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देश में नीति-निर्माण को बनाया जाए आसान

नीति बनाने की प्रक्रिया में कई जटिलताएं होती हैं जिनकी वजह से कई बार निर्णय लेने की प्रक्रिया में देरी हो सकती है और जिससे समग्र विकास के लक्ष्यों पर असर पड़ता है।

Published by
Ajay Kumar   
Last Updated- November 14, 2024 | 10:20 PM IST

दो दशक से अधिक समय तक विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों की विभिन्न राजनीतिक समितियों ने 200 वर्ष पुराने आयुध कारखाना बोर्ड (ओएफबी) को निजी कंपनी में बदलने की सिफारिश की थी ताकि इसके परिचालन को आधुनिक बनाया जा सके। ब्रिटेन ने वर्ष 1985 में ओएफबी की पूर्ववर्ती, रॉयल ऑर्डनेंस फैक्टरी को एक कंपनी में बदल दिया था। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ओएफबी को कंपनी में बदलने का फैसला 2020 में ही किया गया। एक अन्य उदाहरण भारत के डेटा सुरक्षा कानून की लंबी प्रक्रिया है जिस पर वर्ष 2015 से ही चर्चा हो रही है लेकिन नौ वर्ष बाद भी इसे लागू नहीं किया जा सका है।

नीति बनाने की प्रक्रिया में कई जटिलताएं होती हैं जिनकी वजह से कई बार निर्णय लेने की प्रक्रिया में देरी हो सकती है और जिससे समग्र विकास के लक्ष्यों पर असर पड़ता है। इन चुनौतियों का समाधान कर हम सार्वजनिक नीतियों की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं और सार्थक बदलाव लाने के साथ ही हम दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।

हालांकि परिवर्तन का विरोध प्रभावी नीति निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। व्यक्ति, संगठन और समुदाय रोजगार के मौके गंवाने के डर से, वित्तीय जोखिम या फिर प्रभाव के नुकसान के कारण परिवर्तन का विरोध करते हैं। उदाहरण के लिए श्रमिक संगठनों ने नौकरी की सुरक्षा की चिंताओं के कारण कंप्यूटरीकरण का विरोध किया। जो चलन जितना ही पुराना होता है उससे लोगों के अधिक हित जुड़े होते हैं। ऐसे में सुधार करना कठिन हो जाता है।

सरकारी नीतियों में बदलाव कानूनों, नियमों, कार्यकारी निर्देशों और परिपत्रों जैसे व्यापक दस्तावेजों की स्थापित परंपरा से और जटिल हो जाते हैं। इस तरह की जटिल दस्तावेजी प्रक्रिया यथास्थिति को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है और इसका एक नकारात्मक प्रभाव होता है और एक-दूसरे से जुड़ा हुआ जटिल नेटवर्क बनता है।

प्रत्येक दस्तावेज में अक्सर दूसरे दस्तावेज का संदर्भ होता है जिससे अतिरिक्त दस्तावेज जुटाने की स्थिति बनती है। यह परस्पर संबंध एक जटिल प्रणाली बनाता है जहां किसी भी संशोधन का कई अन्य दस्तावेजों पर प्रभाव हो सकता है और इसकी सीमा भी अक्सर स्पष्ट नहीं होती है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) मॉडल को सरकारी नियमन का विश्लेषण करने और नीतिगत बदलावों से होने वाले सभी संभावित अंतर्संबंधों की पहचान करने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।

मंत्रालयों के बीच नीतियों को लेकर सहमति बनाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि हर मंत्रालय विशिष्ट होता है और कभी-कभी इनकी परस्पर विरोधी प्राथमिकताएं होती हैं। उदाहरण के तौर पर एक मंत्रालय औद्योगिक विकास पर जोर दे सकता है जबकि दूसरा पर्यावरण संरक्षण पर जोर दे सकता है। संविधान के अनुच्छेद 75 (3) में मंत्रालयों के सामूहिक मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व का प्रावधान है और विभिन्न मंत्रालयों के बीच असहमति का हल निकालने के लिए कोई मानकीकृत प्रक्रिया मौजूद नहीं है।

हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीधे हस्तक्षेप कर कई अंतर-मंत्रालय विवादों का समाधान किया है। निर्णय लेने की दक्षता बढ़ाने के लिए मुद्दों को पहले से ही हल करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की त्वरित भागीदारी के लिए एक औपचारिक तंत्र जरूरी माना जाता है।

अक्सर अफसरशाहों और नेताओं के अलग-अलग नजरिये के कारण एक प्रभावी नीतिगत ढांचा तैयार करना जटिल हो जाता है। अफसरशाह नतीजों से अलग रहकर जोखिम से बचते हैं और यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में होते हैं। वहीं मतदाताओं के प्रति जवाबदेह नेता, चुनावी लक्ष्यों के हिसाब से ऐसे नतीजे हासिल करने को प्राथमिकता देते हैं जो स्पष्ट रूप से दिखे लेकिन फिर भी उन्हें अक्सर अफसरशाही तंत्र में फंसी प्रक्रिया से गुजरना होता है। वहीं अफसरशाही व्यवस्था के भीतर नतीजों पर केंद्रित मूल्यांकन की ओर सांस्कृतिक बदलाव नीतिगत-दक्षता में काफी सुधार कर सकता है और यह परिणाम संचालित शासन को बढ़ावा दे सकता है।

