‘कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता है, बस सोच ही इसे अच्छा या बुरा बनाती है।’ मसलन गूगल, एमेजॉन, फेसबुक, व्हाट्सऐप और नेटफ्लिक्स जैसे इंटरनेट प्लेटफॉर्म पर मार्केटिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले निजी प्रोफाइल से यह बात साबित भी होती है। लेकिन पाठक, थोड़ा सतर्क रहिए क्योंकि हम इस पर सोचें या नहीं लेकिन हम जो करते हैं उसके नतीजे असली होते हैं।
नीलामी खासकर स्पेक्ट्रम की नीलामी की कहानी सजगता से भरी है। हाल ही में पॉल मिलग्रॉम और रॉबर्ट विल्सन को नीलामी संबंधी डिजाइन के लिए अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। पुरस्कार चयन समिति ने ‘नीलामी के सिद्धांत में बेहतरी एवं नए नीलामी प्रारूपों की खोज’ के लिए यह पुरस्कार देने की घोषणा की। व्यापक स्तर पर कहा जाता है कि जनहित में स्पेक्ट्रम एवं अन्य सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन का सबसे अच्छा तरीका नीलामी ही है। लेकिन अच्छे नतीजों खासकर सेवा आपूर्ति के लिए जरूरी सभी धारणाओं को लेकर कुछ नहीं कहा गया है।
जब कई देशों में वायरलेस स्पेक्ट्रम या दूरसंचार लाइसेंस के लिए नीलामी संबंधी डिजाइन को अपनाया गया तो दो बातें हुईं। पहली, सरकारों ने नीलामी के जरिये भारी रकम इक_ा की। अमेरिका ने 1994 में और भारत ने लाइसेंस आवंटन, ब्रिटेन ने 2000 और यूरोप के कई देशों ने 2001 में नीलामी से पैसे जुटाए। दूसरी बात, इसका विनाशकारी परिणाम यह हुआ कि अमेरिका, ब्रिटेन एवं यूरोप में कई सफल बोलीकर्ता दिवालिया घोषित हो गए और भारत में कुछ बोलीकर्ता अपनी बोलियों से मुकर गए। बोलियों पर कायम रहने वाली कंपनियां भी इस कदर कर्ज में डूब गईं कि उन्हें बड़ी मुश्किल से हासिल स्पेक्ट्रम एवं लाइसेंस के इस्तेमाल के लिए जरूरी नेटवर्क विस्तार पर निवेश करने में परेशानी होने लगी। सेवा से वंचित होने से होने वाले कल्याण कार्यों को बेशुमार नुकसान हुआ।
सरकार के सफल राजस्व संग्रह और बोलीकर्ताओं एवं उद्योग पर अनर्थकारी कर्ज के मेल के साथ ही उपभोक्ताओं एवं समाज को वंचना का सामना करने की स्थिति 1995-96 में अमेरिका और भारत में 2010 के बाद दोहराई गई। इस बीच 2000 में डॉटकॉम का बुलबुला फूटने के बाद दूरसंचार क्षेत्र का विश्वव्यापी पतन हुआ जिसमें बढ़ती नीलामी बोलियों का भी हाथ रहा। यह पतन डॉटकॉम के धराशायी होने से भी 10 गुना बड़ा था और दूरसंचार क्षेत्र करीब एक दशक तक ऊंची बोलियों वाले देशों में अव्यवहार्य कर्ज के बोझ तले दबा रहा।
हालांकि भारत 1999 में राजस्व-साझेदारी के नियमों में बदलाव की वजह से इसका अपवाद बना रहा। जानकारों ने स्विट्जरलैंड एवं स्वीडन जैसे देशों में कम नीलामी और दक्षिण कोरिया, जापान एवं फिनलैंड जैसे देशों में स्पेक्ट्रम की नीलामी नहीं होने के बारे में नकारात्मक नजरिया अपनाया। अचरज नहीं है कि इन देशों ने दूरसंचार सेवा के मामले में बेहतरीन स्तर हासिल किया क्योंकि उन पर स्पेक्ट्रम नीलामी में डूबे निवेश का बोझ नहीं था। उन देशों में कर्ज का बोझ उतारने के बजाय नेटवर्क विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया गया। फिर भी अब तक भारत समेत कई देशों की सरकारें एक वस्तुनिष्ठ विश्लेषण से स्पष्ट होने वाली बातों को मानने में हिचकिचाती रही हैं। हितधारकों को कर्ज समाधान में सहयोग के लिए तैयार करने का विकल्प वास्तव में काफी मुश्किल है लेकिन देशव्यापी उच्च-गुणवत्ता वाले ब्रॉडबैंड की कमी एक ऐसी भारी अड़चन है जिसे नजरअंदाज करना हम पर भारी पड़ सकता है। हम इस व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर असली ताकत नहीं पैदा कर सकते हैं, सरकार चाहे जो दावे कर ले।
कई कारणों ने यह सोच पैदा की है कि सिद्धांतकारों, नीति-निर्माताओं, न्यायपालिका एवं आम लोगों की नजर में डूबी हुई लागत अप्रासंगिक है। डूबी हुई लागत के बारे में क्लासिक अर्थशास्त्र पुराना निवेश नजरअंदाज करने की दलील इस मान्यता पर देता है कि भविष्य के निवेश निर्णयों पर विगत निवेशों का कोई प्रभाव नहीं होता है। केवल सैद्धांतिक विद्वान ही ऐसी धारणाओं को स्वीकार कर सकते हैं, जैसे कि आर्थिक निर्णय पूरी तरह तार्किक होते हैं या फिर, लेनदेन की लागत शून्य होती है। लागत एवं लाभ के दायित्व से संबद्ध कोई भी व्यक्ति इस वास्तविकता को समझता है कि फंसे हुए संसाधन निवेश क्षमता पर असर डालते हैं जिससे निवेश एवं कीमत निर्धारण फैसले प्रभावित होते हैं।
कई वर्षों तक तमाम शोध सिद्धांतकारों की डूबी लागत के अप्रासंगिक होने और बाजार के धराशायी होने को नजरअंदाज करते हुए मुक्त बाजार में यकीन करने वाले नीति-निर्माताओं की धारणा का समर्थन करते रहे हैं। इस दौरान इस अपवाद को दोषपूर्ण मानते हुए नकारा जाता रहा कि ऊंची लागत से निवेश क्षमता प्रभावित होती है और उसके अहम निहितार्थ होते हैं। कभी-कभार विरोधाभासी लेख भी प्रकाशित होते रहे हैं लेकिन वित्तीय एवं व्यवहारवादी अर्थशास्त्र से हासिल प्रमाणों को हाल ही में शामिल कर इस धारणा को चुनौती दी गई है कि डूबी लागत भावी निर्णयों को प्रभावित नहीं करती है और संसाधनों पर बने गतिरोध व्यवहार पर किस तरह असर डालते हैं?
