यह सही है कि इतिहास बनाने में व्यक्तियों के कोई मायने नहीं होते और इसके पीछे बड़ी ताकतें काम करती हैं, जो पूरी प्रक्रिया और उसके परिणामों को निर्धारित करती हैं।
वास्तव में सच्चाई यह है कि यह इस सिध्दांत की मार्क्सवादी व्याख्या है कि हरेक चीज के लिए भगवान जिम्मेदार है। स्पष्ट रूप से रूस का इतिहास कुछ और होता अगर ट्राटस्की ने लेनिन की बात सुनी होती और स्टालिन को इस पद के लिए इजाजत देने की बजाय खुद कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने होते।
उन्होंने भारत में ‘ट्रांसफर और पोस्टिंग’ कहे जाने वाले काम की अनुमति दी। निश्चित रूप से स्टालिन के लिए ट्रांसफर का मतलब था साइबेरिया भेजना और पोस्टिंग का मतलब था ‘स्वर्ग’ भेजना। भारतीय राजनेताओं द्वारा खीझी और थकी हुई भारतीय जनता के सामने अब बहुत बड़ा नाटक किया जा रहा है। मनमोहन सिंह, प्रकाश कारत और सोनिया गांधी को लेकर इतिहास के बारे में जो गलत धारणाएं बनाई जा रही हैं, उन्हें दूर कर ही सारी बात समझ में आ सकती है। जैसे ही कोहरा हटेगा, सभी चीजें साफ हो जाएंगी।
मनमोहन सिंह की कार्यप्रणाली को जो लोग वर्षों से नजदीक से देख रहे हैं वे आपसे कहेंगे कि उन्होंने अगर किसी चीज को दिल से चाहा है तो उसे हासिल भी किया है। उनके सार्वजनिक जीवन में ऐसी एक भी घटना नहीं है, जिससे लगे कि ऐसा नहीं है। भले ही समय लगा हो, लेकिन उन्होंने हासिल किया है। वे आपसे यह भी कहते हैं कि पद और स्थान के बारे में भी वह नहीं सोचते, अगर वह सोच लेते हैं कि उनके उद्देश्यों के लिए जरूरी है तो वह पद ग्रहण कर लेते हैं।
1971 में जब उन्होंने सरकार में पद धारण किया था, तो ज्यादातर लोग यही सोच रहे थे कि उन्होंने गलत परिवर्तन किया है। उन्होंने दिल्ली स्कूल आफ इकनॉमिक्स के प्रोफेसर का पद छोड़कर वाणिज्य मंत्रालय में बहुत ही छोटा पद, डिप्टी इकनॉमिक एडवाइजर का पद धारण किया था। पांच साल के कार्यकाल के बाद वे भारत सरकार के सचिव बने, जो पद कोई अन्य आदमी 35 साल बाद पाता है। उसके सात साल बाद वे रिजर्व बैंक के गवर्नर बन गए।
फिर 9 साल बाद वह वित्तमंत्री बन गए और 1996 में यह पद छोड़ने के मात्र 8 साल बाद वह देश के प्रधानमंत्री बन गए। जरा गौर कीजिए उनकी इस प्रगति पर। मनमोहन सिंह जी, क्षमा करें। यह वैसा ही है, जैसा कि एक स्कूटर सवार रेड लाइट पर सभी लोगों को पीछे छोड़कर आगे निकलता जाता है। यही कारण है कि प्रकाश कारत इस इतिहास का सामना कर रहे हैं और दरअसल कोई भी ऐसा नहीं चाहता। पार्टियों के राजनेता और खासकर सीपीएम और बहुत खास रूप से बंगाली- उनका सम्मान एक जरूरी आपदा के रूप में करते हैं। कुल मिलाकर उनका कोई सम्मान नहीं है।
कारत ने एक चिरपरिचित भूल की है। उन्होंने एक साथ दो मोर्चे खोल दिए हैं। पहला मनमोहन सिंह के साथ और दूसरा बंगाल के सीपीएम समर्थकों के खिलाफ, जो 1977 से ही पार्टी का उसी तरह से सम्मान करते हैं, जैसा गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी की करता है- निजी संपत्ति की तरह। इसमें कोई समानता नहीं है कि ईएमएस नंबूदिरीपाद और कृष्णा अय्यर ने 1980 के दशक में राजनीतिक शुचिता की बात शुरू की थी। इसके परिणामस्वरूप कारत और येचुरी उभरकर सामने आए थे। इसमें भी कोई समानता नहीं है कि उनमें से कोई बंगाली था।
वे बंगाली ही थे, जिन्होंने कारत को महासचिव बनाया। बंगाल बनाम केरल की लड़ाई खुलकर सामने आ गई। लेकिन आज लोग कारत पर क्यों हंस रहे हैं? क्योंकि उन्होंने गलत चाल चली, क्योंकि वह अन्य राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना बने, क्योंकि उनकी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी के पाले में खड़े होकर मतदान करना होगा, क्योंकि इससे लोकसभा अध्यक्ष की मुखालफत हुई, क्योंकि वह सोचते हैं कि अमेरिकी मैत्री की तुलना में नाभिकीय शक्ति से लैस ईरान से, भारत सुरक्षित है, क्योंकि उन्होंने इस बात की अनुमति दी कि लोग उनकी पार्टी को चीन का नौकर समझें, क्योंकि वे कभी चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि वह सोनिया गांधी की तुलना में भी बहुत अक्षम राजनेता हैं।
श्रीमती गांधी से इस समय लोग एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर वह परमाणु समझौते के मुद्दे पर अब तक इतनी खामोश क्यों हैं? इसके बारे में तमाम अटकलबाजियां चल रही हैं। और जैसा कि राजनीति में अक्सर होता है कि जब तक वे इसके बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दे देतीं, तब तक यह चलता रहेगा। इसी के साथ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मनमोहन सिंह के बारे में उनकी दुविधा के बारे में भी गौर किया जाए। अगर कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आती है, तो स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री उसी पार्टी का होगा और ऐसे में वह मनमोहन सिंह को उपेक्षित नहीं कर सकती हैं।
और अगर ऐसा नहीं होता, तो बहरहाल यह मामला ही नहीं उठता। अन्य लोगों की तरह, जो उन्हें हल्के से लेते हैं, श्रीमती गांधी को लेफ्ट की हालत में छोड़ दिया है। दोपहिया चालक को सामने खड़ा कर दिया गया है। बहरहाल सीपीएम की तरह ही, कांग्रेस भी उन पर हंस रही है या यह महसूस कर रही है कि मनमोहन सिंह ने अनपेक्षित बढ़त ले ली है।
हिंदी में कहावत है- चित भी मेरी, पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का।
और भाजपा आप सुन सकते हैं गर्जन के साथ वे किस तरह हंस रहे हैं।