लेख

Opinion: जलवायु परिवर्तन की तीन बड़ी चुनौतियां

यह आवश्यक है कि हम जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्रम में तीन प्रमुख चुनौतियों को लेकर एक साझा सहमति विकसित करें।

Published by
अजय शाह   
अक्षय जेटली   
Last Updated- March 21, 2024 | 9:27 PM IST

अकार्बनीकरण की राह बिजली क्षेत्र से होकर जाती है। आज यह क्षेत्र देश के कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार है। वृद्धि के लिए अधिक बिजली की जरूरत है और अर्थव्यवस्था के अन्य हिस्से जीवाश्म ईंधन से बिजली की ओर जा रहे हैं। भारत में कार्बन मुक्त बिजली क्षेत्र की तस्वीर कैसी होगी?

अकार्बनीकरण एक कठिन समस्या है। जीवाश्म ईंधन ऊर्जा उद्योग और उसके उपयोगकर्ताओं के पास लाखों करोड़ रुपये की परिसंप​त्ति है और कई लाख श्रमिक। इस सारी पूंजी और श्रम ने जीवन जीने के तरीके को इतना सामान्य बना दिया है जो जलवायु परिवर्तन को प्रेरित करने वाला है। इस व्यवस्था से अलग हटकर एक नई विश्व व्यवस्था कायम करने के लिए अकल्पनीय धन और कच्चे माल की आवश्यकता है।

अगर केंद्रीय नियोजन के नजरिये से देखा जाए तो जरूरी बदलाव हासिल करना असंभव नजर आता है और नीति निर्माताओं के लिए यह कल्पना करना मुश्किल है कि बिना कोयले, तेल और गैस के भारत की क्या स्थिति होगी? परंतु एक बार जब हम लाखों फर्मों और व्यक्तियों की ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं और उनके लिए प्रोत्साहन तय कर देते हैं तो यह व्यावहारिक हो जाएगा।

सरकार ने इसे लेकर कई तरह की आकांक्षाएं जताई हैं और सहमति भी प्रदान की है। हमें 2070 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य भी हासिल करना है। हमें 2005 से 2030 तक उत्सर्जन को सकल घरेलू उत्पाद के 45 फीसदी तक कम करना है। बिजली में आधी स्थापित क्षमता के गैर जीवाश्म ईंधन आधारित हो जाने की उम्मीद है। इन आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अथवा विशुद्ध शून्य की तारीख को समय पूर्व हासिल करने के लिए एक रणनीति की आवश्यकता है।

यह इंजीनियरों के लिए ऊर्जा उत्पादन या खपत के तरीकों पर प्रौद्योगिकियों को चुनने और व्यवसाय मॉडल डिजाइन करने का संकेत नहीं है। ऐसा केंद्रीय नियोजन दो कारणों से उपयोगी नहीं है। भारत एक बड़ा और जटिल देश है और प्रौद्योगिकी तथा कारोबारी मॉडल का पता लगाने के लिए एक व्यक्ति या फर्म के स्तर पर लाखों विकेंद्रीकृत अनुकूलन करना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के खतरे ने दुनिया भर में शोध को बल दिया। भारत के लिए इसका लाभ नि:शुल्क है।

दुनिया भर के शोधकर्ताओं की बदौलत अब सोलर पैनल कई प्लास्टिक पैनलों से भी सस्ते हो चुके हैं। शोध समाप्त होने का नाम नहीं ले रहे हैं। कोई नहीं जानता है कि भविष्य की तकनीक और कारोबारी मॉडल कैसे होंगे। रणनीतिक विचार प्रक्रिया में यह निर्धारित करना शामिल नहीं है कि सोलर पैनल, इलेक्ट्रिक वाहनों और बैटरी तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जाएगा। यहां तीन बड़ी चुनौतियां हैं। हमारे विचार में ये सवाल महत्त्वपूर्ण हैं। हम मानते हैं कि यह तलाश सही पड़ताल की ओर ले जाएगी और संस्थानों और प्रोत्साहनों को सही ढंग से अंजाम दिया जा सकेगा।

पहली चुनौती- केंद्र और राज्य: बिजली क्षेत्र में गहरी अंतर्संबद्धता है जहां प्रमुख जिम्मेदारी राज्यों की होती है और अनुषंगी लेकिन अहम भूमिका केंद्र सरकार की भी होती है। दोनों के लिए बेहतर तरीका क्या हो सकता है, दोनों में से प्रत्येक अपनी भूमिका कैसे निभाएगा, इनमें से हर एक दूसरे के क्षेत्र में कैसे प्रवेश कर सकता है?

