संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू किए अभी एक साल ही हुआ था कि चीनी उद्योग से जुड़े एक बड़े उद्योगपति बजट पेश होने के बाद टेलीविजन पर एक कार्यक्रम में अनोखी शिकायत करते नजर आए। उन्होंने कहा कि नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (इसका शुरुआती नाम यही था मगर 2009 में इसके आगे ‘महात्मा गांधी’ जुड़ गया और नाम मनरेगा हो गया) की वजह से उन्हें उस साल गन्ने की कटाई के लिए मजदूर ही नहीं मिल रहे हैं। पंजाब से खबरें आईं कि वहां के किसानों को भी खरीफ की कटाई के दौरान ऐसे ही संकट का सामना करना पड़ा।
जल्द ही तमाम कंपनियां मानने लगीं कि मनरेगा के कारण कामगारों की बड़ी किल्लत हो गई है। हालांकि कुछ समय में साफ होने लगा कि यह संकट कमरतोड़ मेनहत के बाद कभीकभार मामूली मजदूरी देने वाले मनरेगा के कारण नहीं है। इसका असल कारण अभूतपूर्व आर्थिक तरक्की थी। देश में तेजी से चढ़ रहा निर्माण उद्योग इसके लिए खास तौर पर जिम्मेदार था क्योंकि पूर्वी भारत के गरीब राज्यों से बड़ी आबादी वहां ठेका मजदूर के तौर पर काम करने जा रही थी। इसीलिए खेत-खलिहान से मजदूर गायब होने लगे थे।
फिर भी कंपनियों में यह धारणा बनी रही। इसलिए काम और कामगारों के बारे में लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी) के चेयरमैन एस एन सुब्रमण्यन का हालिया बयान कोई अनूठी या नई बात नहीं है। दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में भी कंपनियां जन कल्याणकारी योजनाओं को अपनी कारोबारी योजनाओं की राह में बाधा मानती हैं। आपातकाल के दौरान जब लोगों के नागरिक अधिकारों का बर्बरता के साथ हनन किया जा रहा था तब भी कारोबारी जगत के लोग (उन लोगों को छोड़कर, जो आंतरिक सुरक्षा एवं विदेशी मुद्रा विनिमय से जुड़े कानूनों की चपेट में आ गए थे) खुलकर इंदिरा गांधी की तारीफ कर रहे थे। उन्हें लगा कि इंदिरा सरीखी तानाशाही कारोबार के लिए अच्छी है क्योंकि इसमें मजदूरों को तमाम शिकायतों के बावजूद चुपचाप काम करना पड़ रहा था। भारतीय मध्य वर्ग के कई लोगों की तरह वे भी दीवारों पर लिखा जॉर्ज ऑरवेल के नारे … ‘राष्ट्र आगे बढ़ रहा है’ को सच मान बैठे थे। कई लोगों ने आपातकाल के दौरान तेज आर्थिक वृद्धि का जिक्र किया मगर यह बात नजरअंदाज कर दी कि यह वृद्धि हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाने से नहीं हुई थी बल्कि हमेशा से भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर डालने वाली मॉनसूनी बारिश के कारण हुई थी। 1975 और 1976 में देश में जमकर मॉनसूनी बारिश हुई थी, जिसने इसकी आर्थिक ताकत बढ़ा दी थी।
एलऐंडटी भारत की सबसे सफल इंजीनियरिंग कंपनियों में शुमार है, जो अरबों रुपये की परियोजनाएं बना रही है। हो सकता है कि कामगारों और कर्मचारियों को अपने साथ जोड़े रखने में उसे दिक्कत हो रही है। सुब्रमण्यन ने समस्या तो सही पहचानी है मगर इसके कारण पहचानने में उनसे गलती हो गई है। एलऐंडटी को 4 लाख कामगार चाहिए मगर उनमें से कई के काम छोड़ जाने के डर से वह चार गुना कामगार भर्ती कर लेती है। जिन कारोबारों में श्रम यानी कामगारों की बहुत अधिक जरूरत होती है, उनमें से कई के साथ यही दिक्कत है। मगर कल्याणकारी योजनाएं इसका कारण नहीं हैं। यह बात साफ हो गई है कि देश के भीतर पलायन की दर में कमी आई