भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मेट्रो नेटवर्क वाला देश होने का दम भरता है, जिसकी तुलना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नेटवर्क से की जाती है। इसके बावजूद अन्य देशों के उलट भारत में यहां अशोभनीय व्यवहार और विवादों की अनेक घटनाएं देखने को मिलती हैं।
देश के राजमार्ग और एक्सप्रेसवे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मार्गों से होड़ लेते हैं लेकिन फिर भी दुनिया भर में सड़क दुर्घटनाओं में सबसे अधिक मौतें यही होती हैं। दुनिया के शीर्ष 1,000 विश्वविद्यालयों में 91 भारतीय विश्वविद्यालय शामिल हैं लेकिन महिलाओं की सुरक्षा आज भी एक बड़ा मुद्दा है।
भारत ने शानदार ऊंची इमारतें बनाई हैं लेकिन फिर भी लोग इमारतों की लिफ्ट में पालतू पशुओं को ले जाना चाहते हैं तो विवाद होते हैं। भारतीय स्टार्टअप के यूनिकॉर्न में बदलने का प्रतिशत सबसे अधिक है और इसमें दो राय नहीं कि भारत में अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग हैं। इन विरोधाभासी बातों के बीच एक बुनियादी प्रश्न उभरता है: क्या आर्थिक विकास या बौद्धिक ताकत जवाबदेह नागरिकता के लिए पर्याप्त है?
भारत में प्रभावशाली और शक्तिशाली लोगों की धारणा यह है कि नियम तो मानो तोड़ने के लिए ही बने होते हैं। जब कानून की इज्जत नहीं की जाती है तो भ्रष्टाचार उत्पन्न होता है। हमारे पुरखों ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जहां नागरिक अपने बुनियादी कर्तव्यों का पालन करेंगे और अपने अधिकारों का उपभोग करेंगे।
परंतु नीति निर्देशक तत्त्वों में उल्लिखित बुनियादी कर्तव्य ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं और उनका शायद ही कभी जिक्र होता हो। बीते दशक में हमने जो विकास किया है वह निस्संदेह अत्यधिक प्रभावशाली है लेकिन इस बदलाव की व्यापक प्रकृति बिना आम जनता में समान सामाजिक व्यवहार के समांतर उद्भव के अधूरी है। इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में कहा, ‘दुनिया में जिन देशों ने प्रगति की है, जो देश संकट से बाहर निकले हैं, अन्य चीजों के साथ एक उत्प्रेरक कारक भी रहा है और वह था राष्ट्रीय चरित्र।’
इतिहास हमें बताता है कि कई देशों ने राष्ट्रीय चरित्र में परिवर्तन का काम सफलतापूर्वक किया। ‘निहोनजिनरोन’ ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान की पहचान और उसके चरित्र को बदला। ली कुआन यू के नेतृत्व में सिंगापुर का एक नया चरित्र सामने आया। अमेरिका ने एक साझा अमेरिकी स्वप्न तैयार किया जिसने विविध संस्कृतियों के लोगों को एकजुट किया। करीबी नजर डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश देशों ने इतिहास में सबसे अहम क्षण उस समय अनुभव किए जब उन्हें अपने राष्ट्रीय चरित्र को नया आकार देने की जरूरत महसूस हुई।
किसी देश के राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव की राह निस्संदेह जटिल है और इसके लिए ऐसा कोई एक तरीका नहीं है जो सब पर लागू हो। यह बात व्यापक तौर पर स्वीकार की जाती है कि शिक्षा की इसमें अहम भूमिका है। सैनिक स्कूलों को अकादमिक और चरित्र निर्माण में उनकी श्रेष्ठता के लिए जाना जाता है और वे इसमें श्रेष्ठ साबित हुए हैं। आजादी के बाद से देश भर में केवल 33 सैनिक स्कूल बनाए गए हैं।
