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जिम्मेदारी भरे नियमन हैं सुधारों की कुंजी

अब विनियमन पर जोर दिया जा रहा है, इसलिए सरकारी नियम-कायदे तैयार करते समय नौ बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बता रहे हैं

Last Updated- March 04, 2025 | 9:23 PM IST
SEBI
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी)

आर्थिक समीक्षा में इस बार स्पष्ट संदेश दिया गया है: ‘रास्ता छोड़ो।’ इसमें वृद्धि की रफ्तार तेज करने के लिए आर्थिक आजादी की वकालत की गई है। इसके लिए समीक्षा में प्रस्ताव है, ‘इस बात की व्यवस्थित समीक्षा की जाए कि नियम-कायदे कितने किफायती हैं और उसके बाद व्यवस्थित तरीके से विनियमन किया जाए।’ समीक्षा में देखना होगा कि नियमों के अनुपालन से कितना वित्तीय बोझ पड़ रहा है, दूसरी किन गतिविधियों पर असर पड़ रहा है, राज्य की कितनी क्षमता उनमें लग रही है और उनके अवांछित परिणाम क्या हैं। यह बात करीब एक दशक से कही जा रही है मगर पिछले कुछ साल में इस पर ज्यादा ध्यान गया है क्योंकि दिखने लगा है कि जरूरत से ज्यादा नियमन आर्थिक वृद्धि के लिए कितना खराब है। इस समय विनियमन की मांग उतनी ही तेज है, जितनी 1990 के दशक में नियंत्रण खत्म करने की मांग थी, जिसने उस दशक में भारत के आर्थिक सुधारों को आकार दिया था।

वित्त मंत्री ने 2023-24 के अपने बजट भाषण में वित्तीय क्षेत्र नियामकों से मौजूदा नियमों की व्यापक समीक्षा का अनुरोध किया था ताकि उन्हें, ‘सहज, सरल बनाया जा सके और अनुपालन की लागत कम की जा सके।’ उनका सुझाव था कि वित्तीय क्षेत्र के उपयुक्त नियमन के लिए नियम बनाते समय और सहायक निर्देश जारी करते समय जनता से मशविरा किया जाए। इसी को आगे बढ़ाते हुए 2025-26 के बजट में नियामकीय सुधारों के लिए उच्चस्तरीय समिति बनाने का प्रस्ताव रखा गया है, जो वित्तीय क्षेत्र के अतिरिक्त बाकी सभी क्षेत्रों के नियम-कायदों की समीक्षा करेगी। साथ ही बजट में मौजूदा वित्तीय नियमों और सहायक निर्देशों के प्रभाव की पड़ताल के वास्ते एक प्रक्रिया भी लाई गई है। प्रतिस्पर्द्धा (संशोधन) अधिनियम 2023 ने इसी एजेंडा पर बढ़ते हुए तय अंतराल पर प्रतिस्पर्द्धा नियामक द्वारा नियमों की समीक्षा अनिवार्य कर दी है। इसमें कहा गया है कि नियम बनाते समय
नियामक के लिए जन परामर्श का अनिवार्य है और परामर्श का तरीका भी बताया गया है।

इतना तो साफ है कि विनियमन का मतलब शासन कम करना नहीं बल्कि शासन बेहतर करना है। इसका अर्थ नियमन खत्म करना नहीं बल्कि बेजा नियम-कायदे हटाना और व्यर्थ नियम नहीं बनने देना है ताकि जिम्मेदारी भरे नियमन का दौर शुरू हो। नीतिगत पहलों से स्पष्ट है कि जिम्मेदारी भरे नियमन के दो प्रमुख तत्व हैं: (अ) नियमों के दायरे में प्राथमिक कानून और उनके साथ या उनके तहत बने निर्देश हैं जैसे नियम, नियमन, सहायक निर्देश, सर्कुलर और वे सभी बाध्यकारी कानून, जो केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और नियामकों ने बनाए हैं। (ब) ऐसे नियम-कायदे बनाते और उनकी समीक्षा करते समय सार्वजनिक मशविरा और आर्थिक विश्लेषण जरूर किया जाए।

भारत में वित्तीय नियामक पारदर्शी और मशविरे के साथ नियम निर्माण प्रक्रिया अपनाने में दूसरों से आगे हैं। सरकार ने सभी कानूनों के मसौदे और सहायक कानूनों के लिए सार्वजनिक मशविरे को 2014 में जरूरी बनाया था। सर्वोच्च न्यायालय ने 2016 में संसद से सिफारिश की थी कि कानून और नियम-कायदे बनाते समय उससे प्रभावित होने वालों के साथ परामर्श जरूर किया जाए। लेकिन भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने सार्वजनिक सलाह-मशविरे का काम 2002 में ही शुरू कर दिया था। कानूनी बाध्यता नहीं होने पर भी भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण और पेंशन कोष नियामकीय और विकास प्राधिकरण ने सक्रियता दिखाते हुए ऐसी व्यवस्थाएं तैयार की हैं, जिनके अनुसार ही उनके नियम-कायदे तैयार किए जाते हैं। सेबी इसमें नया नाम है, जिसने 13 फरवरी को सेबी (नियम निर्माण, संशोधन और समीक्षा प्रक्रिया) नियमन, 2025 अधिसूचित किया।

