पिछले हफ्ते कांग्रेस और 25 अन्य विपक्षी दलों ने इंडियन नैशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) का अनावरण किया था ताकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का मुकाबला किया जा सके जिससे अब 39 दल जुड़ चुके हैं। इस तरह लगभग 65 राजनीतिक दल एक या दूसरे गठबंधन में हैं। लेकिन कुछ राजनीतिक दल किसी भी गठबंधन से नहीं जुड़े हैं। इसका भी एक कारण है।
कर्नाटक में अपना जनाधार बनाने वाली पार्टी जनता दल (सेक्युलर) या जद (एस) ने हाल ही में कहा कि वह भाजपा को अपना पूरा सहयोग देने के लिए तैयार है जो राज्य में कांग्रेस की सरकार के विपक्ष में है। हालांकि, जद (एस) की इस ‘पेशकश’ पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। केवल राज्य आधारित भाजपा ने संकेत दिया है कि यह प्रस्ताव कारगर हो सकता है।
कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने हुबली में संवाददाताओं से कहा कि जद (एस) नेता एच डी कुमारस्वामी ने ‘कुछ भावनाएं’ सार्वजनिक की थीं। उन्होंने कहा, ‘यह हमारे नेतृत्व और जद (एस) अध्यक्ष एच देवेगौड़ा के बीच होने वाली चर्चा का विषय है।’ राज्य की 224 सदस्यीय विधानसभा के लिए मई में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 135 सीट जीती थीं जबकि भाजपा ने 66 सीट जीती थीं और जद (एस) ने 19 सीट जीती थीं।
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली जद (एस) ने नौ सीट पर चुनाव लड़ा और जिन सीटों पर चुनाव लड़ा, वहां उसे लगभग 38 प्रतिशत वोट मिले, हालांकि उसे केवल एक सीट पर जीत मिली। राज्य में 28 लोकसभा सीट हैं। भाजपा को 25 सीट मिलीं और उसे 51 फीसदी वोट मिले।
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पार्टी, कर्नाटक में अपने लोकसभा वोट की हिस्सेदारी में लगातार सुधार कर रही है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वह इसे किसी और के साथ साझा करने को लेकर अनिच्छुक है और उनका यह मानना है कि इस तरह की व्यवस्था की स्थिति में उन्हें लाभ मिलने की तुलना में खोने के लिए काफी कुछ होगा।
जो राजनीतिक दल न तो राजग का और न ही इंडिया का हिस्सा है उनमें युवजन श्रमिक रैयतु कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी), बीजू जनता दल (बीजद), भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा), शिरोमणि अकाली दल (शिअद), ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ), जद (एस), राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और शिअद-मान शामिल हैं।
इनमें से वाईएसआरसीपी (बड़े पैमाने पर आंध्र प्रदेश में स्थित), तेलंगाना की बीआरएस और बीजद के पिछले प्रदर्शन को देखें तो ये राजनीतिक दल दोनों ही गठबंधन के लिए खतरा हैं। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा से कुल मिलाकर 63 सांसद लोकसभा में जाते हैं। क्या ये राजनीतिक दल मध्यमार्गी ही बने रहने के लिए हैं जब तक कि ये विलुप्त न हो जाएं?
