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विनिवेश लक्ष्य पर भारी पड़ता नीतिगत बदलाव

देश के कुल आयात में अकेले तेल की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है ऐसे में लगता नहीं कि कोई खरीदार ऐसी कंपनी में पैसा लगाएगा जो उसके कारोबार के अहम हिस्से में कटौती करे।

Last Updated- June 23, 2024 | 10:55 PM IST
विनिवेश में नई जान, Reviving disinvestment

पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय दोबारा संभालने के बाद अपने शुरुआती सार्वजनिक वक्तव्यों में से एक में मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने खासतौर पर कहा कि तेल विपणन क्षेत्र की बड़ी कंपनी भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड अथवा बीपीसीएल को बेचने की योजना पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।

उन्होंने कहा कि बीपीसीएल एक अत्यंत सफल महारत्न कंपनी है। महारत्न की श्रेणी में वे सरकारी कंपनियां आती हैं जिनको बहुत अधिक स्वायत्तता हासिल है। पुरी ने कहा कि इस वजह से कंपनी में 52.98 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की कोई योजना नहीं है।

यह सरकार के रुख में उल्लेखनीय बदलाव है। बीपीसीएल में विनिवेश की योजना 2021 में घोषित की गई थी। यह सरकार के आत्मनिर्भर पैकेज का हिस्सा थी। 2022 में खरीदारों की कमी के चलते इसे वापस ले लिया गया।

अब कंपनी बेचने के लिहाज से अत्यधिक मूल्यवान हो गई है। इसके साथ ही मंत्री ने यह भी कहा कि सरकार तेल कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी कम करने के पक्ष में नहीं।

सत्ता में आने वाली हर नई सरकार से कारोबारी समाचार पत्र यही गुहार करते हैं कि वह सरकार के बढ़ते संसाधन अंतर को पाटने के लिए विनिवेश पर ध्यान दे। यह साल भी अलग नहीं था। परंतु नीतिगत लक्ष्य को बदलने की प्रक्रिया ने विनिवेश को दो दशकों से प्रभावित किया है।

इससे पता चलता है कि आखिर क्यों 1991-92 से अब तक सरकार केवल पांच बार विनिवेश के लक्ष्य को पार कर सकी है जबकि इसके लिए वित्त मंत्रालय के अंतर्गत खासतौर पर एक विभाग तक गठित किया गया था।

बीते दशक में सरकार केवल दो बार 2017-18 और 2018-19 में लक्ष्य को पार कर सकी। यह भी पावर फाइनैंस कॉर्पोरेशन और ओएनजीसी जैसी सरकारी कंपनियों की मदद से आरईसी और एचपीसीएल को खरीदने की बदौलत हुआ।

तीन वर्ष पहले विनिवेश को लेकर उम्मीदों में जबरदस्त उछाल थी। 2021-22 के बजट में वित्त और कंपनी मामलों की मंत्री निर्मला सीतारमण ने रणनीतिक विनिवेश को लेकर एक विस्तृत नीति पेश की थी। इसमें रणनीतिक और गैर रणनीतिक क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था। इसके तहत सरकार को चार क्षेत्रों में न्यूनतम दखल रखना था। इसमें परमाणु ऊर्जा, कोयला, पेट्रोलियम, परिवहन, बैंकिंग और बीमा क्षेत्र शामिल थे।

वास्तव में बीपीसीएल समेत कई कंपनियों को उस वक्त गैर रणनीतिक घोषित किया गया था। इनमें एयर इंडिया, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन, आईडीबीआई बैंक, बीईएमएल, पवन हंस और नीलाचल इस्पात निगम तथा भारतीय जीवन बीमा निगम शामिल थीं।

इनमें से केवल तीन लक्ष्य हासिल हुए। टाटा समूह ने जनवरी और जुलाई 2022 में क्रमश: एयर इंडिया और नीलाचल इस्पात का अधिग्रहण किया और एलआईसी को मई में सूचीबद्ध किया गया। पवन हंस की बिक्री इसलिए टल गई कि पता चला कि उसके लिए सफल बोली लगाने वाली कंपनी कानूनी मामलों में फंसी है।

आईडीबीआई बैंक के मामले में नियामकीय मंजूरी, सुरक्षा मंजूरी और मूल्यांकन में अंतर आखिरकार दूर हो गया है। अब सरकार को जरूरत है कि वह विदेशी और भारतीय खरीदारों के बीच चयन करे।

शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के विनिवेश में इसलिए देरी हुई कि इसकी जमीन और अन्य संपत्तियों को लेकर जटिलताएं थीं। अब जबकि महाराष्ट्र सरकार ने स्टांप शुल्क माफी की बात कही है तो इसका विनिवेश नई सरकार के पहले 100 दिन के एजेंडे में है जो सरकार ने चुनाव के पहले पेश किया था।

परंतु अगर बीपीसीएल जैसी मुनाफे वाली कंपनी जिसका इंडियन ऑयल और एचपीसीएल के साथ तेल कारोबार में दबदबा हो वह खरीदार नहीं तलाश पा रही है तो यह समझना मुश्किल है कि शिपिंग कॉर्पोरेशन को खरीदार कहां से मिले।

देश के निर्यात-आयात बाजार में उसकी हिस्सेदारी में भी निरंतर कमी आ रही है। एक ओर जहां इसका विनिवेश किया जा रहा है वहीं सरकार सरकारी तेल, गैस, इस्पात कंपनियों के साथ मिलकर एक नई शिपिंग कंपनी शुरू करने की योजना बना रही है ताकि उनके इस्तेमाल के लिए कच्चा माल आयात किया जा सके।

देश के कुल आयात में अकेले तेल की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है ऐसे में लगता नहीं कि कोई खरीदार ऐसी कंपनी में पैसा लगाएगा जो उसके कारोबार के अहम हिस्से में कटौती करे।

कई कंपनियों का यूं पिछड़ना दिखाता है कि मंत्रालय के साथ तालमेल में कमी है। उदाहरण के लिए बीपीसीएल के लाभ-हानि पर नजर डालें तो वह एक सफल कंपनी नजर आती है लेकिन संभावित खरीदार पेट्रोल और डीजल की कीमतों को लेकर अनिश्चितता है और बीते ढाई दशक में इन्हें मुक्त करने के तमाम प्रयासों के बावजूद इन सरकार का नियंत्रण है।

कंटेनर कॉर्पोरेशन की 30.8 फीसदी हिस्सेदारी बेचने को सरकार ने 2019 में मंजूरी दी थी लेकिन रेलवे की कुछ चिंताओं के बाद यह प्रक्रिया धीमी हो गई।

एक ओर जहां अच्छा प्रदर्शन कर रही कंपनियों को बेचना दिक्कतदेह है तो वहीं बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी भारी भरकम कंपनियां भी बहुत निराश करती हैं जो नाकाम हैं और जिनके 63,000 से अधिक कर्मचारी हैं। सरकार दोनों कंपनियों से कहती आई है कि वे अपनी भूसंपत्तियों का मुद्रीकरण करें लेकिन इस दिशा में बहुत धीमी गति से प्रगति हो रही है।

वहीं टाटा समूह (Tata Group) जिस तरह एयर इंडिया को बेहतर विमान सेवा बनाने में संघर्ष कर रहा है, यह बात भी संभावित खरीदारों को सरकारी क्षेत्र की मानसिकता से भरे कर्मचारियों वाली कंपनियों को खरीदने के लिए हतोत्साहित करेगी। हकीकत में तमाम खाके तैयार करने के बावजूद सरकार का भी यही नजरिया रहा है।

First Published - June 23, 2024 | 10:55 PM IST

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