नरेंद्र मोदी अगले सप्ताह 70 वर्ष के हो जाएंगे। वह छह वर्ष से अधिक समय से देश के प्रधानमंत्री हैं और इससे पहले करीब 13 वर्ष बतौर मुख्यमंत्री काम कर चुके हैं। उन्होंने गुजरात की अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाया और कई मानकों पर उसका प्रदर्शन बेहतर किया। भले ही वह उतना अधिक न हो जितना कि वह दावा करते हैं। ऊर्जा से परिपूर्ण मोदी ने पुरानी समस्याओं के नए हल पेश किए। नर्मदा जल का आगमन और कपास की नई किस्मों ने गुजरात का कृषि उत्पादन बढ़ाने में मदद की। परंतु गुजरात इंटरनैशनल फाइनैंशियल टेक सिटी जैसी परियोजनाओं की प्रगति काफी धीमी रही। कुल मिलाकर उन्होंने गुजरात में जो बदलाव किया, उससे अधिक बदलाव उन्होंने भारत में किए, भले ही बतौर प्रधानमंत्री उनका कार्यकाल, मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल का आधा ही हुआ है। विंध्य के उत्तर और आंशिक तौर उसके दक्षिण की राजनीति का चरित्र बदल गया है। एक तरह के अटल बहुसंख्यकवाद ने जगह बनाई है। रामजन्मभूमि मामले (विरोधाभासी निर्णय) में हुई प्रगति तथा जम्मू कश्मीर (संवैधानिक प्रावधानों का चतुराईपूर्ण इस्तेमाल करके) के दर्जे में बदलाव को हिंदी प्रदेशों में सराहा गया। ऐसे में विपक्ष की आलोचना मोदी के समर्थकों के लिए उपलब्धि है। बहरहाल, राज्य और स्वायत्त संस्थाओं का लंबे समय तक दमन कर पार्टी हित में इस्तेमाल करना हालांकि नया नहीं है और न ही केवल भाजपा ऐसा कर रही है लेकिन यह भारतीय गणराज्य के लिए ठीक नहीं है।
आर्थिक विरासत अभी तैयार हो रही है। मोदी की पहलों को श्रेणियों में बांटा जा सकता है। आजीविका के लिए व्यय कार्यक्रम, बुनियाद निवेश और नवीकरणीय ऊर्जा के कार्यक्रम कुछ दिक्कतों के साथ काफी सफल रहे। हालांकि नीतिगत कार्यक्रम मसलन बैंकों के लिए इंद्रधनुष, बिजली क्षेत्र के लिए उदय और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को उतनी सफलता नहीं मिली। लक्षित कार्यक्रम जरूर काफी सफल रहे: जन धन, नवीकरणीय ऊर्जा, स्वच्छ भारत, उज्ज्वला आदि योजनाएं इसका उदाहरण हैं। परंतु बड़े पैमाने पर लक्षित योजनाएं सफल नहीं रहीं। सन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना और उसी वर्ष जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 15 से 25 फीसदी करना इसका उदाहरण हैं। कार्यक्रमों के इन अच्छे-खराब नतीजों को इनकी सापेक्षिक जटिलताओं से समझा जा सकता है: एक राजमार्ग या शौचालय बनाना आसान है जबकि किसी क्षेत्र में सुधार लाना मुश्किल। जबकि किसी क्षेत्र में सुधार लाना, अर्थव्यवस्था के ढांचे में बदलाव लाने से आसान है। मुख्यमंत्री के समक्ष अपेक्षाकृत आसान काम होते हैं जबकि राजनीतिक रूप से सफल प्रधानमंत्री भी आर्थिक गतिविधियों से जुड़े जटिल कारकों के समक्ष नाकाम हो सकते हैं। मोदी ने शुरुआती तीन वर्ष में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन उन्हें तेल कीमतों में गिरावट का भी लाभ मिला जो सन 2011-14 के 100 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर बाद में औसतन 60 डॉलर प्रति बैरल रही। यह जीडीपी में सालाना दो फीसदी इजाफे के समान था। मनमोहन ङ्क्षसह के कार्यकाल के आखिरी वर्ष में 6.4 फीसदी की वृद्धि दर मोदी के सर्वश्रेष्ठ वर्ष 2016-17 में 8.3 फीसदी पर इसी वजह से पहुंची। अगले तीन वर्षों में वृद्धि दर आधी रह गई। सबसे बड़ी गलतियां तब हुईं जब चमत्कारी उपाय अपनाने का प्रयास किया गया: नोटबंदी और मार्च-अप्रैल का देशव्यापी लॉकडाउन इसका उदाहरण हैं। लॉकडाउन के चलते बड़े पैमाने पर श्रमिक अपने घरों को लौट गए।
इसका नतीजा रोजगार को नुकसान के रूप में सामने आया। भविष्य की बात करें तो कारोबारी दृष्टि से निराशा ही नजर आती है और बैंक भी पीडि़त हैं। इस बीच, दिवालिया कानून और घोषित मौद्रिक लक्ष्यों को किनारे कर दिया गया है जबकि जीएसटी में भारी गड़बड़ है। अब आत्मनिर्भरता को नया लक्ष्य बनाया गया है जिसके नतीजे आने शेष हैं। इन तमाम बातों के बीच एक प्रश्न क्षमता का भी है। यदि काम जटिल होता जाए तो कड़ी मेहनत से बात नहीं बनती।
दबंग नेताओं की आर्थिक विरासत का कमजोर होना आम है। व्लादीमिर पुतिन के अधीन रूसी अर्थव्यवस्था का आकार 2008 से छोटा है। एर्दोआन के शासन में तुर्की की मुद्रा बीते पांच वर्ष में 60 फीसदी गिर चुकी है। ह्यूगो शावेज, लूला दा सिल्वा और युुआन पेरोन सभी लोकप्रिय नेता थे जिन्हें वेनेजुएला, ब्राजील और अर्जेंटीना में शुरुआती कामयाबी भी मिली लेकिन उनकी विरासत सराहनीय नहीं रही। मोदी के पास अवसर है कि वह अपना नाम इस सूची से बाहर रख सकें लेकिन वृहद आर्थिक अनुपात और व्यवस्थित गतिरोध खतरनाक तरीके से राह रोक रहे हैं। पिछले तीन प्रधानमंत्री जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया, उन्होंने लगभग 70 की उम्र में शुरुआत की थी। मोदी उन सभी से युवा और चुस्त दुरुस्त हैं। उन्हें इन विफलताओं को हराकर सफलता की राह तलाशनी चाहिए।