सेबी देश का पहला बड़ा नियामकीय प्रयोग था और कई नियामकीय समस्याओं से सबसे पहले उसका ही पाला पड़ा था। इन समस्याओं का हल अक्सर अन्य नियामकों के लिए नजीर बना है। बाजार नियमन के मामले में लंबे अरसे से सेबी की बहुत पुख्ता साख है। किंतु उसके हालिया नियम-कायदे इस साख की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं और विनियमन की जरूरत के मुताबिक भी नहीं हैं। पहले से मौजूद नियम या आगे आने वाले नियम बनाने की प्रक्रिया के जो कायदे हैं, उनमें आदर्श रूप से नौ तत्व होने चाहिए।

पहला, विधायिका ने कानून बनाने के अपने अधिकार नियामकों को इसलिए सौंपे हैं ताकि अपने अधिकार क्षेत्र के लिए कानूनी नियम वे खुद बना सकें। इसलिए नियम बनाने के कायदे केवल औपचारिक कानूनों पर ही लागू नहीं होने चाहिए बल्कि सर्कुलर जैसे उन सभी बाध्यकारी उपायों पर भी लागू होने चाहिए, जो बाजार भागीदारों पर कानून के तहत कुछ शर्तें लगाते हैं।

दूसरा, विधायिका ने अनिर्वाचित संस्थाओं द्वारा बनाए गए कानूनों को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करने के लिए कई तरह के उपाय किए हैं। उनमें एक प्रमुख उपाय यह है कि नियामक का संचालन बोर्ड ही नियम-कायदे बनाए। यह जिम्मेदारी किसी अन्य विभाग या अधिकारी को नहीं सौंपी जा सकती। नियम का मसौदा जारी करने से लेकर अंतिम नियम को मंजूरी देने और उनकी समीक्षा करने तक सब कुछ संचालन बोर्ड द्वारा ही होना चाहिए।

तीसरा, सार्वजनिक मशविरा किया जाए तो अवांछित नियम बनने से पहले ही खत्म हो जाते हैं। नियमों के मसौदे पर केवल हितधारकों से नहीं बल्कि आम जनता से राय मशविरा अनिवार्य किया जाना चाहिए। संचालन बोर्ड नियमों के मसौदे को मंजूरी दे, सार्वजनिक टिप्पणियों पर विचार करे और ऐसी टिप्पणियों पर अपनी प्रतिक्रिया दे। इस सबके बाद ही अंतिम नियम-कायदों को मंजूरी मिलनी चाहिए।

चौथा, आधुनिक नियामक जनता तक पहुंचने के लिए ऑफलाइन, ऑनलाइन जैसे कई तरीकों के इस्तेमाल करते हैं और प्रत्यक्ष भी मिलते हैं। वे उनसे कई तरह से रूबरू होते हैं मसलन सलाहकार समितियां, कार्य समूह, राउंड टेबल, सेमिनार, कार्यशालाएं और चर्चा पत्र। संचालन नियमों में जनता से संपर्क की न्यूनतम आवश्यकता और तरीके बताए जा सकते हैं।

पांचवां, मशविरा कारगर तभी होता है, जब जनता के सामने प्रस्तावित कानून का आर्थिक विश्लेषण रखा जाए ताकि वे उसका समूचा असर समझ सकें और सुधार अथवा विकल्प सुझा सकें। इससे लोग नियम-कायदों को ज्यादा स्वीकार करेंगे और उन्हें वापस लेने की संभावना नहीं रहेगी।

छठा, इस मामले में रियायत देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए मसलन यह नहीं कहा जाए कि यहां सार्वजनिक मशविरा सही नहीं है और छोड़ देना चाहिए। मगर कहीं जल्दी हो या फौरन हस्तक्षेप करना हो तो उसे जरूर देखना चाहिए। ऐसे में निश्चित अवधि के लिए नियम-कायदे लाए जा सकते हैं, जिनके बाद स्थायी नियम बनाना अनिवार्य हो।

सातवां, दो साल में एक बार समीक्षा कर पुराने और बेकार कायदे खत्म कर दिए जाएं और सारे नियम-कायदे कारोबार और बाजार की बदलती जरूरतों के हिसाब से दुरुस्त किए जाएं।

आठवां, सार्वजनिक मशविरे में आम तौर पर जनता को प्रतिक्रिया के लिए बहुत कम समय मिलता है। कुछ ऐसा तरीका होना चाहिए, जिसमें जनता किसी भी समय अपनी प्रतिक्रिया या सुझाव दे सके। ऐसे सुझावों की दो साल में एक बार समीक्षा हो और काम के उपाय नियम-कायदों में शामिल किए जाएं।

नवां, नियामकीय निश्चितता बढ़ाने के लिए नियामकों को मांगने पर स्पष्टीकरण भी प्रदान किए जाने चाहिए। ये स्पष्टीकरण लागू करने योग्य और कानूनी तौर पर बाध्यकारी होने चाहिए ताकि बाजार भागीदार उनके जरिये आगे का अनुमान लगा सकें।

इन सिद्धांतों को संहिताबद्ध करने से कानून निर्माताओं की उतनी ही जवाबदेही हो जाएगी, जितनी वे विनियमित संस्थाओं की तय करते हैं। इस तरह टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी माहौल बनेगा। इससे नियमों की न तो अति होगी और न ही कमी, साथ ही जिम्मेदारी भरा नियमन भी पक्का हो जाएगा।

First Published - March 4, 2025 | 9:23 PM IST

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