प्रशांत किशोर को रणनीतिकार कहा अवश्य जाता है लेकिन वह खुद को राजनीतिक सलाहकार कहलाना पसंद करते हैं। पिछले दिनों वह हमारे बातचीत पर आधारित शो ‘ऑफ द कफ’ के लिए आए जहां हमारी राजनीतिक रिपोर्टिंग टीम की वरिष्ठ सदस्य नीलम पांडेय ने मेरे साथ उनसे चर्चा की।
हमने उनसे एक ऐसा सवाल किया जो हमेशा हमारे जेहन में रहता है। हमने पूछा कि क्या उनकी कोई विचारधारा है? यह एक स्वाभाविक प्रश्न है क्योंकि वह नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी, कांग्रेस-सपा (उत्तर प्रदेश, 2017), एम के स्टालिन, वाई एस जगनमोहन रेड्डी, अमरिंदर सिंह समेत कई नेताओं के साथ काम कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि वह विचारधारा के स्तर पर नास्तिक नहीं हैं और हम उन्हें वाम-मध्यमार्गी कह सकते हैं। उन्होंने अपनी बात महात्मा गांधी का उदाहरण देकर समझाई। बाद में मैंने देखा कि उन्होंने ट्विटर पर अपने परिचय की शुरुआत इन शब्दों से की है, ‘गांधी का सम्मान करें…।’
वामपंथी रुझान वाला मध्यमार्गी होने के उनके दावे ने हमें सोचने पर विवश कर दिया। यदि आज हम अन्य प्रमुख राजनेताओं से यही प्रश्न करें तो? यदि राहुल गांधी, ममता बनर्जी, आंध्र के जगन मोहन, तमिलनाडु के स्टालिन, तेलंगाना के केसीआर आदि नेताओं से उनकी विचारधारा पूछी जाए और अगर वे जवाब दें तो कमोबेश यही उत्तर मिलेगा। भारतीय राजनीति में अब हर कोई वाम रुझान का दम भरता है। कोई नहीं कहता कि वह दक्षिणपंथी विचारधारा का है।
यहां एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है कि नरेंद्र मोदी का जवाब क्या होगा? जाहिर है हम अनुमान ही लगा रहे हैं कि वह हममें से किसी को यह सीधा सवाल करने देंगे: आपकी विचारधारा क्या है प्रधानमंत्री महोदय? आप उनके प्रशंसक हों या आलोचक, पूरी संभावना है कि आपको लगे कि वह स्वयं को दक्षिणपंथी बताएंगे। बीते सात वर्ष यानी जब से मोदी-शाह की भाजपा सत्ता में आई है, ‘दक्षिणपंथ’ पार्टी तथा उसके पीछे की वैचारिक शक्तियों के लिए व्यापक रूप से स्वीकार्य शब्द है। हमें देखना होगा कि क्या यह बात तथ्यों पर खरी उतरती है। आप तैयार रहिए क्योंकि मैं आपको बताऊंगा कि मोदी और उनकी भाजपा दक्षिणपंथी हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करती। बल्कि यह वाम हिंदुत्व दर्शाती है।
समय के साथ वाम-दक्षिण के भेद में घालमेल हो गया है। शासन के मामले में दक्षिणपंथ का पहला अर्थ है सामाजिक रूढि़वाद, मजबूत धार्मिकता, कट्टर राष्ट्रवाद, आलोचना की कम गुंजाइश और अधिनायकवादी दृष्टि। इन सभी मानकों पर मोदी सरकार और मौजूदा भाजपा दक्षिणपंथी होने पर खरी उतरती है। परंतु हमें सामान्य विरोधाभास में नहीं उलझना है। भाजपा और मोदी अमेरिका के रिपब्लिकन और ब्रिटेन के कंजरवेटिव से अलग नहीं हैं। अब हम विवादित क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं।
हम यह दलील कैसे दे रहे हैं कि मोदी-शाह-योगी की भाजपा विशुद्ध दक्षिणपंथी या हिंदू दक्षिणपंथी नहीं बल्कि वाम हिंदूवादी दल है? मोदी सरकार ने बीते सात से अधिक वर्षों में अर्थव्यवस्था को लेकर जो कदम उठाए हैं उन पर नजर डालिए। ऐतिहासिक संदर्भों के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पिछली भाजपा सरकार पर भी नजर डालिए। उसने सरकार को कारोबार से बाहर रखने और विनिवेश मंत्रालय स्थापित करने की प्रतिबद्धता जताई थी। सन 2014 में जब पार्टी सत्ता में लौटी तो आशा के अनुसार वह मंत्रालय वापस आना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि अब वित्त मंत्रालय के अंतर्गत इसके लिए एक विभाग है जहां एक सचिव नियुक्त हैं।
