भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने सूचीबद्ध कंपनियों के लिए नए नियमन घोषित किए ताकि प्रवर्तकों का प्रभाव कम किया जा सके और स्वतंत्र निदेशकों को सशक्त किया जा सके। कई प्रवर्तकों द्वारा संचालित कंपनियों के लिए ऐसे नियम जरूरी हैं। परंतु उन मामलों का क्या जहां सरकार ही प्रवर्तक है? सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को बोर्ड संचालन के लिए सेबी के नियमों से राहत मिलती है। कंपनी अधिनियम के प्रावधान लागू करने तथा सेबी की निगरानी के मामले में उन्हें विशेष व्यवहार क्यों मिलता है? यकीनन उन पर भी वही कारोबारी नियमन लागू होने चाहिए। पीएसयू प्रबंधन में व्याप्त दिक्कतों को लेकर होने वाले शोध का दस्तावेजीकरण भी किया गया है। नए और परिवर्तित कारोबारी संस्थान चाहे वे सरकारी हों या प्रवर्तकों अथवा पेशेवरों द्वारा संचालित, सभी देश की अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और संस्कृति को लेकर राष्ट्रीय निवेश के लिए जरूरी संसाधन इनके माध्यम से ही जुटाए जाते हैं। बीते 74 वर्षों में आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में देश की अपर्याप्त प्रगति के पीछे की प्रमुख वजहों की बात करें तो नीतिगत विफलता भी एक प्रमुख वजह है जिसकी वजह से स्थायित्व वाले और ईमानदार कारोबारी संस्थान नहीं विकसित हो सके। निजी क्षेत्र की गड़बडिय़ों के बारे में लिखा जाता है। सरकारी उपक्रम भी मूल्यवान और जानकारीपरक बातें उपलब्ध कराते हैं। अब वक्त आ गया है कि सरकारी उपक्रमों के अस्वीकार्य प्रदर्शन के खिलाफ आवाज बुलंद की जाए। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि सरकारी उपक्रमों को समाप्त कर दिया जाए, बल्कि उन्हें और सक्षम तरीके से चलाने की आवश्यकता है।
विगत 74 वर्षों में देश की प्रगति में सरकारी उपक्रमों की उल्लेेखनीय भूमिका रही है। कुछ उपक्रमों ने इतना शानदार प्रदर्शन किया है कि प्रतिफल की चाह रखने वाले, पूंजी की दृष्टि से कमजोर निजी उपक्रम शायद नहीं कर पाते। बहरहाल, कर चुकाने वाले नागरिक यह अपेक्षा करते हैं कि किसी न किसी स्तर पर सरकारी उपक्रम पूंजी पर प्रतिफल उत्पन्न करेंगे जो शायद बहुत आकर्षक नहीं हो लेकिन यह पूंजी की लागत से अधिक हो। सरकारी उपक्रम खराब प्रतिफल या अक्षमता का लाइसेंस नहीं हैं।
यह खेद की बात है कि सरकारी और अफसरशाही ढांचा इन सरकारी उपक्रमों का दुरुपयोग अपने लाभ के लिए करते हैं। अफसरशाह से कारोबारी बने आर सी भार्गव अपनी पुस्तक ‘द मारुति स्टोरी’ में लिखते हैं, ‘सरकारी उपक्रमों के प्रबंधक ऐसी कंपनियां तैयार नहीं कर सके जहां निरंतर उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार हो सके…क्योंकि इनका प्रबंधन नहीं बल्कि सरकार इनके वित्तीय, तकनीकी और वाणिज्यिक निर्णय लेती है…जबकि निजी क्षेत्र के उलट यहां प्रवर्तक, मंत्री और अधिकारी अपनी निजी पूंजी निवेश नहीं करते…ऐसे में राजनीतिक दलों के पास इस बात का पर्याप्त अवसर होता है कि वे इन पीएसयू को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकें…बोर्ड भी प्रबंधन की गुणवत्ता में कोई खास फर्क नहीं पैदा कर पाते और इसलिए कॉर्पोरेट प्रशासन का एक अहम उपकरण भोथरा हो जाता है।’ पूर्व नागर विमानन सचिव एम के काव ने अपनी जीवनी में विमानन उद्योग के बारे में लिखा, ‘…बेनामी स्वामित्व…विमानों की अवांछित खरीद और अफसरशाहों और राजनेताओं के कुप्रबंधन की एक दिलचस्प कहानी…।’
