यह एक गलतफहमी है कि अर्थशास्त्री और मीडिया के लोग आर्कमिडीज की तरह काम करते हैं।
यानी वह पहली बार किसी चीज को ढूंढते हैं, जबकि हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। ज्यादातर सामाजिक समस्याएं लंबे अर्से से मौजूद हैं और बुध्दिमान स्त्री और पुरुष इन समस्याओं पर इतने ही वक्त से गंभीरतापूर्वक विचार करते रहे हैं।
इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण वित्तीय मदद की पहुंच सभी लोगों तक कैसे पहुंचे, इस मुद्दे पर फिलहाल चल रही बहस है। यह कर्ज लेने वाले वैसे लोगों की समस्या के लिए महज सहानुभूति की तरह है, जो बकाया रकम की अदायगी नहीं कर पाते। हालांकि उनकी समस्या यह नहीं है कि वे कर्ज का भुगतान नहीं करना चाहते, जैसा कि बड़े स्तर पर कर्ज लेने वाले करते हैं। ये लोग कर्ज का भुगतान इसलिए नहीं कर पाते, क्योंकि वे काफी जोखिमभरी गतिविधियों मसलन खेती से कमाई करते हैं।
पुराने जमाने में इस बात को कहने का फैशन था कि ऐसे लोगों को बैंकों द्वारा कर्ज मुहैया कराया जाना चाहिए। उस वक्त गांव में ब्याज पर पैसे देने वाले लोग हुआ करते थे, जो इन लोगों को कर्ज देते थे। चूंकि कर्ज देने वालों के पैसे डूबने का जोखिम ज्यादा होता था, इसलिए ये लोग काफी ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देते थे।
इस संदर्भ में सभी लोगों को आसानी से वित्तीय मदद उपलब्ध थी। हां कर्ज काफी महंगे जरूर थे। लेकिन लोकतंत्र की अपनी दलीलें होती हैं और आजादी के बाद ऊंची ब्याज दरों के खिलाफ आवाजें (खासकर राजनेताओं की तरफ से) उठने लगीं। हालांकि आवाज उठाने वालों ने कर्ज की रकम डूबने के जोखिम के बारे में ध्यान नहीं दिया।
उनका कहना था कि अगर कर्जों का भुगतान नहीं किया जाता है, तो इसे बैड डेट करार दिया जा सकता है। इस बार के बजट में छोटे और सीमांत किसानों के लिए कर्जमाफी का ऐलान इसी सोच के तहत किया गया है।
किसानों को सस्ते कर्ज मुहैया कराने की नीति से गांव के सूदखोरों को काफी परेशानी भी झेलनी पड़ रही थी। हालांकि सरकार ने उन्हें इस व्यवसाय से दूर करने की बहुत कोशिश की, लेकिन बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। गांव के सूदखोरों पर भारतीय रिजर्व बैंक के एक सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण कर्जों में इन सूदखोरों का हिस्सा 30 फीसदी है। इस मामले में सरकार की कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि सरकारी आशंकाओं के मद्देनजर सूदखोरों ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर दी।
सरकार की नीतियों से गरीब लोग और गरीब हो गए। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, बैंक उन्हें अब कर्ज नहीं देने के मूड में हैं, (हालांकि हकीकत यह भी है कि गरीब लोग कर्ज के लिए बैंक से संपर्क करने से डरते हैं) और सूदखोर उनसे ऊंची ब्याज दर वसूलेंगे। इस लिहाज से गरीब लोग कहीं के नहीं रहे। यही नहीं, ग्रामीण सूदखोरों की अहमियत कुछ समय तक घटने के बाद फिर से बढ़ने लगी। आज गांव में रहे ग्रामीण लोगों के लिए सूदखोर कर्ज लेने का प्रमुख जरिया बन चुके हैं।
मकसद अगर गांव के गरीब लोगों को सस्ते कर्ज मुहैया कराना ही है, तो सूदखारों को क्रेडिट सिस्टम से पूरी तरह हटाने की कोशिश करने के बजाय उन्हें भी सिस्टम में शामिल करना शायद बेहतर होगा। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस संबंध में कुछ दिलचस्प सिफारिशें (लेकिन संभवत: राजनीतिक रूप से काफी मुश्किल) की हैं। इसका सार कुछ इस तरह है। रिजर्व बैंक की परिकल्पना के मुताबिक, कर्ज मुहैया कराने वालों को मान्यता देने की बात कही गई है।
ये लोग बैंक के नुमाइंदे के तौर पर काम करेंगे और कर्ज लेने के इच्छुक लोगों की साख, ईमानदारी आदि की पड़ताल करेंगे। इन लोगों का इस्तेमाल छोटे कर्ज के मद्देनजर किया जाएगा, जो बैंक मुहैया कराएंगे। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि ये लोग बैंक के बदले कमीशन एजेंट की तरह काम करेंगे।
इन सिफारिशों की सफलता सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारों का सहयोग काफी जरूरी है। इसके लिए उन्हें सूदखोरों के लिए बनाए गए पुराने नियमों में बदलाव करना होगा। इस मोर्चे पर भी रिजर्व बैंक ने नियमों का मसौदा पेश किया। रिजर्व बैंक की सिफारिशें कुछ इस तरह हैं।
1. एक मॉडल नियम
2. विवादों के निपटारे के लिए त्वरित कार्रवाई करने वाला तंत्र
3. लाइसेंस की जगह रजिस्ट्रेशन का विकल्प
4. विवादों के निपटारे के लिए लोक अदालत और न्याय पंचायत जैसे तंत्र बनाए जाने चाहिए और 50 हजार तक के कर्जो पर हुए विवाद को निपटाने का अधिकार न्याय पंचायतों को सौंपा जाना चाहिए।
5. कर्ज मुहैया कराने वालों का एक नया वर्ग बनाया जाने की जरूरत है। ये लोग बैंक से जुड़े होंगे।
संक्षेप में कहें तो भारतीय रिजर्व बैंक ने जु-जित्सु में इस्तेमाल किए जाने वाले जापानी सिध्दांत की तर्ज पर ये सिफारिशें की हैं। इसके तहत प्रतिद्वंद्वी की ताकत का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया जाता है। मनीलेंडरों की जगह इस नए एजेटों को जगह दिलाने में राजनीतिक दिक्कतों को देखते हुए इस बात की संभावना कम है इस आइडिया पर तुरंत अमल मुमकिन हो सकेगा। हालांकि आखिरकार इस प्रणाली को पूरी तरह या इसमें थोड़ा बहुत फेरबदल कर इसे अपनाने के सिवा कोई चारा नहीं है।