भारत की पश्चिमी सीमा पर गोलाबारी चल रही है। परंतु संसद में खामोशी है। विपक्ष ने मांग की थी कि पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया और सुरक्षा नाकामी के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र आयोजित किया जाए। ऐसा लगता है कि वह मांग ठंडे बस्ते में चली गई है। उत्तर प्रदेश विधान परिषद में समाजवादी पार्टी के नेता प्रतिपक्ष लाल बिहारी यादव भी अब नहीं कह रहे हैं कि पहलगाम आतंकी हमलों को ‘शायद राजनीतिक उद्देश्यों’ से अंजाम दिया गया हो।
इसके बजाय विपक्ष सरकार के पीछे लामबंद है और ऑपरेशन सिंदूर के प्रति पूर्ण समर्थन जता रहा है। कांग्रेस हर राज्य के पार्टी मुख्यालय से ‘जय हिंद यात्रा’ निकालकर ऑपरेशन सिंदूर के प्रति समर्थन प्रकट करना चाहती है, भले ही सरकार ऐसा कुछ चाहती हो या नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने सर्वदलीय बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से कहा, ‘आप आगे बढ़िए और हम आपके हर निर्णय और अपनी सेना के साथ हैं।’ सांसदों को संसद से निलंबित किए जाने से उपजी कड़वाहट नदारद है। भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार से लेकर देशभक्ति तक विभिन्न मुद्दों पर सरकार और विपक्ष के बीच चलने वाली जुबानी जंग भी बंद है। सरकार और विपक्ष के बीच शांति का माहौल है भले ही यह बहुत स्थायी न हो।
भारत के लोकतंत्र की बात करें तो तमाम कमियों के बावजूद यही बात संतोष देती है और हमेशा ऐसा ही होता है। जब भी देश युद्ध की स्थिति में रहा है तो विपक्ष ने सरकार के साथ अपने मतभेदों को भुला दिया है। आप संसदीय बहसों को पढ़ सकते हैं। वर्ष 1961 में मधु दंडवते जैसे विपक्ष के नेताओं ने उस युद्ध में सक्रियता हिस्सा लिया जिसने गोवा को आजाद करवाया। 1965 में पाकिस्तान ने कच्छ के रण पर हमला किया और उसी समय उसने कश्मीर में ऑपरेशन जिब्राल्टर की शुरुआत की। राज्य सभा में दिन भर चली बहस में मधु लिमये और किशन पटनायक जैसे समाजवादियों ने सवाल किए लेकिन जब बहस में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाब दिया तो पूरे सदन ने उनकी सराहना की।
1971 में जब पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ा और उसने आत्समर्पण किया तथा बांग्लादेश अस्तित्व में आया तब अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर जनसंघ सदस्य लोक सभा में जबरदस्त भाषण दिया। उस समय महंगाई चरम पर थी, खाद्यान्न की कमी थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस नेतृत्व की चुनौती से जूझ रही थी लेकिन उस समय विपक्ष ने सरकार के नैतिक साहस को मजबूत किया।
जिस संसदीय बहस में यह घोषणा की गई कि देश युद्ध की स्थिति में है उसमें केवल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने ही इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत तारीफ करने से दूरी बनाई। वाजपेयी ने अपने भाषण में कहा था, ‘प्रधानमंत्री को अब शत्रु पर पूर्ण विजय पाने में देश का नेतृत्व करना चाहिए। अगर सरकार हालात को नियंत्रित करने के लिए और अधिक शक्तियां चाहती है तो हमारी पार्टी अपना पूरा सहयोग देने में नहीं हिचकिचाएगी। देश बातचीत की मेज पर वह सब गंवाने को तैयार नहीं है जो हमारे जवानों ने युद्ध भूमि में जीता है। हम पश्चिमी मोर्चे पर यथास्थिति नहीं लौटने दे सकते। इस जंग में पाकिस्तान की आक्रामकता का इलाज होना चाहिए, जो करीबन हर पांच साल पर उभर आती है।’
यकीनन पाकिस्तान बाज नहीं आया। सीमित युद्ध, असमान लड़ाइयां और युद्ध जैसे हालात बनते रहे। ऑपरेशन ब्रासटैक्स, ऑपरेशन पराक्रम, ऑपरेशन विजय और बाद में उरी हमला और 2019 में पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर हमले जैसी घटनाएं हुईं। इनमें से कुछ को लेकर विपक्ष का रुख भी अनिश्चित नजर आया। 2019 में बालाकोट पर हवाई हमलों के बाद 21 राजनीतिक दलों ने नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने सशस्त्र बलों के बलिदान का राजनीतिकरण किया। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा को संकीर्ण राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए। भारत ने श्रीलंका में जो ऑपरेशन पवन चलाया उसे बकौल चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान के मुताबिक युद्ध नहीं माना जाता है। उन्होंने पिछले साल देहरादून में पूर्व सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमने सैकड़ों अभियान चलाए हैं, ऑपरेशन पवन केवल एक छोटा ऑपरेशन था।’ शायद ऐसा ही हो लेकिन इस ऑपरेशन को कम से कम विपक्ष के एक हिस्से से कड़ी प्रतिक्रिया मिली।
परंतु विपक्ष द्वारा सरकार की सबसे तगड़ी संसदीय आलोचना 1962 की जंग में देखने को मिली। 1963 में 16 वर्षों तक लगातार सत्ता में रहने के बाद जवाहर लाल नेहरू को चीन युद्ध के पश्चात लोक सभा में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था। यह अविश्वास प्रस्ताव जेबी कृपलानी ने रखा था और इस पर चार दिनों से अधिक समय में 22 घंटे बहस चली। बहस के दौरान नए– नए सांसद बने राम मनोहर लोहिया ने नेहरू पर तीखा हमला बोला। कृपलानी एक बागी कांग्रेसी थे। उन्होंने भी आग्रह किया कि पंचशील के सिद्धांत को संशोधित किया जाए और चीन के साथ कूटनीतिक रिश्ते को खत्म किया जाए। नेहरू ने इस पर नपीतुली प्रतिक्रिया दी। उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव जैसे सरकार की परीक्षा लेने वाले अवसर का स्वागत करते हुए कहा कि चीन द्वारा भरोसा तोड़ने भर से पंचशील के सिद्धांत को त्यागना एक बुरा विचार होगा। उन्होंने कहा कि हम चीन से युद्ध लड़ना नहीं चाहते थे।
इजरायल तथा अन्य देशों के उलट, जहां विपक्ष और यहां तक कि सहयोगी दलों द्वारा भी सरकार की सैन्य प्रतिक्रिया में पर्याप्त कदम न उठाने की आलोचना की गई है, भारत में विपक्ष द्वारा युद्ध भले ही वह सीमित क्यों न हो, का इस्तेमाल सरकारों के विरुद्ध नहीं किया गया। हो सकता है कि इससे राजनीतिक आम सहमति का तत्व भी सामने आया हो, जैसा कि आज है।
इस समय जब देश मौजूदा टकराव से बाहर निकलने की नीति बना रहा है तो घरेलू राजनीतिक मतभेद कोई कारक नहीं हो सकते। तनाव कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोरगुल शुरू हो चुका है। लेकिन भारतीय विपक्ष ऐसा कुछ नहीं कह रहा है। आगे क्या कदम उठाए जाते हैं, उनकी प्रतीक्षा है।