इन लेखकों ने जिन बातों पर जोर दिया है, देश की जनता लंबे समय से इन बातों से अवगत रही है। इसके पीछे का कड़वा सच इस बात में निहित है कि विगत 74 वर्षों में हर तरह की सरकारों ने इन सरकारी उपक्रमों की निगरानी और नियंत्रण में खासी गैरजवाबदेही का परिचय दिया। एयर इंडिया के दुखद उदाहरण पर गौर कीजिए जिसे इस किस्से में हम लाक्षणिक रूप से एक महिला के रूप में प्रस्तुत करेंगे।
मैं टाटा एयरलाइंस को सन 1932 में जन्मी एक प्यारी बच्ची के रूप में देखता हूं। इस बच्चे के जन्म के पहले के कुछ चरणों में कठिनाइयां भी हुईं। इस बच्ची को बहुत प्यार और स्नेह से पाला गया और यह एक खूबसूरत युवती के रूप में बड़ी हुई। सन 1953 में 21 वर्ष की उम्र में उस युवती को उसके परिवार से जबरन छीन लिया गया और उसे एक सरकारी दूल्हे की ब्याहता बना दिया गया। अब उसे उसके शादी के बाद के नाम से पुकारा जाने लगा- मिस एयर इंडिया। शुरुआत में उसके जैविक पिता अपनी युवा पुत्री से संबंध बरकरार रख सके लेकिन बाद में मिस एयर इंडिया के जीवन पर सरकारी दूल्हे का नियंत्रण हो गया। सन 1978 में जब वह 46 वर्ष की थी तो उसके जैविक परिवार के साथ उसका रिश्ता बहुत क्रूरतापूर्वक समाप्त कर दिया गया। जब यह रिश्ता क्रूरतापूर्वक तोड़ दिया गया तो उसके पिता जमशेदपुर में थे जिन्होंने कहा था, ‘मैं वैसा ही महसूस कर रहा हूं जैसा कि आप तब महसूस करते जब आपका सबसे प्यारा बच्चा आपसे छीन लिया जाता।’ उस समय जेआरडी टाटा को एयर इंडिया के चेयरमैन के पद से हटा दिया गया था।
अब 2021 में मिस एयर इंडिया की उम्र 89 वर्ष हो चुकी है। अब अगर कोई एयर इंडिया को खरीद लेता है तो उसके पति यानी सरकार को बहुत खुशी होगी। खासतौर पर अगर उसे उसका मूल परिवार खरीदता है तो और भी अच्छा होगा। जैविक पिता शायद ऐसा करें और शायद न भी करें। इस आलेख में हम इस प्रश्न पर विचार नहीं करेंगे।
यहां अहम सवाल यह है कि मिस एयर इंडिया की जिंदगी खराब करने में सरकारी परिवार में से कौन उत्तरदायी है? एयर इंडिया के पूर्व निदेशक जितेंद्र भार्गव अपनी पुस्तक ‘द डिसेंट ऑफ एयर इंडिया’ में लिखते हैं, ‘क्या हम सरकार सरकार पर आरोप लगाते हैं…या बोर्ड को…या एक के बाद एक बने चेयरमैनों को…या उन नेताओं को जिन्होंने अवांछित मांगें कीं?’
यकीनन सरकारी कंपनियों में भी कुछ अच्छे अपवाद हैं, जिन्हें मजबूत और सक्षम नेताओं का नेतृत्व मिला। मसलन बीएचईएल में वी कृष्णमूर्ति और एनटीपीसी में डी वी कपूर। डी वी कपूर ने बताया कि कैसे एनटीपीसी ने जन शक्ति तैयार की। नई कंपनी का परिचालन शुरू करने के क्रम में भर्ती, प्रशिक्षण और प्रतिभाओं को सबसे अधिक प्राथमिकता दी गई। उनकी पुस्तक ‘द ब्लूम इन द डेजर्ट’ में एक संस्थान विकसित करने वाले की दास्तान पढ़ी जा सकती है।
ऐसे में निश्चित रूप से यह संभव है कि किफायती और सक्षम सरकारी उपक्रम तैयार किए जाएं और उनका संचालन किया जाए। ऐसा दुर्लभ मौकों पर ही क्यों होता है? ऊर्जा क्षेत्र की सरकारी कंपनियों पर विदेशी निवेशकों की नजर रहती है: मसलन एनटीपीसी, पावर ग्रिड, ओएनजीसी और बीपीसीए आदि। ये कंपनियां शायद इसलिए सफल है क्योंकि इनका नेतृत्व अच्छा रहा, तंत्र मजबूत रहा अथवा शायद इन्हें एकाधिकार का लाभ मिला।
बीते कम से कम तीन दशक से भारत को बेहतर प्रबंधन वाले पीएसयू की प्रतीक्षा रही है। इसे हासिल करने के लिए सरकार को निजी क्षेत्र के गैरजवाबदेह प्रवर्तकों की तरह व्यवहार बंद करना चाहिए। सरकार उन पर खुद नए नियम थोप रही है। भारत को सरकारमुक्त और बोर्ड युक्त सरकारी उपक्रम चाहिए।
(लेखक टाटा संस के निदेशक एवं हिंदुस्तान यूनिलीवर के वाइस-चेयरमैन रह चुके हैं)
