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राष्ट्र की बात: RSS और BJP के बीच मतभेद की वास्तविकता

चुनाव ने मोदी के आलोचकों को दिखाया है कि मोदी को हराया जा सकता है। बहरहाल इसके लिए अगले पांच सालों तक कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी।

Last Updated- June 16, 2024 | 9:06 PM IST
Mohan Bhagwat Birthday

आरएसएस (RSS) और भाजपा (BJP) का इतिहास प्रेमियों के बीच होने वाली नोकझोंक का जैसा रहा है। यह सोचना कि आरएसएस भाजपा के नेतृत्व में कोई बदलाव लाएगा सही नहीं है।

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार के अहंकार को लेकर वक्तव्य देना शुरू किया तो उसके दिमाग में क्या चल रहा था? ऐसी चार घटनाओं में सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा आरएसएस कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के समापन अवसर पर दिया गया भाषण, संघ की कार्यकारी समिति के सदस्य और आरएसएस समर्थित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मुख्य संरक्षक इंद्रेश कुमार द्वारा अहंकार का विशेष जिक्र शामिल है।

कुमार ने कहा कि भगवान राम ने भाजपा को 240 सीट पर सीमित करके उसे उसके अहंकार का दंड दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि रामराज्य के न्याय ने यह भी सुनिश्चित किया कि ‘इंडिया’ गठबंधन उससे भी कम 237 सीट पर सीमित रहे क्योंकि वह राम विरोधी है।

आरएसएस (RSS) के एक बुद्धिजीवी रतन शारदा अक्सर टेलीविजन चैनलों और समाचार पत्रों के पन्नों पर संगठन की विचारधारा और उसका नजरिया रखते हैं। उन्होंने खासतौर पर आलोचना करते हुए कहा कि उसने आरएसएस की आलोचना करने वाले लोगों को पार्टी में जगह देकर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को नुकसान पहुंचाया और कीमत चुकाई।

चौथा है एक लेख जो आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में प्रकाशित हुआ। इसमें महाराष्ट्र में खराब प्रदर्शन के लिए अजित पवार नीत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन को वजह बताया गया। इन चार घटनाओं को देखें तो बीते एक दशक में यह आरएसएस की ओर से भाजपानीत मोदी सरकार की पहली संगठित आलोचना प्रतीत होती है।

भागवत ने तो अपने भाषण में यह तक कहा कि वह विरोधी पक्ष को प्रतिपक्ष कहना पसंद करेंगे। यह बात हमें अगले प्रश्न की ओर लाती है। आरएसएस क्या हासिल करना चाहता है? इसमें वे सभी शामिल हैं जो सत्ता की राजनीति में कुछ हिस्सेदारी रखते हैं या राजनीतिक बहस में जिनकी अपनी एक आवाज है।

सबसे पहले तो यकीनन वह यह देखकर आनंदित होगा कि उदारवादी धड़ा उसके हस्तक्षेप को लेकर कितना प्रसन्न है। वह समुदाय जिसने दशकों तक आरएसएस के विचार से लड़ाई लड़ी है अब उसे उसके प्रमुख की आलोचना में सहारा मिल रहा है। यह बात विडंबनापूर्ण तो है ही, हताशा को भी दर्शाती है। यहां तक कि कांग्रेस में भी कुछ लोगों ने भाजपा को चिढ़ाने के लिए ऐसा किया। आंशिक तौर पर उनका यह भी मानना है कि इससे नरेंद्र मोदी कमजोर होंगे।

भागवत के बयान को उद्धृत करते हुए आलेखों और सोशल मीडिया पोस्ट की बाढ़ आ गई। इनमें कहा गया, ‘हम समझते हैं कि आप (प्रधानमंत्री मोदी) हमारी बात नहीं सुनेंगे लेकिन कम से कम मोहन भागवत को सुनिए।’ चार जून के बाद के इस नए दौर में आरएसएस प्रमुख को मोदी-शाह की भाजपा की तुलना में थोड़ा कम उदार लेकिन अधिक स्वीकार्य माना जा रहा है।

यह हालात का अत्यधिक गलत पाठ है। तथ्य तो यह है कि आरएसएस-भाजपा के रिश्ते ऐसे ही रहे हैं। इनमें कोई उल्लेखनीय बदलाव शायद ही आया हो। यह सोचना कि नागपुर की वजह से भाजपा नेतृत्व में कोई बदलाव लाएगा, इरादे और शक्ति दोनों का गलत पाठ है।

चुनाव ने मोदी के आलोचकों को दिखाया है कि मोदी को हराया जा सकता है। बहरहाल इसके लिए अगले पांच सालों तक कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। एक के बाद एक राज्य के चुनावों में ऐसा करना होगा। ऐसा आंतरिक तख्तापलट से नहीं होगा। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे संकेत मिले कि आरएसएस अपनी ही सरकार को अस्थिर करना चाहता है।

अगर वे गुरु हैं और मौजूदा भाजपा नेतृत्व में उनके शिष्य हैं तो इसे इस तरह देखा कि नाखुश शिक्षक अपने छात्रों को खराब प्रदर्शन के लिए झिड़क रहा है। ऐसा नहीं है कि अतीत में कभी भाजपा और आरएसएस के बीच मतभेद नहीं हुए। हम तीन उदाहरण देखेंगे लेकिन इस बार चुनाव के बाद जो नजर आया है वैसा पहले कभी नहीं हुआ।

