केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष कर संग्रह में बीते कुछ वर्षों में काफी इजाफा हुआ है और वित्त मंत्रालय भी इससे उत्साहित है, जो स्वाभाविक भी है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के विश्लेषण के अनुसार 2023-24 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी 6.64 फीसदी रही, जो 24 सालों का उच्चतम स्तर था। वर्ष 2000-01 में यह आंकड़ा केवल 3.25 फीसदी था।
इस अवधि में एक और अहम घटना हुई, जिसे खास कारणों से सीबीडीटी के विश्लेषण में शामिल नहीं किया गया है। यह घटना है जीडीपी में अप्रत्यक्ष करों की घटती हिस्सेदारी। यह 2000-01 में इन करों की जीडीपी में 5.62 फीसदी हिस्सेदारी थी, जो 2023-24 में घटकर 5.11 फीसदी रह गई।
इस प्रकार केंद्र सरकार के प्रयासों से सकल कर राजस्व प्रयास 2023-24 में जीडीपी का 11.7 फीसदी पर पहुंच गया, जो 2000-01 में 8.8 फीसदी ही था। इस अवधि में कुल कर संग्रह तेजी से बढ़ा और उसके घटकों में भी बेहतरी आई। गत वर्ष सकल कर संग्रह में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी 57 फीसदी रही, जबकि 2001-02 में यह केवल 36 फीसदी था। यह अच्छी बात है कि केंद्र प्रत्यक्ष करों पर अधिक भरोसा कर रहा है और अप्रत्यक्ष करों पर कम।
जब 1991 में आर्थिक सुधार लागू किए गए तब केंद्र के सकल कर राजस्व में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी बढ़ाना बड़ी चुनौती थी। 1990-91 में सकल कर संग्रह जीडीपी के 10 फीसदी से भी कम रहने का अनुमान था, जिसमें प्रत्यक्ष कर संग्रह का योगदान केवल 1.9 फीसदी था और अप्रत्यक्ष करों का योगदान 8 फीसदी से कुछ ही ज्यादा था।
उस दशक के अंत तक कुल कर संग्रह घटकर जीडीपी का 8.8 फीसदी ही रह गया मगर प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी बढ़कर 70 फीसदी तक पहुंच गई और अप्रत्यक्ष करों की 30 फीसदी ही रह गई। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर संग्रह के मिश्रण में यह अच्छा बदलाव 1990 के दशक में ही आना शुरू हो गया था, हालांकि कुल कर संग्रह कम हो रहा था।
परंतु पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार के राजकोषीय प्रदर्शन के व्यापक प्रभावों को संभलने के लिए कर संग्रह के प्रयासों की कहानी ही काफी नहीं होगी। अन्य क्षेत्रों में भी बड़े बदलाव हुए हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है और जिनका विश्लेषण राजकोषीय नीति को अधिक जवाबदेह और उद्देश्यपूर्ण बनाने में मदद कर सकता है।
राजकोषीय मोर्चे पर केंद्र की सबसे बड़ी उपलब्धि व्यय में कमी और उसकी गुणवत्ता में सुधार है। 1990-91 में केंद्र सरकार का सालाना व्यय जीडीपी के 18 फीसदी से अधिक था, जो बहुत ऊंचा स्तर था।
विगत 34 वर्षों में यह घटकर जीडीपी के करीब 15 फीसदी तक रह गया है। सतत आर्थिक वृद्धि के साथ सालाना व्यय पर लगाम कसना तारीफ की बात है। इसका श्रेय उन सभी सरकारों को जाना चाहिए जिन्होंने इस अवधि में केंद्र में शासन किया। अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के कुछ वर्षों में जरूर इसमें इजाफा हुआ, लेकिन मोटे तौर पर इसमें गिरावट ही आई।
परंतु व्यय की गुणवत्ता में सुधार का श्रेय सभी सरकारों को नहीं दिया जा सकता। वर्ष 1990-91 में जीडीपी में पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी 5.5 फीसदी और राजस्व व्यय की 12.8 फीसदी थी। मगर पूंजीगत व्यय में अगले तीन दशकों तक लगातार गिरावट आई और 2019-20 में जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 1.67 फीसदी रह गई। वास्तव में इस दौरान व्यय में कमी और कर राजस्व में वृद्धि के जरिये ही राजकोषीय घाटे में कमी लाई गई।
