भारतीय सिनेमा के रुपहले पर्दे पर एक नई कहानी का आगाज होने जा रहा है। लेकिन पहले बात करते हैं 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों की जब करण जौहर जो महाराष्ट्र राज्य बोर्ड की परीक्षा में वाणिज्य विषय में अव्वल रहे और उन्हें जमनालाल बजाज इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज में एमबीए की सीट की पेशकश की गई।
चूंकि वह पहले से ही फ्रांस से स्नातकोत्तर के समान एक डिग्री हासिल कर चुके थे इसलिए उन्होंने पेरिस जाने का फैसला किया क्योंकि उनका इरादा फ्रेंच भाषा में एक अन्य कोर्स करने का था। हालांकि दक्षिण मुंबई के रहने वाले जौहर की दिलचस्पी हिंदी फिल्मों में काफी पहले से थी। उन दिनों उनके बचपन के दोस्त आदित्य चोपड़ा अपनी पहली फिल्म लिख रहे थे और जौहर इस फिल्म को लिखने में उनकी मदद भी कर रहे थे।
पेरिस जाने के ठीक तीन दिन पहले चोपड़ा ने उनसे बात की और कहा, ‘तुम फिल्मों के लिए ही बने हो। एक दिन तुम फिल्मकार बनोगे।’ इसके बाद उन्होंने जौहर से गुजारिश की कि वे उनकी फिल्म में उनका सहयोग करें। ये बातें जौहर ने अपनी आत्मकथा ‘एन अनसूटेबल बॉय’ में लिखी हैं जिसे पेंगुइन प्रकाशन ने 2017 में प्रकाशित किया था।
‘शोले’ फिल्म के बाद भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे बड़ी सफलता पाने वाली फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ (1995) बनी और यह एक कल्ट क्लासिक फिल्म साबित होने के साथ ही 25 वर्षों से अधिक समय तक सिनेमाघरों में चलती रही।
सूरज बड़जात्या की फिल्म, ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) के साथ ही ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ ने भारतीय फिल्मों के लिए विदेशी बाजार के दरवाजे खोल दिए। चोपड़ा, जौहर और बड़जात्या पहले ऐसे फिल्मकार बने जिन्होंने1990 के दशक के शुरुआती दौर में भारत में उदारवाद के आगमन के साथ ही दर्शकों की बदलती पसंद को समझते हुए नए प्रयोग करने शुरू किए।
पिछले महीने भी जौहर ने अपने प्रोडक्शन हाउस को लेकर एक अहम फैसला किया जो काफी समय से लंबित था और इस तरह एक नए रुझान की शुरुआत के संकेत मिलने शुरू हुए। जौहर अब 52 वर्ष के हो चुके हैं और वह धर्मा प्रोडक्शंस में अपनी आधी हिस्सेदारी बेचेंगे जिसमें वह एग्जीक्यूटिव चेयरपर्सन भी हैं। वह अदार पूनावाला की सेरेन प्रोडक्शंस को 1,000 करोड़ रुपये में धर्मा प्रोडक्शंस की अपनी आधी हिस्सेदारी बेच देंगे।
धर्मा पहली ऐसी घरेलू प्रोडक्शन कंपनी बन गई है जो बाहरी पूंजी लेगी और उम्मीद है कि ऐसे और रुझान जल्द ही देखने को मिलेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक रितेश सिद्धवानी और फरहान अख्तर (डॉन, दिल चाहता है, गली बॉय) के स्वामित्व वाली कंपनी एक्सेल एंटरटेनमेंट भी कॉमकास्ट के यूनिवर्सल स्टूडियोज के साथ एक करार के माध्यम से फंड जुटा सकती है।
यहां से यह कहानी नए भविष्य की तरफ इशारा करती है। धर्मा की स्थापना 1976 में जौहर के पिता ने की थी और इस प्रोडक्शंस की कुछ फिल्में हिट भी रहीं जैसे कि ‘दोस्ताना’ (1980) लेकिन यह कंपनी बड़ी लीग में शामिल नहीं हो पाई। जौहर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘कुछ कुछ होता है’ के साथ ही इस प्रोडक्शन कंपनी के दिन बहुरे।
इसके साथ ही जौहर का कद भारतीय सिनेमा में प्रभावशाली होता गया और वह फिल्मकार के साथ-साथ एक मॉडल और बतौर टीवी होस्ट (कॉफी विद करण) भी काफी सुर्खियां पाने लगे। धर्मा ने ही प्रतिभाशाली युवा निर्देशकों जैसे कि शकुन बत्रा और आयान मुखर्जी को भी उभरने का भरपूर मौका दिया है। इस प्रोडक्शंस हाउस के खाते में कल हो ना हो (2003), कपूर ऐंड संस (2016), टू स्टेट्स (2014), और शेरशाह (2021) सहित 45 फिल्में हैं।
हालांकि इस कंपनी की वृद्धि बेहद अस्थिर रही है। धर्मा ने वित्त वर्ष 2022 में 278 करोड़ रुपये का राजस्व हासिल किया जो वित्त वर्ष 2023 में बढ़कर 1,044 करोड़ रुपये हो गया लेकिन फिर इस वर्ष यह कम होकर 520 करोड़ रुपये हो गया। यह वास्तव में भारत के किसी एक व्यक्ति या किसी एक महिला द्वारा संचालित प्रोडक्शन कंपनियों की हकीकत है।