अब जाकर विनिवेश की बात होने लगी है लेकिन एयर इंडिया के अलावा ज्यादा कुछ हुआ नहीं है। निजीकरण के अन्य मामलों में बस बातें ही हो रही हैं या महज स्वामित्व हस्तांतरण। मसलन एक बड़ी सरकारी कंपनी द्वारा छोटी कंपनी का अधिग्रहण करना और सरकार द्वारा बड़े अंशधारक के रूप में घाटे की भरपाई किया जाना। अक्सर देखने में आता है कि सरकार जिस सरकारी उपक्रम का विनिवेश करना चाहती है उसमें एलआईसी या ओएनजीसी के माध्यम से हिस्सेदारी खरीद लेती है। सरकार को इससे पैसा मिलता है। हमारी शिकायत यह नहीं है कि उक्त राशि भारत की संचित निधि में गुम हो जाती है। यदि आप बाजार अर्थव्यवस्था में यकीन करते हैं तो आपको इस बात को लेकर शिकायत नहीं होगी कि एलआईसी या ओएनजीसी ने अपने मुनाफे से सरकार को लाभांश दिया। परंतु जब सरकार उन्हें अपनी परिसंपत्ति खरीदने पर विवश करती है तो जरूरी नहीं कि ये कंपनियां नीतिगत धारक या अल्पांश हिस्सेदार के हित में काम कर रही हों। हम यह नहीं कह रहे हैं कि वह हमेशा उनके खिलाफ होता है लेकिन तथ्य यही है कि इन कंपनियों के बोर्ड इन गैर सरकारी अंशधारकों के हितों को ध्यान में रखकर ही निर्णय नहीं कर रहे होते। यह वाम की विशेषता है, न कि दक्षिण की।
वाम को बड़ी, महत्त्वाकांक्षी, कल्याण योजनाओं वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए जाना जाता है जिसमें राजस्व के बड़े हिस्से का पुनर्वितरण शामिल होता है। मोदी सरकार भी कमोबेश यही कर रही है। मनरेगा, ग्राम आवास, शौचालय निर्माण, उज्ज्वला योजना, किसानों और गरीबों को प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण से लेकर नि:शुल्क अनाज वितरण तक उसने ऐसा ही किया। क्या आपने ध्यान दिया है कि सरकार के बजट की आलोचना में विपक्ष कितनी खामोशी बरतता है?
मौजूदा सरकार को लेकर अमीर समर्थक होने जैसे कुछ जुमले अवश्य कहे जाते हैं लेकिन इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि व्यक्तिगत स्तर पर लगने वाला कर सुधारों के बाद के दौर में इस समय उच्चतम है। वह लगभग 44 फीसदी है। प्राय: अमीरों के उपभोग की वस्तुओं पर लगने वाला 18 फीसदी जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर इसके अलावा है। वाम दल इसकी सराहना करेंगे। यकीनन वे चाहेंगे कि अमीरों पर और अधिक कर लगाया जाए। आशा है कि वे 97 फीसदी कर नहीं चाहेंगे जो इंदिरा गांधी के समाजवादी चरम दिनों में लगता था और जिसने देश में एक समांतर काली अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी थी।
वामपंथियों को विस्तारवादी बड़ी और माई-बाप सरकार पसंद आती है। मोदी युग में हमारी सरकार के विस्तार पर ध्यान दीजिए। दिल्ली में एक के बाद एक बनते भवनों पर निगाह डालिए जो सरकार के बढ़ते आकार को समायोजित करने के लिए बन रहे हैं। अब नई सेंट्रल विस्टा परियोजना में नए भवनों की गुंजाइश बनेगी। वाजपेयी सरकार के साथ तुलना करें तो उन्होंने दिल्ली के केंद्र में स्थित घाटे में चल रहे लोधी होटल को बेचने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी। होटल जनपथ उससे भी बड़ा सरकारी उपक्रम था जिसे बेचने के बजाय कई सरकारी कार्यालयों में बदल दिया गया है। अशोक होटल के बगल में स्थित सम्राट होटल को बहुत पहले सरकारी भवन में बदल दिया गया था। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि नए लोकपाल (क्या आपको याद भी है कि हमारे यहां एक लोकपाल नियुक्त किया गया था) को भी इसकी एक मंजिल का आधा हिस्सा मिला है। हमारे कर एक पीढ़ी में सर्वोच्च स्तर पर हैं, हमारी सरकार दो पीढिय़ों में सबसे अधिक आकार की है और आकार कम होने का नाम नहीं ले रहा। हम अपनी कंपनियों का निजीकरण अक्सर एक सरकारी कंपनी को दूसरी के हाथों सौंपकर कर रहे हैं। अब हमारी सरकार यह तय कर रही है कि पूरा देश कोविड का कौन सा टीका लेगा, बूस्टर खुराक दी जाए या नहीं और भारत में क्या बेचा जा सकता है। वास्तविक रूप से मुक्त बाजार में कोवैक्सीन, कोविशील्ड, स्पूतनिक, फाइजर और मॉडर्ना के टीकों की दुकानें और खरीदार होते।
कार बाजार में उपभोक्ता मारुति या मर्सिडीज का चयन कर सकते हैं लेकिन वे अपने लिए पसंदीदा टीका नहीं चुन सकते। क्यों? इसलिए कि हमारी सरकार दरअसल माई-बाप सरकार है। यह आर्थिक मामलों में दक्षिणपंथी सरकार नहीं है। दक्षिणपंथ केवल धर्म और राष्ट्रवाद के क्षेत्रों तक सीमित है। सरकार का शेष हिस्सा उतना ही वाम रुझान वाला है जितनी कि कांग्रेस या कोई अन्य राजनीतिक दल। यही वजह है कि हम मोदी-भाजपा की विचारधारा को हिंदू वाम विचार कहते हैं।