2020 में कोविड संकट और बुनियादी ढांचा निर्माण पर मोदी सरकार के जोर के कारण 2019-20 के बाद पूंजीगत व्यय तेजी से बढ़ा। 2019-20 के जीडीपी के 1.67 फीसदी से बढ़कर यह 2023-24 में जीडीपी के 3.2 फीसदी तक पहुंच गया। अगर 2023-24 तक राजकोषीय घाटे को कम कर जीडीपी के 5.6 फीसदी तक लाया जा सका तो इसकी वजह राजस्व व्यय में कटौती थी। इसे 2021-22 के जीडीपी के 15.5 फीसदी से कम करके 2023-24 में जीडीपी के 11.8 फीसदी तक लाया जा सका।
राजस्व व्यय कम इसलिए हो पाया क्योंकि सब्सिडी घटा दी गईं। 1990-91 से 2007-08 के बीच सब्सिडी पर खर्च जीडीपी के दो फीसदी के करीब रहा और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में अक्सर वह इस स्तर के भी पार जाता रहा। मोदी सरकार का प्रदर्शन इस मामले में बेहतर रहा। 2020-21 के कोविड वाले वर्ष को छोड़ दें, जब सब्सिडी जीडीपी के 3.8 फीसदी तक पहुंच गई थी तो बाकी समय सब्सिडी आवंटन कम रहा और 2023-24 तक यह घटकर जीडीपी के 1.5 फीसदी के स्तर पर रह गया।
विगत 34 वर्षों के केंद्र सरकार के राजकोषीय प्रदर्शन को देखें तो स्पष्ट हो जाती है कि व्यय को काबू में रखने की रणनीति भी एक सीमा तक ही कारगर हो सकती है। आने वाले वर्षों में उच्च पूंजीगत व्यय की मांग बढ़ेगी। कर संग्रह मजबूत गति से बढ़ा है किंतु यह वृद्धि अधिक संसाधनों की मांग की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। इसकी मदद से राजकोषीय घाटे को वांछित स्तर तक लाने का लक्ष्य भी हासिल नहीं हो सकता।
एक तथ्य की अक्सर अनदेखी की जाती है और वह है उच्च सकल कर संग्रह से केंद्र का लाभ उसके सकल कर राजस्व में वृद्धि से काफी कम रहना। केंद्र सरकार का सकल कर संग्रह 2000-01 में जीडीपी का 8.8 फीसदी था, जहां से बढ़कर 2023-24 तक 11.73 फीसदी हो गया। परंतु इसी अवधि में केंद्र सरकार का शुद्ध कर राजस्व (राज्यों को दी जाने वाली राशि हटाकर) धीमी गति से बढ़ा और यह जीडीपी के 6.39 फीसदी से बढ़कर 7.88 फीसदी तक ही पहुंच पाया।
एक के बाद एक वित्त आयोग कहते रहे कि केंद्र के संग्रह से राज्यों को दिया जाने वाला हिस्सा बढ़ाया जाए। इसीलिए केंद्र सरकार को होने वाला शुद्ध लाभ 24 वर्ष पहले की तुलना में कम रह गया। केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी आने वाले समय में और भी बढ़ने की संभावना है।
फिर भी केंद्र पर बुनियादी ढांचा निर्माण पर व्यय बढ़ाने तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने पर राशि खर्च करने का दबाव होगा जो राजस्व के लिए चुनौती बनेगा। पेट्रोलियम से आने वाले कर की केंद्र के सकल कर राजस्व में 12 फीसदी हिस्सेदारी है। राजस्व के वैकल्पिक स्रोत तलाश करना आसान नहीं है क्योंकि जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने से इस क्षेत्र का कर राजस्व घटेगा। केंद्र की राजकोषीय चुनौतियां और बढ़ेंगी।
ऐसे दबाव के बीच यह आवश्यक है कि वित्त मंत्रालय राजस्व के लिए कर के अलावा दूसरे स्रोत तलाशे। कर से इतर राजस्व और विनिवेश अपेक्षाकृत दो आसान लक्ष्य हैं, जिन पर केंद्र को विचार करना चाहिए। इस दिशा में केंद्र के प्रयास कम रहे हैं। गत वर्ष कर से इतर राजस्व संग्रह जीडीपी के 1.36 फीसदी के बराबर रहने का अनुमान था, जो 2001-02 के 2.93 फीसदी से काफी कम है।
सरकारी उपक्रमों के विनिवेश पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। गत वर्ष इस क्षेत्र में सरकार का प्रदर्शन खराब रहा था और इससे मिलने वाला राजस्व जीडीपी के 0.17 फीसदी के बराबर ही रहा। सरकारी क्षेत्र से तगड़ा लाभांश मिलने के कारण विनिवेश के मोर्चे पर ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि हाल के वर्षों में सरकारी उपक्रमों में केंद्र अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहा है।
कर से इतर राजस्व और विनिवेश आय का बड़ा लाभ यह है कि दोनों में से एक पाई भी राज्यों को नहीं देनी पड़ती। केंद्र सरकार इनसे होने वाली पूरी आय अपने पास रख सकती है और राजकोषीय जरूरतें पूरी करने के लिए उसे राजस्व व्यय को नियंत्रित करने या कर राजस्व में वृद्धि पर निर्भर नहीं रहना होगा।