वहीं दूसरी ओर यशराज फिल्म्स, टी-सीरीज और एक्सेल एंटरटेनमेंट का काम गुणवत्ता वाला है और इन प्रोडक्शन हाउस ने बेहद सफल फिल्में और ओटीटी शो दिए हैं लेकिन इनके लिए भी सतत विकास को बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण है। अगर आप जियो स्टूडियोज जैसे बड़ी कंपनी का हिस्सा नहीं हैं तब फिल्म कारोबार में हिट और फ्लॉप की स्वाभाविक प्रक्रिया के चलते वृद्धि की रफ्तार को स्थिर रखना असंभव है। इसकी वजह यह भी है बाजार में बदलाव आ रहा है।
आलम यह है कि इन दिनों फिल्में (कुल कमाईः 19,700 करोड़ रुपये), स्ट्रीमिंग (31,000 करोड़ रुपये) और टेलीविजन (70,000 करोड़ रुपये) के दर्शकों की तादाद बढ़ रही है। हालांकि कंपनियों के बीच विलय आदि की वजह से पेशेवर तरीके से तैयार किए गए शो और सीरीज के लिए खरीदारों की संख्या कम हो गई है। बड़े खरीदारों में पीवीआर-आईनॉक्स, रिलायंस-डिज्नी, नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम वीडियो शामिल हैं। अन्य बड़े खिलाड़ियों में यूट्यूब और मेटा हैं जिन्हें प्रोडक्शन हाउस की जरूरत ही नहीं है बल्कि वे उपयोगकर्ताओं द्वारा तैयार सामग्री के अरबों घंटे का इस्तेमाल करते हैं।
खरीद के लिए कम खिलाड़ियों के रहने का अर्थ यह है कि लागत, रचनात्मक स्वतंत्रता पर दबाव पड़ेगा और साथ ही फिल्में या शो बेचने के लिए विकल्पों की कमी होगी। इसी वजह से पैमाना बड़ा होना महत्त्वपूर्ण है। यह इस कारोबार की अनिश्चितता में बचाव का काम करता है। इसके साथ ही यह प्रोडक्शन कंपनी भी मोल-तोल करने की बेहतर स्थिति में होती है। लेकिन रचनात्मक कारोबार को बढ़ाना वैश्विक स्तर पर मुश्किल है और इसके लिए पैसा जुटाना भी आसान नहीं है।
पूनावाला जैसे रणनीतिक निवेशक न केवल पूंजी लाते हैं बल्कि वे रचनात्मक स्वतंत्रता भी देते हैं। वास्तव में भारतीय सिनेमा को उनके जैसे निवेशकों की जरूरत है।
पुराने दौर में जब राजा और रानी का शासन होता था तब प्रदर्शन वाली कलाओं और उनके कलाकारों के संरक्षण का महत्त्व हुआ करता था। लेकिन वक्त के साथ-साथ इसमें भी बदलाव आता गया। एक वक्त ऐसा भी था जब भारतीय फिल्म कारोबार में सक्षम स्टूडियो तंत्र हुआ करता था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह खत्म हो गया।
उसके बाद से ही फिल्मकारों को फंडिंग के बेहतर स्रोत के लिए संघर्ष करना पड़ा। जहां तक समानांतर सिनेमा की बात है, उसे राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम जैसे संस्थानों और मनमोहन शेट्टी जैसे लोगों का संरक्षण मिला। एडलैब्स के संस्थापक शेट्टी ने चक्र (1981), अर्द्ध सत्य (1983) और हिप-हिप हुर्रे (1984) जैसी फिल्में बनाकर समानांतर सिनेमा का समर्थन किया। बाकी लोगों ने बिल्डरों और कारोबारियों से मदद लेना शुरू किया। 1980 के खराब दौर के समय सिनेमा कारोबार में अंडरवर्ल्ड का पैसा भी आया।
वर्ष 2000 में फिल्मों को उद्योग का दर्जा मिलने के बाद इन चीजों में काफी बदलाव आया। सार्वजनिक सूचीबद्धता (एडलैब्स, बालाजी, मुक्ता), प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल या बैंकों के जरिये पैसे जुटाना संभव हो गया। वर्ष 2008 के बाद विदेशी स्टूडियो मसलन फॉक्स, इरोस और डिज्नी ने भारत में कदम रखा।
वहीं दूसरी ओर फिल्म उद्योग के रिटेल कारोबार (मल्टीप्लेक्स) में भी पूंजी निवेश हुआ और इसमें वृद्धि देखी गई। लेकिन सामग्री में निवेश करने वाली पूंजी को संघर्ष करना पड़ा क्योंकि कारोबार नया था। लेकिन इस चरण के चलते ही ऐसी व्यवस्था बनी कि प्रोडक्शन हाउस 2016 के बाद के दौर में ओटीटी के उभार के लिए तैयार दिखे।
पूंजी जुटाने का यह दौर, वृद्धि की संभावनाओं को लिए अच्छा संकेत है ताकि इस उद्योग के कारोबार की चुनौतियों का प्रबंधन किया जा सके। ऐसा भी हो सकता है कि आधा दर्जन प्रोडक्शन हाउस को एक प्राइवेट इक्विटी समर्थित एग्रीगेटर कंपनी में बदलने की बात हो। डिज्नी के दिग्गज केविन मेयर द्वारा स्थापित और संचालित ब्लैकस्टोन समर्थित लॉस एंजलिस की कंपनी कैडल मीडिया भी ऐसा करती है।
पूनावाला जैसे निवेशक भी समान तरीके से एक्सेल और रॉय-कपूर फिल्म्स से लेकर अपलॉज और अर्का मीडिया वर्क्स को एक साथ मिलाने की कोशिश कर सकते हैं और इसका दायरा बढ़ने पर छोटी प्रोडक्शन कंपनियों को मोल-भाव करने की ताकत मिल सकती है।