राजनीतिक अर्थव्यवस्था के नजरिये से केंद्रीय बजट यह समझने के लिए एक अहम दस्तावेज है कि राज्यों के साथ केंद्र सरकार के वित्तीय रिश्ते किस प्रकार विकसित हुए हैं। यह देखना भी महत्त्वपूर्ण है कि बजट सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector) के उपक्रमों के साथ केंद्र की वित्तीय संबद्धता को किस प्रकार सामने रखता है।
ध्यान रहे कि वर्षों के विनिवेश तथा निजीकरण के कुछ मामलों के बावजूद ये उपक्रम भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अभी भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट पेश किए जाने के एक सप्ताह बाद इस नजरिये से उनके सालाना वित्तीय दस्तावेज को देखना उपयोगी होगा।
केंद्र सरकार के वित्तीय रिश्ते प्रमुख तौर पर वित्त आयोग की अनुशंसाओं से संचालित होते हैं। इसके मुताबिक केंद्र सरकार द्वारा संग्रहित कुल करों में राज्यों की हिस्सेदारी 41 फीसदी है। हालांकि यहां एक पेच है। राज्यों को दी जाने वाली राशि का आकलन कुल बांटी जा सकने वाली कर प्राप्तियों के हिस्से के रूप में होता है। बीते कुछ वर्षों में विभिन्न उपकरों और
अधिभारों से होने वाला संग्रह निरंतर बढ़ा है। 2017-18 में यह केंद्र के कुल संग्रह का 5 फीसदी था जो 2021-22 में 11 फीसदी हो गया। बजट के संशोधित अनुमानों के मुताबिक चालू वर्ष में यह करीब 13 फीसदी होगा।
वित्त आयोग के फॉर्मूले के मुताबिक राज्यों के साथ बांटी जाने वाली राशि पर नकारात्मक असर होना तय था। निश्चित रूप से बीते कुछ वर्षों में उपकरों और
अधिभारों में तेजी से इजाफा हुआ है, ऐसे में इस अवधि में कुल कर स्थानांतरण भले ही उचित गति से बढ़ता रहा है लेकिन केंद्र के सकल कर संग्रह में उनकी हिस्सेदारी 30-33 फीसदी के स्तर पर ठहरी रही है।
क्या आगामी वर्ष में यह रुझान बदलेगा? बजट में कुछ ऐसी बातें हैं जो राज्यों और उनके वित्त मंत्रियों को प्रसन्न कर सकती हैं। 2023-24 में उपकर और अधिभार में हाल के वर्षों की सबसे धीमी वृद्धि देखने को मिल सकती है। यह चार फीसदी के साथ चार लाख करोड़ रुपये होगी।
सकल कर संग्रह में उनकी हिस्सेदारी भी घटकर 12 फीसदी रह जाएगी। यह कोई बड़ी राहत नहीं है लेकिन अगर राज्यों को किए जाने वाले कुल कर स्थानांतरण को 2023-24 में 8 फीसदी बढ़ाकर 10.21 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचना है तो ऐसा इसलिए होगा कि सकल घरेलू उत्पाद में उपकरों और अधिभार की हिस्सेदारी में तीन वर्ष में पहली बार कमी आ रही है।
सीतारमण ने जिस प्रकार अत्यधिक अमीरों या पांच करोड़ रुपये से अधिक की कर योग्य आय वालों के लिए आय कर में कमी की है उससे भी राज्यों के वित्त मंत्री प्रसन्न होंगे।
वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि 2023-24 में कर संग्रह का अनुमान आय कर राहत के पूरे प्रभाव को नहीं दर्शा पाएगा क्योंकि यह निर्णय इतनी देर से लिया गया कि इसे बजट आंकड़ों में शामिल नहीं किया जा सकेगा। अब अत्यधिक अमीरों पर लगने वाले कर को 42.7 फीसदी से कम करके 39 फीसदी कर दिया गया है क्योंकि इस पर लगने वाले अधिभार को 37 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी कर दिया गया।
इसके कारण राजस्व को पहुंची हानि का बोझ पूरी तरह केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाएगा और यह राज्यों को किए जाने वाले स्थानांतरण पर असर नहीं डालेगा।
