बात 1990 के दशक के मध्य की है जब तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की जरूरतें पूरी करने के लिहाज से भारत के बंदरगाह (Ports) पर्याप्त क्षमता वाले नहीं माने जाते थे। इसे निराशाजनक तरीके से रसद श्रृंखला (लॉजिस्टिक्स चेन) के लिहाज से भी बाधाकारी ही माना जाता था। वर्ष 1996-97 के केंद्रीय बजट दस्तावेज में भी कहा गया था, ‘बंदरगाहों के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि ये अपनी मौजूदा क्षमता और यातायात की मांग के बीच कोई तालमेल नहीं बना पा रहे हैं।’
31 मार्च, 1997 की स्थिति के अनुसार 21.7 करोड़ टन की कुल क्षमता की तुलना में प्रमुख बंदरगाहों (उन दिनों व्यावहारिक रूप से सभी सरकारी स्वामित्व के अधीन थे) ने 22.7 करोड़ टन का संचालन किया। जहाज के बंदरगाह में प्रवेश करने में देरी के साथ ही माल को लादने उतारने के साथ ही वापसी यात्रा के लिए जहाज को तैयार करने में लगने वाला समय भी स्वीकार योग्य नहीं था।
इसके अलावा जहाजों का संचालन करने वाली कंपनियों (शिपिंग लाइन) ने लगातार सुस्त और अक्षम संचालन के बारे में शिकायत की जबकि आयातकों (importers) और निर्यातकों (exporters) ने क्लियरिंग में अनुचित रूप से लंबा समय लगने पर अपना रोष जताया।
लेकिन, अब अगर 2021 की ओर मुड़ें तो हमें बड़ा बदलाव दिखता है। 1999 में भारत के सभी बंदरगाहों पर कुल यातायात 33.4 करोड़ टन प्रति वर्ष था जिसमें निजी बंदरगाहों की हिस्सेदारी 7.4 प्रतिशत थी। वर्ष 2021 तक सभी बंदरगाहों पर यातायात 125 करोड़ टन प्रति वर्ष (लगभग चार गुना की वृद्धि) था और उल्लेखनीय बात यह है कि निजी बंदरगाहों और टर्मिनलों (घरेलू सुविधाओं सहित) की हिस्सेदारी नाटकीय रूप से बढ़कर 73.2 प्रतिशत हो गई।
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1990 के दशक में जहाज की वापसी में लगने वाला औसत समय (ASTA) लगभग 7.8 दिन था। 2021 तक यह आंकड़ा कम होकर 2.2 दिनों तक रह गया (कुछ विशिष्ट बंदरगाहों में, कार्गो जैसे कंटेनरों में यह आंकड़ा कम होकर 19 घंटे तक हो गया है)। कई अन्य परिचालन दक्षता संकेतकों में भी सुधार नजर आया है जैसे कि प्रति घंटे चलने वाली क्रेन और विलंब शुल्क आदि।
इसे भारत के बुनियादी ढांचे की इस यात्रा में ‘मूक क्रांति’ कहा जा सकता है क्योंकि अधिकांश तौर पर सड़कों, रेलवे, बिजली और हवाईअड्डों पर ही ध्यान केंद्रित होता है। यह अनुमान लगाया गया है कि बंदरगाहों और बंदरगाह से संबंधित सड़क और रेल कनेक्टिविटी में निजी निवेश लगभग 1.6 लाख करोड़ रुपये रहा है और यह पिछले दो दशकों में हवाईअड्डों में निजी निवेश से अधिक हो गया है। सार्वजनिक तौर पर बंदरगाह में निवेश नजर नहीं आता है और इसी कारण से इस तथ्य को अक्सर मान्यता नहीं मिल पाती है।
भारतीय बंदरगाह क्षेत्र में यह बदलाव स्पष्ट रूप से एक ही कारक के कारण हुआ है और वह है कि इस क्षेत्र को निजी पूंजी और निजी उद्यमों के लिए खोला जा रहा है। 1999-2023 की अवधि में बंदरगाह विकास और संचालन में निजी क्षेत्र (घरेलू और विदेशी) की भागीदारी को दर्शाती है और इससे तीन महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
