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नगर निकायों के प्रति बेरुखी का निदान जरूरी

Last Updated- December 15, 2022 | 4:48 PM IST
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बिज़नेस स्टैंडर्ड के एक विश्लेषण में बताया गया है कि नगर निकायों में अपेक्षाकृत कम मतदान दर्ज करने के मामले में दिल्ली अकेला नहीं है। केवल राष्ट्रीय राजधानी में ही नहीं ब​ल्कि देश के कई अन्य शहरों के नगर निकाय चुनावों में भी मतदाताओं ने अपेक्षाकृत कम रुचि दिखाई। जबकि विधानसभा अथवा लोकसभा के चुनावों में मतदाताओं का प्रतिशत अ​धिक रहा है। नगर निकाय चुनावों में मतदाताओं की कम अ​भिरुचि को किसी भी लोकतंत्र में चिंता का विषय माना ही जाना चा​हिए।

इस माह के आरंभ में जिस बात ने इस​ चिंता पर जोर दिया वह था यह खुलासा कि गत 4 दिसंबर को हुए दिल्ली नगर निगम के चुनावों में 250 पार्षदों के निर्वाचन के लिए कुल पात्र मतदाताओं में से केवल आधों ने मतदान किया। यह तादाद 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों तथा उससे एक वर्ष पहले के आम चुनावों की तुलना में 10 फीसदी कम थी। वर्ष 2017 के नगर निगम चुनावों में करीब 53 फीसदी लोगों ने मतदान किया था जबकि 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में 67 फीसदी लोगों ने वोट डाला था।

मुंबई, बेंगलूरु और चेन्नई के नगर निगम चुनावों में भी मतदान का रुझान कमोबेश ऐसा ही रहा और वहां क्रमश: 45 से 48 फीसदी के बीच मतदान हुआ। केवल कोलकाता अपवाद था जहां पिछले नगर निगम चुनावों में 67 फीसदी मतदान हुआ जो कि प​श्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में हुए मतदान से भी अधिक था।

नगर निकाय चुनावों में इतने कम मतदान की क्या वजह हो सकती है? क्या यह इस बात का संकेत है कि मतदाता उदासीन हैं या फिर यह राजनीतिक दलों की अनिच्छा का परिणाम है? या फिर ऐसा इसलिए है कि देश में शासन का ढांचा इस प्रकार का है कि न तो राजनीतिक दल और न ही मतदाताओं में निकाय चुनावों में हिस्सेदारी को लेकर कोई रुचि बची है। कोलकाता का रुझान बाकी जगहों से अलग लग रहा है।

कोलकाता शहर पहले से ही राजनीतिक रूप से अ​धिक सचेत रहा है। इतिहास बताता है कि कोलकाता कई राजनीतिक दलों के लोकप्रिय आंदोलनों का अगुआ रहा है और वहां की जनता ने बहुत बड़े पैमाने पर उनमें हिस्सेदारी की है। ऐसे में कोलकाता के निकाय चुनावों में अच्छा मतप्रतिशत चकित नहीं करता।

​दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरु और चेन्नई जैसे शहरों की कहानी अलग है। इस विश्लेषण में शामिल दो द​क्षिणी शहरों में अनियमित चुनाव भी हुए हैं। हालांकि 1993 में हुए संविधान संशोधन के मुताबिक नगर निकायों समेत सभी स्थानीय निकायों के चुनाव हर पांच वर्ष में होने चाहिए लेकिन बेंगलूरु और चेन्नई ने इसका पालन नहीं किया। निकाय चुनावों में मतदाताओं की रुचि कम होने की यह भी एक वजह हो सकती है। परंतु नगर निकाय चुनावों में मतदाताओं और राजनीतिक दलों की फीकी प्रतिक्रिया की एक और वजह हो सकती है।

इसका संबंध देश के शासन ढांचे से है जिसमें नगर निकायों जैसे स्थानीय शासन को बहुत कम अ​धिकार प्राप्त हैं। यही कारण है कि इस तीसरे स्तर के शासन के पास संसाधन जुटाने के पर्याप्त अधिकार नहीं हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि इनमें से
अ​धिकांश निकाय अपने मौजूदा अ​धिकारों का इस्तेमाल करने के भी बहुत अ​धिक इच्छुक नहीं दिखते ताकि नए संसाधन जुटाकर योजनाओं का वित्त पोषण कर सकें।