लोक सभा चुनाव बिजली के मुद्दे पर नहीं लड़े और जीते जाते हैं लेकिन कई राज्यों में ऐसा होता है। कई राज्यों में नि:शुल्क और सब्सिडी वाली बिजली दी जाती है जिसकी कीमत वाणिज्यिक उपयोगकर्ताओं को अतिरिक्त शुल्क देकर चुकानी पड़ती है। अब निजी कंपनियों समेत एक दर्जन से अधिक वितरण कंपनियां हैं लेकिन अभी भी अधिकांश वितरण राज्य सरकारों के हाथ में है।

बिजली क्षेत्र राज्यों की अर्थव्यवस्था पर गैर किफायती बोझ डालता है इसमें कुछ लोगों के लिए महंगी बिजली और बाकी के लिए सब्सिडी वाली रियायती बिजली होती है। ऐसे मामलों में सरकारी उपक्रमों को घाटा होता है और राज्य सरकारों को बजट से इतर नकदी कंपनियों को देनी होती है। कुछ राज्यों में बिजली से जुड़ी राजकोषीय दिक्कतें मध्यम अवधि की राजकोषीय नीति का विषय हैं।

दूसरी चुनौती- भारत और विश्व: जलवायु संबंधी मुद्दे को लेकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर असर होगा। भारत का विशुद्ध शून्य की ओर बदलाव को अपना पाना जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में बहुत अहम है। दुनिया भर के लोग जलवायु परिवर्तन को रोक पाने को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हैं।

यह भारत के लिए दिक्कत की बात है क्योंकि हम यूरोपीय संघ की जगह दुनिया में तीसरे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन वाले देश बन चुके हैं। हम जलवायु फाइनैंसिंग के क्षेत्र में ठोस और अपनाए जाने लायक उपाय सुझाकर इस क्षेत्र में नेतृत्व हासिल कर सकते हैं। इसमें पेरिस समझौते के तहत उपलब्ध फ्रेमवर्क का लाभ उठाना और द्विपक्षीय व्यवस्था को अपनाना शामिल है।

तीसरी चुनौती-राज्य और बाजार: जलवायु परिवर्तन की समस्या राज्य द्वारा हल सुझाने और लोगों को आदेश देने से नहीं हल होगी। इसके लिए लोगों को अपने स्तर पर पहल करनी होगी और राज्य को इस क्षेत्र में बुनियादी बाजार विफलताओं को दूर करना होगा। इस पहेली का हल सही संतुलन कायम करने में निहित है।

इस क्षेत्र में बाजार की नाकामी राज्य की दंडात्मक शक्ति के न्यूनतम इस्तेमाल के लिए दलील तैयार करती है। एक बार ऐसा हो जाने के बाद अपने हित में विचार करने वाले लाखों लोग यह पता कर सकेंगे कि उनके हित में क्या है।

फिलहाल बिजली क्षेत्र में संसाधन आवंटन के अधिकांश निर्णय उन अधिकारियों द्वारा लिए जाते हैं जो अक्सर पहले से परिभाषित काम करने के लिए निजी व्यक्तियों को दीर्घकालिक बिजली खरीद अनुबंध प्रदान करते हैं। ऐसे रुख में निजी व्यक्तियों की रचनात्मकता, जोखिम उठाने की क्षमता, नवाचार और ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं होता। ऐसे में निजी लोगों की कल्पनाशीलता और जोखिम लेने की क्षमता अल्पावधि के लेनदेन तक सीमित है और बिजली बाजार में इनकी हिस्सेदारी 12 फीसदी है।

जलवायु परिवर्तन बहुत महत्त्वपूर्ण है, उसे केवल जलवायु विशेषज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है जो हर किसी के जीवन को प्रभावित करने वाली है। इस पर बहस, आलोचना और नवोन्मेष के लिए बड़ी तादाद में लोगों की जरूरत है तभी उपरोक्त तीन चुनौतियों पर किसी सहमति पर पहुंचा जा सकता है।

इनमें से प्रत्येक के लिए अलग विशेषज्ञता की जरूरत है। उसके बाद यह देखने की जरूरत है कि क्या तीनों चुनौतियों में से प्रत्येक पर लागू विचार अन्य दो के साथ निरंतरता में हैं? जब समग्र नीति पर संपूर्णता से विचार किया जाता है तो प्रश्न यह है कि यह कितनी जल्दी विशुद्ध शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए जरूरी संसाधन और ऊर्जा जुटाने में सक्षम होगी?

(अजय शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और अक्षय जेटली नीति सलाहकार हैं)

First Published : March 21, 2024 | 9:27 PM IST