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पहला, उन स्थानों की संख्या 82 है जहां निजी पूंजी लगाई गई है। इसके लिए, भारत सरकार को उन राज्यों को बधाई देने की आवश्यकता है जिनके पास दूरदर्शी समुद्री नीतियां थीं, विशेष रूप से गुजरात। (बंदरगाह संचालन लाइसेंस केंद्र और राज्य दोनों द्वारा जारी किए जा सकते हैं)
दूसरा तथ्य यह है कि 82 परियोजनाओं में से 65 के पारदर्शी रूप से बाहरी ठेकेदारों से बोली की पेशकश करते हुए व्यापक तौर पर भाई-भतीजावाद की लोकप्रिय धारणाओं को नकार दिया गया है। सार्वजनिक रूप से घोषित समुद्री क्षेत्र के नीतिगत ढांचे के तहत 14 समझौता वाली परियोजनाओं की अनुमति दी गई है।
तीसरा, इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों का व्यापक दायरा और उनकी विविधता है। तालिका में उल्लेख किए गए शीर्ष पांच खिलाड़ी काफी मशहूर हैं जबकि बाकी 44 पार्टियां एलऐंडटी (L&T) से लेकर टाटा (TATA) जैसे बड़े निजी उद्योगों और अन्य उल्लेखनीय घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
बंदरगाह आज एक जीवंत बुनियादी ढांचा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां निजी इंटरप्राइजेज द्वारा लाए गए प्रतिस्पर्धी दबावों ने पूरे क्षेत्र के संचालन में काफी सुधार किया है। नवीनतम बंदरगाह नीति के तहत ports ‘लैंडलॉर्ड मॉडल’ की शुरुआत के साथ सरकार के स्वामित्व वाले ‘प्रमुख बंदरगाह’ की परिचालन जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंपी जा रही हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट या JNPT है, जहां बंदरगाहों के लंगर और टर्मिनल का परिचालन निजी कंपनियों द्वारा किया जाता है।
JNPT में निजीकरण के प्रयासों की सफलता ने वेस्टर्न डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर और दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए बड़े पैमाने पर संपर्क निवेश के लिए अनुकूल वातावरण बनाया है। अंडमान में एक जहाज को बदलने वाले बंदरगाह के निर्माण के लिए बोली के माध्यम से इस रणनीतिक स्थान पर निजी पूंजी का एक बड़ा निवेश देखने का मौका मिलेगा।
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इसके माध्यम से रोजगार सृजन की सीमा को मापना मुश्किल है, फिर भी यह पूरी तरह स्पष्ट है। बंदरगाह-आधारित उद्योगों और संबंधित परिवहन और लॉजिस्टिक्स नौकरियां समुद्री तटक्षेत्र में संभावनाएं तैयार कर रही हैं और कई निर्यात-आधारित उद्योगों को भी प्रतिस्पर्धी स्थान मिले हैं।
शिपिंग और लॉजिस्टिक्स क्षेत्र में भारतीय बंदरगाहों की प्रशंसा इस बात को लेकर हो रही है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बीच इसने जहाजों पर से माल उतारने और लादने की बेहतर नीति का प्रदर्शन किया है और कुछ बड़े बंदरगाह बड़ी आसानी से विशाल पैनामैक्स और केपसाइज जहाजों को संभाल रहे हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि निजी पूंजी और निजी उद्यमों के साथ निष्पक्षता बरती जाती है तो वे क्या कुछ नहीं हासिल कर सकते हैं जैसा कि भारत के निजी बंदरगाहों ने प्रदर्शित किया है।
(लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध ट्रस्टी भी हैं)