सार्वजनिक नीति से जुड़ा निर्णय लेने में एक बड़ा अंतर, डेटा का कम उपयोग है और यह आदत साक्ष्यों की तुलना में सहज ज्ञान और अनुभव की ऐतिहासिक निर्भरता से उपजी है। प्रशासन से जुड़े अधिकारियों में विश्लेषणात्मक तरीकों के सीमित प्रशिक्षण और योग्यता के बजाय सत्ताधारी को प्राथमिकता देने वाली एक पदानुक्रम वाली कार्य संस्कृति से यह मामला और खराब हो जाता है। डिजिटल इंडिया के चलते डेटा की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है, जिसे अब साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

डिजिटलीकरण से नए, अधिक कुशल और उत्पादक तरीके से काम करने के अप्रत्याशित अवसर भी बनते हैं। जैसे बैंकों के डिजिटलीकरण से दक्षता ही नहीं बल्कि पारदर्शिता भी बढ़ी और काले धन पर अंकुश लगा है। डिजिटलीकरण के दूसरे क्रम के लाभों का उपयोग जरूर किया जाना चाहिए। नीति निर्माण में एआई का लाभ उठाना भी आवश्यक है।

एआई उपकरण के जरिये स्वास्थ्य डेटा का विश्लेषण कर बीमारी के प्रकोप की भविष्यवाणी की जा सकती है या फिर ऐतिहासिक रुझानों के आधार पर नीतिगत कदम उठाए जा सकते हैं और इस तरह अधिक जानकारी वाले और कम जोखिम वाले निर्णयों का समर्थन किया जा सकता है। प्रशासनिक अधिकारियों और नीति निर्माताओं को एआई में प्रशिक्षित करने से इसकी पूरी क्षमता की आजमाइश हो सकती है।

नीति निर्माण में अंतरिक्ष, ड्रोन, अत्याधुनिक सामग्री और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी उभरती तकनीकों को सक्रिय रूप से अपनाने को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि इनमें बदलाव लाने की क्षमता है। हमारा ध्यान अक्सर इन तकनीकों में अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) का समर्थन करने तक सीमित रहता है लेकिन हम इन्हें अपनाने में पिछड़ जाते हैं। जो देश सक्रियता से उभरती तकनीक को अपनाते हैं, वे तेजी से विकास करते हैं। इसीलिए, नीति निर्माण को वैश्विक नेतृत्व के लिए उभरती तकनीक अपनानी चाहिए।

नीति निर्माण भी दोहराव और एक ही समय में कई गतिविधियों (ओवरलैप) से प्रभावित होता है। प्रत्येक मंत्रालय अपने बजट और परियोजनाओं को नियंत्रित करने पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित करता है और इस वजह से अक्सर संभावित तालमेल की अनदेखी हो जाती है। उदाहरण के तौर पर ग्रामीण रोजगार योजना के तहत परिसंपत्तियों का निर्माण सड़क एवं आवास मंत्रालयों के साथ समन्वय के बिना किया गया जिसके चलते सार्थक बदलाव नहीं आ पाया। वर्ष 2021 में शुरू किया गया पीएम गति शक्ति मंच बुनियादी ढांचे में इन दोहरावों को दूर करता है।

भारत में नीति निर्माण में अविश्वास सबसे बड़ी बाधा के तौर पर उभरा है और यह प्रशासन की औपनिवेशिक विरासत में गहराई से फंसा हुआ है। विश्वास आधारित प्रशासनिक संस्कृति बनाने के बजाय आजादी के बाद की कार्यप्रणाली ने पूरी व्यवस्था में अविश्वास बढ़ाया है। विश्वास की इस कमी का प्रभाव न केवल सरकार और जनता के बीच बल्कि अधिकारियों के बीच होने वाले संवाद पर भी पड़ता है।

अफसरशाह व्यापक स्तर पर जांच और संतुलन बनाने की कोशिश में हर किसी को संभावित धोखेबाज के रूप में देखते हैं। विश्वास-आधारित शासन की ओर जाना आवश्यक है क्योंकि अविश्वास से भरे तंत्र की लागत और इसकी अक्षमताएं कुछ लोगों की बेईमानी के कारण होने वाले संभावित नुकसान से कहीं अधिक हैं।

उदाहरण के तौर पर मौजूदा अविश्वास-आधारित प्रणाली के चलते ऐसी नीतियां बनी हैं जो अक्सर निजी क्षेत्र की ताकत का लाभ उठाने की कीमत पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पक्ष में हैं। छोटे उद्यमों को प्रोत्साहित करने की इच्छाशक्ति है लेकिन बड़े उद्यमों को नहीं। नीति निर्माण में प्रदर्शन और योग्यता को प्राथमिकता देनी चाहिए, न कि आकार को। उदाहरण के तौर पर उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना का उद्देश्य वृद्धि को बढ़ावा देना है और यह एक स्वागत योग्य बदलाव है।

निष्कर्ष यह है कि भारत में प्रभावी नीति-निर्माण चुनौतियों के एक जटिल जाल में उलझा हुआ है। मोदी ने सराहनीय कदम उठाए हैं। कर्मयोगी मिशन कुशल सार्वजनिक सेवा वितरण के लिए एक नए ढांचे पर ध्यान केंद्रित करता है। उसे अधिक गहन सांस्कृतिक परिवर्तन पर भी विचार करना चाहिए। यदि हम इन चुनौतियों को दूर कर सकते हैं तब विकसित भारत की यात्रा आसान हो जाएगी।

(लेखक आईआईटी कानपुर में विशिष्ट विजिटिंग प्रोफेसर और पूर्व रक्षा सचिव हैं)

First Published : November 14, 2024 | 10:14 PM IST