ऐसे में देश के हर जिले में एक सैनिक स्कूल के साथ 1,000 सैनिक स्कूल बनाना बहुत बड़ा कदम है जिसे बहुत सलीके से क्रियान्वित करना होगा। इसी तरह राष्ट्रीय कैडेट कोर (एनसीसी) को भी बच्चों के व्यक्तित्व एवं चरित्र को आकार देने में अहम माना जाता है। 2020 में तटीय और सीमावर्ती इलाकों के 1,000 से अधिक स्कूलों में एनसीसी का विस्तार राष्ट्रीय चरित्र निर्माण और सीमा सुरक्षा की दृष्टि से अहम कदम है। परंतु 15 लाख की स्वीकृत मंजूरी के साथ केवल करीब 4 फीसदी छात्र एनसीसी का प्रशिक्षण हासिल कर पाते हैं। निजी भागीदारी के साथ एनसीसीको सभी छात्रों तक ले जाने की संभावना पर विचार किया जाना चाहिए।
सशस्त्र बलों में अग्निवीर योजना के माध्यम से होने वाली भर्ती का राष्ट्रीय चरित्र पर क्या असर पड़ेगा इसकी भी मीडिया में व्यापक पैमाने पर अनदेखी की गई है और उसे कम करके आंका गया है। सेना में चार साल बिताने के बाद जब अग्निवीर समाज में वापस लौटेंगे तो उनमें देशभक्ति और अनुशासन की गहरी भूमिका होगी। उनकी उपस्थिति आसपास के समाज पर सकारात्मक असर डालेगी।
दूसरे लोग हमारे लिए जो कुछ करते हैं उसके प्रति आभार का भाव हमारे चरित्र के निर्माण के मूल में है। कोविड-19 संकट के दौरान स्वास्थ्य कर्मियों को लेकर सराहना का भाव अच्छी बात रही। बहरहाल यह हमें सोचने पर विवश करता है कि क्या यह काम रोजमर्रा के और छिटपुट योगदान के लिए भी किया जा सकता है? हम वास्तविक दुनिया के नायकों के प्रति आभार दिखाकर शुरुआत कर सकते हैं जिन्होंने देश के लिए बलिदान दिया है।
इसके लिए राष्ट्रीय युद्ध स्मारक जाया जा सकता है। हममें से कितने लोगों ने यह किया होगा? रूस में लोगों का विक्ट्री मेमोरियल जाना सामान्य व्यवहार है और नवविवाहित जोड़े वहां जाकर शहीदों को धन्यवाद देकर अपना सहजीवन आरंभ करते हैं।
समाज के चरित्र का वास्तविक चित्र इस बात से नजर आता है कि वह महिलाओं के सम्मान की कितनी रक्षा करता है। रामायण और महाभारत इस बात के प्रमुख उदाहरण हैं कि प्राचीन भारत में महिलाओं का सम्मान सर्वोपरि था। आज के सामाजिक परिदृश्य में महिलाएं सड़कों पर असुरक्षित हैं, रोजगार के अवसर असमान हैं और बच्चियों के जन्म के अवसर पर शोक तक मनाया जाता है। हाल के वर्षों में हालात कुछ बेहतर हुए हैं, मसलन राष्ट्रीय रक्षा अकादमी और अग्निवीर योजना के जरिये सशस्त्र बलों की तीनों शाखाओं में महिलाओं की भर्ती, तीन तलाक का अंत, संसद में महिलाओं का आरक्षण आदि। परंतु और कदम उठाने की जरूरत है।
आखिर 2022 तक गणतंत्र दिवस और बीटिंग द रिट्रीट जैसे राष्ट्रीय उत्सव के अवसरों पर स्वतंत्र भारत के सैन्य बैंड ब्रिटिश धुनें क्यों बजाते थे? भारतीय नौसेना के प्रतीक चिह्न में 2022 तक ब्रिटिश साम्राज्य की विरासत क्यों नजर आती रही? लोगों के मन में अपनी विरासत, संस्कृति और युद्ध में जीत आदि से आत्मविश्वास का भाव उत्पन्न होता है।
उपनिवेशवाद की सदियों ने कई भारतीयों के मन में यह भाव भर दिया है कि पश्चिम हमसे श्रेष्ठ है। अपने अतीत की उपलब्धियों के प्रति सराहना का भाव हमें पहचान और गौरव का बोध कराता है। हमें भारतीय मूल्यों और संस्कृतियों की सराहना करनी होगी। हमें अपने नायकों और उनकी वीरता को सराहना होगा। ये बातें हमें विविधता के बीच एकजुट करेंगी। पहचान और सांस्कृतिक मूल्य भी 1.8 करोड़ प्रवासी भारतीयों को नए सिरे से जुड़ाव की भावना पैदा करेगी। वे दुनिया में भारत के दूत हैं।
विश्व गुरु के रूप में भारत की परिकल्पना हमारे राष्ट्रीय चरित्र के विकास से ही पूरी होगी। अमृत काल में यह हमारे एजेंडे की बुनियाद होनी चाहिए। इसी राह पर चलकर भारत का राष्ट्रीय चरित्र तैयार होगा।
(लेखक पूर्व रक्षा सचिव और आईआईटी कानपुर में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)