इसके दो परिणाम नजर आते हैं। पहला, नगर निकायों के प्रदर्शन पर गहरा असर होता है। अक्सर उनके पास उन तमाम एजेंसियों और संगठनों के कर्मचारियों का वेतन तक देने के लिए पैसे नहीं होते हैं जिनकी मदद से वे प्राथमिक ​शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई जैसी बुनियादी सेवाएं संचालित करते हैं।

दूसरा परिणाम तो और भी बुरा है। ये निकाय राज्य सरकारों द्वारा किए जाने वाले वित्तीय आवंटन पर अ​धिक निर्भर रहने लगते हैं। यदि आवंटन न हो तो ये निकाय अपनी बुनियादी सेवाएं भी नहीं दे पाते। अगर निकाय पर राज्य के सत्ताधारी दल से अलग दल का शासन हो तो वित्तीय परिणाम और भी गंभीर होते हैं।

आश्चर्य नहीं कि ऐसे हालात के कारण शासन की अलग तरह की राजनीति पैदा हुई है। वित्त आयोग अब संसाधनों को सीधे केंद्र से इन नगर निकायों को हस्तां​तरित कर रहे हैं। जाहिर है यह बात राज्यों को पसंद नहीं आ रही है। यहां तक कि केंद्र सरकार भी राज्यों को जो आवंटन कर रही है वह इस शर्त पर कि वह उसे नगर निगमों या अन्य स्थानीय शासन के लिए इस्तेमाल करे।
नि​श्चित तौर पर राजनीतिक दल नगर निगमों के चुनाव इसी बल पर लड़ रहे हैं कि उनमें राज्य या केंद्र सरकार से और अधिक राजस्व जुटाने की क्षमता है या नहीं।

उदाहरण के लिए हाल ही में संपन्न हुए दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी की दलील थी कि उसे अगर उसे मत दिया जाता है तो राज्य सरकार को निगम के कामकाज के संचालन में मदद मिलेगी। भारतीय जनता पार्टी ने भी कहा कि उसे केंद्र की मोदी सरकार से मदद मिल रही है।

यह दुर्भाग्य की बात है कि नगर निकायों को लेकर होने वाली बहस में अब तक एक महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यान नहीं दिया गया है और वह यह कि उनके द्वारा बेहतर शासन की व्यवस्था होनी चाहिए। इस बात पर कोई चर्चा नहीं होती है कि इन निगमों को अपना कर राजस्व दायरा बढ़ाने के लिए कैसे प्रेरित किया जा सकता है और मौजूदा राजस्व संग्रह को अ​धिक किफायती और प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है। एक संबद्ध मसला प्रबंधन ढांचे का भी है जिसका नगर निकाय अनिवार्य तौर पर पालन करते हैं।

नगर निकायों को चलाने के लिए जो पद अहम माने जाते हैं उन पर अक्सर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अ​धिकारी पदस्थ रहते हैं। शासन के वि​भिन्न स्तरों पर प्रशासनिक निरंतरता मुहैया कराने में भले ही यह लाभदायक साबित हुआ हो लेकिन अगर इन निकायों को अपने मुख्य कार्या​धिकारियों को निजी क्षेत्र से चुने जाने की अ​धिक आजादी दी जाए तो उन्हें राजस्व जुटाने के नए स्रोतों पर विचार करने का अ​धिक अवसर मिलेगा।

यदि ऐसा हुआ तो इन निकायों को वित्तीय दृ​ष्टि से अ​धिक स्वायत्त बनाया जा सकेगा। एक बार जब नगर निकाय अपने दम पर अ​धिक संसाधन जुटाना शुरू कर देंगे और लोगों को अ​धिक किफायती सेवाएं देने लगेंगे तो मतदाताओं की मौजूदा बेरुखी भी दूर हो जानी चाहिए। इससे देश में अपेक्षाकृत कमजोर अवस्था वाली तीसरी श्रेणी के शासन को भी कुछ मजबूती हासिल होगी।

First Published - December 15, 2022 | 4:48 PM IST

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