भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) या अशोक यूनिवर्सिटी जैसे निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान भारत में उच्च शिक्षा के लिए आदर्श माने जाते हैं। परंतु ऐसे संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने पर आने वाला खर्च अधिक है और केवल एक छोटे समूह की उच्च शिक्षा से जुड़ी आवश्यकताएं ही पूरी हो पाती हैं। इस लेख में सीमित बजट (सरकार एवं छात्रों के परिवार स्तर दोनों पर) के बीच उच्च शिक्षा का दायरा बढ़ाने पर चर्चा की गई है और केवल पूर्वस्नातक (अंडरग्रैजुएट) पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर हमारी परंपरागत समझ पश्चिमी जगत में प्रचलित व्यवस्था पर बहुधा आधारित है। परंतु क्रय शक्ति समता के संदर्भ में भारत में प्रति व्यक्ति आय अमेरिका का मात्र लगभग 11 प्रतिशत है। बाजार विनिमय दर पर यह 4 प्रतिशत भी नहीं है। अतः हमें नए सिरे से विचार करना होगा। व्यापक स्तर पर बात करें तो उच्च संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर पढ़ाने, शोध एवं ‘क्लब फैसिलिटी’ पर ध्यान केंद्रित रहता है।
एक उच्च संस्थान का परिसर बड़ा होता है और भव्य इमारतें एवं विस्तृत भू-दृश्य भी होते हैं। कक्षाओं के अलावा सभागार, नाट्यगार, मनोरंजन एवं बैठकों के लिए कक्ष सहित अन्य सुविधाएं होती हैं। अतिथि कक्ष और जल-पान गृह के लिए भी स्थान सुरक्षित रहते हैं। ये सभी अच्छी तरह व्यवस्थित होते हैं परंतु प्रायः पूर्ण उपयोग में नहीं आते हैं। उच्च संस्थानों में कॉलेज कार्यक्रमों एवं अन्य गतिविधियों पर भी खर्च अधिक किए जाते हैं। कई तरह के क्रीड़ा मैदान भी होते हैं। वृहद पुस्तकालय सुविधाएं भी होती हैं। ये सभी सुविधाएं उपयोगी हैं परंतु ऐसा भी नहीं है कि इनके बिना शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक कार्य संपादित नहीं किए जा सकते।
अब शोध कार्यों से जुड़ी सुविधाओं पर विचार करते हैं। उच्च संस्थानों में शिक्षकों को मिलने वाले ऊंचे वेतन का एक बड़ा हिस्सा शोध कार्यों के लिए दिया जाता है। मगर पूर्वस्नातक की पढ़ाई के लिए प्रस्तावित नए कम खर्च वाले संस्थानों के लिए यह बिंदु कितना महत्त्व रखता है? यह शायद ही कोई विशेष महत्त्व रखता है।
अब पठन-पाठन पर विचार किया जाए। ये सभी बातें शोध या उच्च संस्थानों में ‘क्लब फैसिलिटी’ की आलोचना करने के लिए नहीं कही गई हैं। जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि खर्च पर विचार करते हुए पूर्वस्नातक की पढ़ाई के लिए अन्य प्रकार के संस्थान भी स्थापित किए जा सकते हैं। इस समय सकल नामांकन अनुपात 25 प्रतिशत से आगे निकलने की राह में खर्च आड़े आता है। अगर रोजगार ही नहीं उपलब्ध होंगे तो उच्च शिक्षा का विस्तार ही क्यों करें?
हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि भारत में डिग्री एवं डिप्लोमा धारक भी बेरोजगारों में शामिल हैं। ये ऐसे लोग हैं जो सही अर्थ में शिक्षित एवं हुनरमंद नहीं है। सरकारी सेवाओं में वेतन अधिक मिलता है परंतु रोजगार के अवसर बहुत कम होते हैं। इससे ‘उम्मीद बेरोजगारी’ की स्थिति पैदा होती है। ये सभी अलग-अलग समस्याएं हैं।
हम कम लागत वाले संस्थानों के लिए संकाय कहां से ला सकते हैं? पहली महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रस्तावित संस्थानों में शिक्षकों के लिए पीएचडी की योग्यता की अनिवार्यता की शर्त पर नहीं अड़ना चाहिए। यह शर्त हटने से शिक्षकों की उपलब्धता तत्काल बढ़ जाएगी।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नियमित शिक्षकों के अलावा सेवानिवृत्त मगर योग्य शिक्षक भी हैं जो कुछ सीमा तक योगदान देना चाहेंगे। तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कई योग्य महिलाएं अपने पास उपलब्ध समय के अनुसार अंशकालिक शिक्षण कार्य करना चाहती हैं। चौथी बात यह है कि कई योग्य व्यक्ति भी कुछ हद तक इन संस्थानों में पढ़ाने में खुशी का अनुभव करेंगे। पांचवीं बात, बेहतर कोचिंग सेंटरों के कुछ शिक्षक नियमित पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ा सकते हैं। छठी बात, कई अच्छे पीएचडी छात्र भी शिक्षण कार्य कर सकते हैं। अंत में, कुछ शिक्षित लोग अन्यत्र स्थायी रोजगार पाने तक इन संस्थानों में पढ़ाना पसंद करेंगे।
इस तरह, हमारे पास विभिन्न प्रकार के शिक्षक पढ़ाने के लिए उपलब्ध हो सकते हैं जिससे काफी मदद मिल सकती है। पूर्वस्नातक स्तर पर पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी नहीं है मगर उनकी सेवाएं लेने के लिए अधिकारियों को लचीला और सही मायने में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा। पूर्वस्नातक स्तर का पाठ्यक्रम बहुत जटिल नहीं है। इस प्रस्तावित शिक्षण संस्थानों में वेतन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) दर्जे से काफी कम निर्धारित किए जा सकते हैं। शिक्षा पर ध्यान, विशेषकर ऑनलाइन पढाई पर, देखते हुए संकाय, आधारभूत ढांचा, प्रयोगशाला, प्रशासन, रखरखाव एवं सुरक्षा पर लागत कम रह सकती है। ऐसे संस्थान किसी बड़ी इमारत में एक छोटी जगह से भी संचालित किए जा सकते हैं।
परंतु यह स्पष्ट करना महत्त्वपूर्ण है कि यहां उद्देश्य ‘टीचिंग शॉप्स’ को बढ़ावा देना नहीं है। यह भी उद्देश्य नहीं है कि सरकार को शिक्षा पर बजट कम कर देना चाहिए। उद्देश्य यह भी नहीं है कि छात्रों को बिना ‘क्लब फैसिलिटी’ वाले संस्थानों में ही पढ़ना चाहिए। यह तर्क भी नहीं दिया जा रहा है कि संपन्न एवं धनी परिवारों के बच्चों को उच्च संस्थानों में जबकि अन्य को इन नए प्रस्तावित संस्थानों में भेजा जाना चाहिए।
नियमन, मान्यता प्रदाता एवं रेटिंग एजेंसियों, मीडिया, परोपकार कार्य में लगे लोगों और छात्रों एवं उनके अभिभावकों को अपनी धारणा में बदलाव लाना चाहिए। तभी हम आगे बढ़ सकते हैं। भारत में कई लोगों के समक्ष यह विकल्प ही मौजूद नहीं है कि सर्वांगीण शिक्षा और कम खर्च वाली शिक्षा में कौन सी चुनी जाए। सीमित बजट के बीच उन्हें यह तय करना होता है कि कम खर्च वाली शिक्षा और शिक्षा से बिल्कुल दूर (स्कूल स्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद) रहने के दो विकल्पों में किसका चयन किया जाए।
(लेखक स्वतंत्र अर्थशास्त्री हैं और अशोक यूनिवर्सिटी, आईएसआई और जेएनयू में पढ़ा चुके हैं)