जागरण लेकसिटी यूनिवर्सिटी के कुलपति और सम्मानित अध्येता संदीप शास्त्री ने कहा, ‘यह प्रतिस्पर्धी राजनीति से जुड़ा है, चाहे वह बीआरएस हो या बीजद दोनों की इन दो गठबंधनों के साथ प्रतिस्पर्धा है। वाईएसआर कांग्रेस के मामले में, पार्टी की दूरी भाजपा के मूल एजेंडा से है जिसकी वजह से यह राजग से बाहर है।’
आंध्र प्रदेश को छोड़कर सभी राज्यों में भाजपा की पकड़ मजबूत हो रही है। लेकिन इसमें एक विरोधाभास भी है। भाजपा ने लोकसभा चुनावों की वोट हिस्सेदारी में एक नाटकीय सुधार देखा है लेकिन इसके विधानसभा चुनावों में केवल क्रमिक स्तर का सुधार देखा गया है। इसमें केवल यही एकमात्र विरोधाभास नहीं है। एआईएमआईएम और एआईयूडीएफ जैसे राजनीतिक दल जो बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक समुदायों के आधार का दम भरते हैं वे राजग के विरोध में तो हैं लेकिन इंडिया को समर्थन देने के बारे में काफी अस्पष्टता है।
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एआईयूडीएफ का नेतृत्व इत्र के राजा माने जाने वाले बदरुद्दीन अजमल की अध्यक्षता में किया जा रहा है और यह पार्टी असम तक ही सीमित है। वर्ष 2019 में इस पार्टी को असम में लगभग आठ प्रतिशत वोट मिले और पार्टी ने केवल तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था हालांकि एक सीट पर इसने जीत हासिल कर ली। लेकिन एक अहम बात यह है कि राज्य की कांग्रेस इकाई के साथ इसके रिश्ते कड़वाहट से भरे हैं।
एआईएमआईएम अपने जनाधार का विस्तार करने की कोशिश कर रही है। वर्ष 2019 में तेलंगाना में इसने केवल एक सीट जीती और इसे 2.8 प्रतिशत वोट मिले। उस वक्त से ही इसने तेलंगाना के बाहर अपनी किस्मत आजमाई है। लेकिन इंडिया के सहयोगी दल, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी इसे बेहद नकारात्मक तरीके से देखती है। चुनाव के आंकड़ों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में इसकी वृद्धि की कीमत सबसे ज्यादा सपा को चुकानी पड़ रही है।
शिअद की मजबूरियां भी उतनी ही जटिल हैं। भाजपा के सबसे पुराने गठबंधन सहयोगियों में से एक माने जाने वाली इस पार्टी की पंजाब में वृद्धि की महत्त्वाकांक्षा के चलते ही इसे खींचतान की जड़ समझ लिया जाता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या इन मध्यमार्गी दलों को हमेशा के लिए किसी भी गठबंधन से अलग रहने की नियति की चुननी होगी जब तक कि वे उनका अस्तित्व खत्म नहीं हो जाता?
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो और भारत में घरेलू राजनीति के जाने-माने शोधकर्ता राहुल वर्मा ने कहा, ‘मोटे तौर पर इन गुटनिरपेक्ष दलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। सबसे पहले, बीजद, बीआरएस और वाईएसआरसीपी जैसे राजनीतिक दल हैं जिन्हें अगले चुनाव में अपने राज्यों में सत्ता बरकरार रखने का भरोसा है। उनके पास राजग या इंडिया का हिस्सा बनने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। लेकिन वे चुनाव के बाद जीतने वाले गठबंधन की ओर अपना दांव लगा सकते हैं।
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इसके अलावा दूसरे तरह के राजनीतिक दल जैसे कि शिअद और तेदेपा हैं जो अब भी राज्य में महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी हैं, लेकिन इस स्तर पर एक सहयोगी दल के बिना चुनाव नहीं जीत सकते। ये दल भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए झुकाव दिखा रहे हैं, लेकिन भाजपा इसके लिए प्रतिबद्धता नहीं जता रही है क्योंकि यह लोकसभा में चुनाव लड़ने के लिए सीटों का अधिक हिस्सा चाह सकते हैं।
मूल बात यह है कि अतीत के समीकरण अब बदल रहे हैं। इसी श्रेणी में आप एआईयूडीएफ और एआईएमआईएम जैसे राजनीतिक दलों को रख सकते हैं जो स्पष्ट कारणों से राजग के साथ नहीं जा सकते हैं और इंडिया उन्हें निमंत्रण इसलिए नहीं दे रहा है क्योंकि उसे डर है कि उसके पक्ष में मौजूद ऐसे राजनीतिक दल दरअसल भाजपा को हिंदू-मुस्लिम धुरी का ध्रुवीकरण करने में मदद कर सकती हैं। तीसरे प्रकार के राजनीतिक दलों में बसपा और जद (एस) हैं। ये दल अपने अंतिम पतन की ओर बढ़ रही हैं। वे किसी भी तरफ जा सकते हैं, और ऐसा लगता है कि दोनों गठबंधन उन्हें और निचोड़ना चाहते हैं।’