है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार 2011 में 38 प्रतिशत आबादी पलायन कर रही थी मगर 2023 में घटकर केवल 29 प्रतिशत रह गई। किंतु इस रिपोर्ट में मनरेगा, जन धन और प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) को इस कमी का कारण नहीं ठहराया गया है। उनके बजाय स्थानीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि और भौतिक तथा सामाजिक बुनियादी ढांचे में सुधार को इसका श्रेय दिया गया है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आयुष्मान भारत चिकित्सा बीमा योजना और एक देश एक राशन कार्ड जैसी सामाजिक सुरक्षा की राष्ट्रीय योजनाएं प्रवासी कामगारों की मुश्किलें कम कर सकती हैं। इनमें ऑनलाइन तत्काल भुगतान प्रणाली का जिक्र भी होना चाहिए था। इसमें यह पहलू भी जोड़ा जा सकता है कि महामारी के बाद के वर्षों के मुकाबले इस वित्त वर्ष के ज्यादातर महीनों में मनरेगा के तहत काम की मांग बहुत कम रही है। मांग में कमी का अंदाजा पहले से था क्योंकि अर्थव्यवस्था में सुधार तो आने लगा है मगर प्रवासी मजदूरों की बड़ी तादाद पुराने काम पर नहीं लौटी है।
भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक काम पर नहीं लौटने वाले इन मजदूरों में से ज्यादातर को ग्रामीण अर्थव्यवस्था खास तौर पर कृषि क्षेत्र में सुधार के कारण काम मिल गया। दिलचस्प है कि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट ने यह भी बताया कि संगठित विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार लगातार बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि एलऐंडटी जैसी कंपनियों को कामगारों के लिए दूसरे संगठनों से कड़ी टक्कर मिली। इनमें भारत सरकार का भी नाम लिया जा सकता है। सरकार ने नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के अंतर्गत 111 लाख करोड़ रुपये रखे हैं, जिनसे 1,100 से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है। इनमें से ज्यादातर परियोजनाएं निजी कंपनियों के हाथों में हैं।
एलऐंडटी के चेयरमैन का यह भी कहना था कि उनकी कंपनी पश्चिम एशिया की कंपनियों के साथ होड़ कर रही है। लेकिन भारत में बड़ी कंपनियों को यह भी सोचना होगा कि भारत में काम करने वाले मजदूरों की उत्पादकता इतनी कम क्यों रहती है और ये मजदूर जब पश्चिम एशिया पहुंच जाते हैं तो इनकी काम करने की क्षमता अचानक इतनी क्यों बढ़ जाती है।
जहां तक दफ्तरों में बैठकर काम करने वाले कर्मचारियों (व्हाइट-कॉलर) की बात है तो कोविड महामारी के बाद घर से काम करने की जो छूट उन्हें मिली थी या अपनी सहूलियत के मुताबिक काम करने की जो रियायत उन्हें दी गई थी उसे अब वे अपना अधिकार मानने लगे हैं।
सुब्रमण्यन ने कहा कि इन व्हाइट कॉलर कर्मचारियों को जब एक शहर छोड़कर दूसरे शहर में जाकर काम करने के लिए कहा जाता है तो उनके इस्तीफे आने लगते हैं। उनकी यह बात आज की हकीकत बयां करती है। आपको उनके साथ सहानुभूति होनी चाहिए। वह ऐसे माहौल में काम करते हुए आगे बढ़े, जहां रोजगार के सीमित मौके होने के कारण आपको कंपनी का हर कहना मानना पड़ा (शायद रविवार को काम भी करना पड़ा हो)। मगर 21वीं शताब्दी में 2.21 लाख करोड़ रुपये की एक कंपनी के मुखिया के तौर पर उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए कि आज श्रम बाजार कैसा भी हो, उसका रंग-रूप और तौर-तरीके सदा के लिए बदल चुके हैं।