पिछले साल अक्टूबर के अंत में विजयदशमी के ठीक बाद मैं दिल्ली से उत्तराखंड के कॉर्बेट नैशनल पार्क गया। मैं पिछले 15 वर्षों में अनगिनत बार उस रास्ते पर गया हूं। अक्सर पहाड़ जाता रहता हूं इसलिए मुझे हर मौसम में सड़क की सही जानकारी रहती है।
दिल्ली से रामनगर तक की 275 किलोमीटर की यात्रा अब कई दृष्टि से बहुत कम कठिन हो गई है। कई लेन और समतल सतह के साथ अधिकांश हिस्सों में सड़क की गुणवत्ता अच्छी है। कई बाईपास पूरी तरह बन जाने से भीड़भाड़ वाले छोटे शहरों में आवागमन में होने वाली देरी कम हो गई है। पहले गाजियाबाद से निजामुद्दीन पुल तक 20 किलोमीटर की दूरी पर चौबीसों घंटे जाम रहता था लेकिन दिल्ली के अंदर और बाहर एक्सप्रेसवे की वजह से जाम के तनाव और वाहन चालन के समय दोनों में भारी कमी आई है।
रास्ते में अच्छे शौचालय और भोजनालय हैं। यात्री कई स्थानों पर टोल का भुगतान करते हैं, और फास्टैग्स के साथ परेशानी और भी कम हो गई है। हालांकि, दो वजहों से परेशानी बढ़ जाती है। पहली वजह यह कि कभी-कभार, तेज संगीत बजाते माइकों के साथ ट्रकों में भरे युवकों से राजमार्ग जाम हो जाता है। ये लोग अपने आप में एक कानून हैं, वे न तो टोल चुकाते हैं और न ही यात्रियों को सामान्य गति से चलने देते हैं। जब लड़के राजमार्ग पर नृत्य करने के लिए उतरते हैं तो ट्रक बहुत धीमी गति से चलते हैं, जिससे यातायात बाधित हो जाता है।
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दूसरी परेशानी है धुआं। रामनगर तक के पूरे रास्ते में समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाई जा रही थी। हालांकि अक्टूबर में दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) खराब स्थिति में था, लेकिन रामनगर तक के मार्ग में यह और बदतर था। दिल्ली को कहीं और जली हुई पराली का धुआं मिलता है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो वहीं के खेतों से धुआं आता है जो पूरे राजमार्ग पर छा जाता है।
क्रिसमस से ठीक पहले, मैं एक बार फिर कुमाऊं की ओर निकल पड़ा और पहाड़ी रास्ते में लगभग 100 किलोमीटर अतिरिक्त गाड़ी चलाकर वहां पहुंचा। एक बार फिर मुझे काठगोदाम (जो 500 मीटर की ऊंचाई पर है) तक हर जगह धुआं ही धुआं नजर आया। उससे आगे, जैसे-जैसे सड़क चढ़ती गई, धुआं कम होता गया। लेकिन फिर भी, जब तक हम कम से कम 1,000 मीटर ऊपर नहीं पहुंचे थे, एक्यूआई खराब था। यहां तक कि तलहटी में भी धुएं के अजीब कण थे जो जंगल में आग की आशंका को देखते हुए भयावह लग रहे थे।
लौटते समय भी यही कहानी थी। जब हम मैदानी इलाकों में उतर रहे थे तो धुआं बढ़ रहा था। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में प्रवेश करते ही यह बेहतर हो गया, जबकि दिल्ली उस समय ‘गंभीर’ श्रेणी में था। और हां, वहां बड़ी संख्या में युवा पूर्णिमा या कोई त्योहार मना रहे थे, या शायद किसी आगामी त्योहार के लिए अभ्यास कर रहे थे।
खराब वायु गुणवत्ता एक ऐसी समस्या है जिससे हर औद्योगिक समाज को निपटना पड़ा है। लंदन को ‘पीसूपर’ स्मॉग से गुजरना पड़ा था। न्यूयॉर्क और हैम्बर्ग जैसे अन्य बड़े शहरों में 19वीं सदी के मध्य से लेकर (पेट्रोल-डीजल इंजन वाले वाहनों से बहुत पहले) और 1960 के दशक तक इसी तरह की समस्याएं थीं। वे अधिकतर लकड़ी और कोयले की आग के संयोजन के कारण होते थे।
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उत्तर भारत में यह असामान्य बात है कि यहां धुंध का मुख्य कारण किसानों द्वारा पराली जलाना है। हवा की गुणवत्ता बेहद खराब होने पर निर्माण और वाहनों पर लगाए गए प्रतिबंध अनुपयोगी हैं। वे वायु की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद नहीं करते हैं। प्रतिबंध महज संकेत हैं कि राजनीतिक प्रतिष्ठान ‘कुछ कर रहे हैं’।
भारत के अन्य हिस्से पराली जलाने से कम प्रभावित होते हैं, कुछ हद तक आहार संबंधी आदतों में अंतर के कारण ऐसा होता है। पूर्व और दक्षिण में किसान बत्तखें, बकरियां और मुर्गियां पालते हैं, जो ठूंठ खाते हैं और इस प्रकार इसे मनुष्यों के लिए स्वादिष्ट चीजों में संसाधित करते हैं। लेकिन अन्य जगहों पर कम एक्यूआई यह भी संकेत देता है कि नागरिक समाज कुछ हद तक विकसित हो चुका है। पराली जलाने से खराब एक्यूआई तमिलनाडु, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल या महाराष्ट्र में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा होता।
आदर्श समाधान यह होगा कि उत्तर भारत में किसानों को मुर्गी या अन्य पशुधन पालने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। यदि ऐसा संभव नहीं है तो अन्य समाधान भी हैं, जैसे बायोमास फीड का उपयोग करके बिजली संयंत्र स्थापित किया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक प्रतिष्ठान इन्हें तभी लागू करने का प्रयास करेगा जब नागरिक समाज से पर्याप्त शोर हो। इसी तरह, अगर रोजगार के आंकड़े बेहतर होते तो सड़कों पर नाचने वाले युवा कम होते, लेकिन निस्संदेह, यह एक ऐसा मुद्दा है जो नागरिक समाज के दायरे से बहुत आगे है।