मौजूदा भाजपा की स्थापना 1980 में मूल भारतीय जनसंघ से हुई थी। वर्ष 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था लेकिन वह पार्टी टूट गई। तब से हम भाजपा-आरएसएस के रिश्तों को देख रहे हैं। वर्ष 1984, 2004 और 2024 के तीन उदाहरणों पर विचार कीजिए।

पहली बार 1984 में भाजपा की गलती नहीं थी। उस समय पंजाब संकट को लेकर चिंतित आरएसएस इस भावना में आ गया था कि उसे राष्ट्र हित में काम करना चाहिए। संकट के उस दौर में उसने निष्कर्ष निकाला कि भारत भाजपा की हिस्सेदारी वाले किसी गठबंधन की सरकार के बजाय राजीव गांधी के अधीन अधिक सुरक्षित होगा। उस समय राजीव गांधी और सरसंघचालक बालासाहब देवरस के बीच मुलाकात की भी खबरें आई थीं।

मैंने उन चुनावों में कवरेज की थी। खासतौर पर मध्य प्रदेश और दिल्ली में और पाया था कि आरएसएस के कार्यकर्ता न केवल भाजपा के प्रचार से अनुपस्थित थे बल्कि अक्सर वे स्थिरता और राष्ट्रहित के नाम पर कांग्रेस को वोट देने की बात कहते पाए जाते थे।

आरएसएस को भाजपा से कोई शिकायत नहीं थी। बस उसका समय नहीं आया था। सन 1998 में आरएसएस ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा की सरकार बनने का जश्न मनाया था। हालांकि उनका व्यक्तित्व और स्वभाव तत्कालीन सरसंघचालक के एस सुदर्शन से मेल नहीं खाता था और 2003 तक तनाव साफ नजर आने लगा था। 2004 के चुनाव में भी आरएसएस में भी बहुत अधिक रुचि नहीं ली। वाजपेयी और आडवाणी ने चुनाव को तय समय से पांच माह पहले करा लिया था। सरकार मामूली अंतर से वापसी करने में नाकाम रही थी।

सुदर्शन ने अप्रैल 2005 में एनडीटीवी के लिए एक कार्यक्रम में मेरे साथ बातचीत की थी और ऐसी अनेक बातों को रेखांकित किया था। इस साक्षात्कार के लिए सरसंघचालक के कार्यालय से अनुरोध किया गया था। मैंने इसकी मांग नहीं की थी क्योंकि आरएसएस प्रमुख अक्सर साक्षात्कार नहीं देते थे।

वाजपेयी के सत्ता से जाने के बाद सुदर्शन की बातचीत का स्वर लगभग ऐसा था मानो वे कह रहे हों- यह तो होना ही था काश उन्होंने हमारी बात सुन ली होती। इस समय तक आरएसएस ने नरेंद्र मोदी के रूप में एक युवा नेता के उभार को भी चिह्नित कर लिया था जो उसकी विचारधारा में अधिक आस्था रखते थे।

बीस वर्ष और आगे बढ़ें तो 2024 के चुनावों की बात आती है। अब भाजपा यह मानने लगी थी कि उसे बस मोदी के नाम पर प्रचार करना है। आरएसएस को शायद यह लगा कि उसे कुछ किनारे किया गया है। हालांकि कश्मीर में अनुच्छेद 370, राम मंदिर, तीन तलाक का खात्मा आदि कई वैचारिक मामलों में मोदी ने आरएसएस की वैचारिक परियोजनाओं को पूरा किया था। मोदी ने भी भागवत को राम मंदिर के उद्घाटन समारोह में पूरी प्रतिष्ठा दी थी।

विचारधारा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया लेकिन स्वयंसेवक को बस यह अहसास कराया गया कि वह अपरिहार्य नहीं है। भागवत ने पिछले दिनों अपने भाषण में कहा कि आरएसएस ने इस चुनाव में वही किया जो उसने हमेशा किया है: जनता के विचारों को दुरुस्त करना।

परंतु भाजपा ने खुद कहा कि उसे लगता है कि वह अपने दम पर काम कर सकती है और उसे आरएसएस के सहारे की आवश्यकता नहीं है। शायद इसी वजह से दोनों पक्षों में उदासीनता पैदा हुई।

यह चुनाव नतीजों के पहले की बात है। बात कह दी गई और मामला खत्म हो गया। यह सरकार, मोदी और शाह की ताकत दोनों आरएसएस के लिए जरूरी हैं, खासकर तब जबकि वह अपनी 100वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी कर रहा है। यही वजह है कि उसकी बातें शिक्षक की ओर से छात्र को झिड़की के समान है। इससे अधिक कुछ भी सोचना गलत होगा और मोदी के प्रतिपक्ष के लिए खुशफहमी की तरह होगा। इन बातों के बीच ही भागवत गोरखपुर पहुंचे और योगी आदित्यनाथ के साथ उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मजबूत करने के बारे में चर्चा की।

First Published - June 16, 2024 | 8:59 PM IST

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