हालांकि कुछ विशेषज्ञों एवं प्रकाशनों ने नीलामी पर जोर देने की प्रवृत्ति से असहमति जताई है। एमआईटी मीडिया लैब्स के निदेशक निकोलस नेग्रोपोंट जैसे विशेषज्ञ और ‘डू संक कॉस्ट्स मैटर’, ‘व्हाट रियली मैटर्स इन स्पेक्ट्रम एलोकेशन डिजाइन’ एवं जीएसएमए की 2017 में ‘इफेक्टिव स्पेक्ट्रम प्राइसिंग’ पर आई रिपोर्ट स्पेक्ट्रम आवंटन की ऊंची लागत की कीमत उपभोक्ताओं को ही चुकाने का जिक्र करते हैं। लेकिन अधिकांशत: एकतरफा अकादमिक अनुसंधान, सूचना की कमी की शिकार अफसरशाही, ऑडिटर एवं न्यायपालिका नीलामी में जुटाई गई रकम को सफलता के पैमाने के रूप में देखते हैं।
इस पहलू के बारे में शोध की कमी की एक व्याख्या ‘अनजान अज्ञातों’ की समस्या हो सकती है। इसका मतलब है कि नहीं उठाए गए कदमों के नतीजों का मूल्यांकन कर पाना मुमकिन नहीं है। दरअसल नहीं उठाए गए कदमों के बारे में कोई आंकड़ा ही नहीं होता है। डॉनल्ड रम्सफेल्ड के शब्दों में कहें तो ‘प्रमाण की अनुपस्थिति असल में गैरमौजूदगी का प्रमाण नहीं है’। इस बीच भारत के अब तक इस्तेमाल नहीं हुए स्पेक्ट्रम की असलियत के साथ इसके दूरसंचार की हालत हमारी खोई हुई संभावनाओं को दर्शाती है। लेकिन जो चीज मौजूद नहीं है उसके समर्थन के बारे में कोई आंकड़ा भी नहीं है।
भारत में देशव्यापी ब्रॉडबैंड होने से व्यापक समावेशन, स्वास्थ्य देखभाल एवं आर्थिक गतिविधियों के लिए शिक्षा प्रदान करने, उत्पादकता एवं बेहतर जीवन-स्तर के लाभ होने की प्रबल संभावनाएं हैं। इसके लिए बेहतर कनेक्टिविटी की जरूरत है और उसके लिए हमें स्पेक्ट्रम एवं नेटवर्क के इस्तेमाल को लेकर अधिक रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। स्पेक्ट्रम तभी सार्वजनिक हित में लाभदायक होता है जब उसका पूरी तरह इस्तेमाल हो और कनेक्टिविटी एवं संचार मुहैया कराना इसके प्राथमिक उपयोग हैं। एक बुनियादी सेवा देने के लिए भारत का नजरिया एक विकासशील अर्थव्यवस्था के तौर पर काफी दोषपूर्ण है। इसमें स्पेक्ट्रम के उपयोग का अधिकार हासिल करने के लिए शुरुआत में बड़ी रकम चुकानी होती है और फिर सेवा देने के लिए भी नेटवर्क खड़ा करने में भारी निवेश करना होता है। इसके अलावा कारोबार चलाने के लिए नकदी की जरूरत होती है और स्पेक्ट्रम एवं उपकरणों के लिए लिए गए कर्ज को चुकाना भी होता है।
जब हमारे पास इतना सारा स्पेक्ट्रम उपलब्ध है और सेवा की मांग भी पूरी नहीं हो पा रही है तो जरूर कुछ-न-कुछ बहुत गलत है। हम सबको ब्रॉडबैंड सेवाएं मुहैया कराने के लिए स्पेक्ट्रम एवं नेटवर्क साझेदारी संबंधी व्यावहारिक नीति बना पाने में नाकाम रहे हैं। हमारी नीतियां दूरसंचार क्षेत्र के लिए अनवरत रूप से नकदी प्रवाह बने रहने की जरूरत को लेकर बेफिक्र नजर आती हैं। स्पष्ट है कि इस रवैये में सुधार की जरूरत है।
