सेवानिवृत्ति के बाद सार्वजनिक बैंक के अधिकारी अगले एक वर्ष तक किसी संस्थान में कोई नया पद नहीं लेते हैं। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पूर्व चेयरमैन रजनीश कुमार ने अक्टूबर 2020 में सेवानिवृत्त होने के बाद इस अवधि का बखूबी इस्तेमाल किया है। इस दौरान कुमार ने ‘द कस्टोडियन ऑफ ट्रस्ट’ के नाम से एक संस्मरण लिखा है। एसबीआई के 215 वर्षों के इतिहास में संस्मरण लिखने वाले वह संभवत: दूसरे चेयरमैन हैं। कुमार की पुस्तक में भारतीय बैंकिंग उद्योग जगत के समकालीन इतिहास का जिक्र है। इसमें येस बैंक संकट से लेकर जेट एयरवेज प्रकरण और बैंकिंग क्षेत्र में गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) की चर्चा की गई है और कुछ प्रश्न उठाए गए हैं।
बैंकिंग कारोबार के अलावा कुमार ने अपनी पुस्तक में कंपनी जगत का भी जिक्र किया है। यह मोटे तौर पर सभी को मालूम है कि भारतीय कंपनियों पर कर्ज बोझ अधिक है और वे अक्सर स्वयं पूंजी नहीं लगाती हैं और जमाकर्ताओं की रकम का इस्तेमाल परियोजनाओं के विस्तार के लिए करती हैं। मगर कुमार की पुस्तक में इन बातों से भी आगे जाकर भारतीय प्रवर्तकों के मनोविज्ञान का जिक्र किया गया है।
जेट एयरवेज के नरेश गोयल नए निवेशक लाने के लिए व्याकुल जरूर थे मगर वह इस विमानन कंपनी का नियंत्रण नहीं छोडऩा चाहते थे। कुमार ने इस पर अपनी किताब में लिखा है, ‘नरेश के लिए जेट एयरवेज उनकी संतान के समान थी जिसकी उन्होंने शुरू से देखभाल की थी। वह इस कंपनी का नियंत्रण छोडऩे की बात सोच भी नहीं सकते थे। कुमार ने कहा कि इस विमानन कंपनी की समाधान प्रक्रिया जटिल हो जाने और परिस्थितियां नहीं भांप पाने की गोयल की अक्षमता जेट एयरवेज के उद्धार की राह में बाधा बन गई।
कुमार ने यह भी स्पष्ट करने की कोशिश की है कि क्यों एसबीआई को येस बैंक को बचाने के लिए आगे आना पड़ा। उन्होंने पर्दे के पीछे चलने वाली बातों का भी जिक्र किया है। उन्होंने यह भी पूछा है, ‘आखिर कोई बैंक कितना बड़ा होना चाहिए जिससे वह कभी धराशायी न हो और कोई बैंक कितना छोटा रहे कि वह धराशायी भी हो जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़े?’ इस प्रश्न का जवाब सीधे तौर पर नहीं दिया जा सकता, खासकर तब जब वित्त-तकनीक (फिनटेक) क्षेत्र की कंपनियां परंपरागत बैंकों को चुनौती दे रही हैं। क्या वित्तीय क्षेत्र में एक निकास नीति तैयार करने का यह समय नहीं आ गया है? येस बैंक को भले ही समय रहते संकट से उबार लिया गया हो मगर यह भविष्य में नौ अन्य बैंकों को बचाने में सक्षम नहीं होगा क्योंकि कारोबार की रूपरेखा तेजी से बदल रही है।
एनपीए के विषय पर कुमार के रुख का अंदाजा पहले से ही था मगर वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के परिचालन पर कुछ मौलिक प्रश्न पूछने से पीछे नहीं हटे हैं। लंदन में तीन वर्ष बिताने के बाद जब कुमार अप्रैल 2012 में भारत लौटे तो उन्हें पूर्वोत्तर में शाखाओं के कामकाज पर नजर रखने के लिए गुवाहाटी में बैंक के स्थानीय कार्यालय जाने के लिए कहा गया। क्यों? उस समय उन्हें अपने से ऊपर बैठे लोगों का वरदहस्त हासिल नहीं था।
बैंक के प्रबंध निदेशक के रूप में कुमार की नियुक्ति में भी कई बाधाएं आईं। पहले चरण का साक्षात्कार वित्त मंत्रालय में वित्तीय निगरानी विभाग (डीएफएस) के सचिव के साथ हुआ मगर कुमार की नियुक्ति पर अंतिम निर्णय लिए जाने से पहले डीएफएस में अधिकारी बदल गए। इससे उन्हें एक बार फिर साक्षात्कार से गुजरना पड़ा और पद खाली होने के बाद नौ महीने तक इंतजार करना पड़ा। कुमार ने अपनी पुस्तक में कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में उत्तराधिकारी चुनने की प्रक्रिया तय नहीं है और कई महत्त्वपूर्ण पद महीनों तक रिक्त रहते हैं। कुमार का कहना है कि पूर्णकालिक निदेशकों, चेयरमैन और सरकार द्वारा नामित सदस्यों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया पर तत्काल पुनर्विचार करने की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में प्रबंधन के स्तर पर प्रमुख लोगों के वेतन-भत्ते की संरचना पर भी विचार किया जाना चाहिए। कुमार कहते हैं, ‘ऐसा नहीं किया गया तो इन बैंकों के लिए कड़ी प्रतिस्पद्र्धा के बीच टिके रहना मुश्किल हो सकता है।’
एसबीआई के कम से कम पिछले दो प्रमुखों के भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के साथ मतभेद रहे हैं। ओ पी भट्ट 2008 के बाद आवास ऋण की मांग बढ़ाने के लिए टीजर लोन की पहल पर सहमत नहीं थे तो प्रतीप चौधरी नकद आरक्षी अनुपात पर आरबीआई से अलग राय रखते थे। इनकी तुलना में कुमार का संबंध बैंकिंग नियामक के साथ सरल रहा था। मगर अपने संस्मरण में उन्होंने आरबीआई से संबंधित कुछ प्रश्न जरूर उठाए हैं। कुमार ने सवाल उठाए हैं कि क्या आरबीआई येस बैंक संकट के समाधान के लिए और तेजी से कदम नहीं उठा सकता था? राणा कपूर को येस बैंक का दोबारा प्रबंध निदेशक क्यों बनाया गया? कुमार ने बैंक लाइसेंस पॉलिसी के आवंटन के आधार पर भी सवाल उठाया है और पूछा है कि क्या बैंकिंग प्रणाली पर नजर रखने के लिए आरबीआई के पास पर्याप्त ढांचा उपलब्ध है?
इसके उलट सरकार पर कुमार ने कोई टिप्पणी नहीं की है। बैंकों के ‘दोहरे नियंत्रण’ और नोटबंदी के दौरान जवाबदेही टालने जैसे विषयों को छोड़कर कुमार ने सरकार पर टिप्पणी नहीं की है। कुमार से ठीक पहले एसबीआई की कमान संभालने वाली अरुंधती भट्टाचार्य की पुस्तक भी दिसंबर में आने वाली है। अब देखना यह है कि क्या वह कुमार से भी अधिक साहसिक मसले उठाएंगी?
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)
