ के लेखकों ने पीएफसीई के अधिक प्रभावशाली आंकड़ों का इस्तेमाल किया।
विश्व बैंक का अंकेक्षण यह भी बताता है कि गरीबी में कमी असमान रही। नोटबंदी ने गरीबी की दर बढ़ाई और महामारी के ऐन पहले वाले वर्ष में अर्थव्यवस्था में आई गिरावट ने भी ऐसा किया। उस वर्ष ग्रामीण गरीबी में 10 फीसदी का इजाफा हुआ। इससे पता चलता है कि ग्रामीण भारत में कई लोग आर्थिक झटकों को लेकर असुरक्षित हैं। अगर सरकार अत्यधिक गरीबी का उन्मूलन करना चाहती है तो उसे स्थिर और उच्च वृद्धि पर जोर देना होगा।
विश्व बैंक के आंकड़े सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकनॉमी के उपभोक्ता पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे पर आधारित हैं, जिन्हें कंपनियां और विद्वान बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं। ऐसे सर्वेक्षण भले ही उपयोगी हों और संकेत प्रदान करते हों लेकिन भारत गरीबी या बेरोजगारी के स्तर जैसे अहम सवालों के जवाब निजी क्षेत्र के ऐसे अधूरे सर्वेक्षणों के आधार पर नहीं निकाल सकता। उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण को प्राथमिकता पर शुरू करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसा अंतिम सर्वेक्षण नोटबंदी के तत्काल बाद कराया गया था और इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। जब तक सरकार की ओर से पारदर्शी और पेशेवर आंकड़े दोबारा प्रस्तुत नहीं किए जाते तब तक गरीबी में कमी के बारे में कोई भी दावा केवल अटकलबाजी बनकर रह जाएगा। आंकड़ों की अनुपस्थिति में सरकार भी आवश्यक नीतिगत हस्तक्षेप नहीं कर पाएगी।