राज्यों को किए जाने वाले पूंजीगत व्यय आवंटन को 30 फीसदी बढ़ाकर 1.3 लाख करोड़ रुपये किए जाने के साथ जोड़कर देखें तो राज्यों के पास यह मानने की वजह है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय का समग्र रुख उनके प्रति सहयोगात्मक हुआ है।
केंद्र द्वारा राज्यों को किए जाने वाले गैर कर स्थानांतरण का प्रदर्शन कैसे रहा? कर स्थानांतरण के अलावा राज्यों को केंद्र से अनुदान और ऋण के रूप में भी सहायता मिलती है।
महामारी के बाद से सालाना अनुदान और ऋण के रूप में राज्यों को मिलने वाली सहायता में कोई इजाफा नहीं हुआ है और यह करीब 8 लाख करोड़ रुपये पर ठहरी हुई है जबकि कर स्थानांतरण में स्थिर गति से सुधार हुआ है। 2023-24 तक यह सिलसिला बरकरार रहेगा।
2023-24 के बजट के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है कि कैसे इसमें पूंजीगत व्यय में उदारता बरती गई है। परंतु इस इजाफे की एक अहम बात यह है कि पूंजी आवंटन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी बैंकों को पूंजी समर्थन के रूप में दिया जाएगा।
2023-24 में 10 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत व्यय का प्रस्ताव रखा गया है। इसमें से आधी से अधिक राशि उनकी इक्विटी को केंद्र सरकार की बजट सहायता के रूप में सरकारी उपक्रमों को दी जानी है और मामूली हिस्सा ऋण के रूप में। 2022-23 में सरकारी उपक्रमों के खाते में सरकार के पूंजीगत व्यय का आधा हिस्सा गया था जबकि 2021-22 में यह 42 फीसदी था।
खेद की बात है कि ऐसा करने से परियोजनाओं पर पूंजीगत आवंटन के मामले में स्वयं सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी और उनका योगदान कम होता गया।
2021-22 में सरकारी उपक्रम अपने कुल पूंजीगत आवंटन में 64 फीसदी योगदान करते थे लेकिन 2022-23 में यह घटकर 52 फीसदी और 2023-24 में 49 फीसदी रह गया। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारी उपक्रम अपनी पूंजीगत जरूरतों के लिए केंद्र पर निर्भर होते जा रहे हैं। यह अच्छी बात नहीं है।
भारतीय रेलवे की हालत को देखकर देश के सरकारी उपक्रमों की खस्ता स्थिति को समझा जा सकता है। 2023-24 में उसे केंद्र सरकार से 2.4 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत समर्थन मिलेगा लेकिन उसका कुल पूंजीगत व्यय केवल करीब 2.93 लाख करोड़ रुपये है यानी पूंजीगत परियोजनाओं में उसका योगदान 18 फीसदी रह जाएगा।
पिछले दो वर्षों में यह 38 फीसदी था। आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय रेल का परिचालन अनुपात जो उसकी वित्तीय स्थिति का मानक है, वह 98 पर है जबकि उसके द्वारा जुटाए जाने वाले अतिरिक्त बजट संसाधन 2022-23 के 82,000 करोड़ रुपये से घटकर 2023-24 में 17,000 करोड़ रुपये रह जाएंगे।
परंतु यहां अहम मुद्दा यह है कि केंद्र सरकार के पूंजीगत व्यय में होने वाले सुधार की आड़ में सरकारी क्षेत्र के योगदान में आ रही चिंताजनक गिरावट को छिपाया नहीं जाना चाहिए।
यह स्थिति निवेश पर उचित प्रतिफल सुनिश्चित करने की जवाबदेही का उल्लंघन करती है। इस रुझान को यथाशीघ्र बदला जाना चाहिए।
इसके साथ ही साथ सरकार को परिसंपत्तियों की बिक्री तथा निजीकरण को लेकर अपनी योजना को तेज करना चाहिए। 2023-24 के बजट भाषण में इन दोनों बातों का शायद ही कोई जिक्र देखने को मिला।