नब्बे के दशक की शुरुआत में एक जानमाने मुख्य कार्याधिकारी, जो मार्केटिंग के तौर तरीकों से बहुत अधिक परिचित नहीं थे, ने एक प्रेस विज्ञापन के बारे में एजेंसी के साथ चर्चा के दौरान सरल भाव से कहा, ‘आइए, सबसे पहले हम अपने ब्रांड के बारे में उन बिंदुओं की पहचान करते हैं, जिन्हें हम विज्ञापन के जरिए बताना चाहते हैं।
उसके बाद उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदु का चयन हेडलाइन के तौर पर कीजिए और बाकी बातें विज्ञापन की बॉडी में लिखिए।’ उनके इस बयान से भोलापन और अपरिपक्वता झलकती है। फिलिप कोटलर, अल रईस और जैक थ्रोट द्वारा बताए गए मार्केटिंग और विज्ञापन के शास्त्रीय सिद्धांत, जिन्हें पढ़ते हुए हम बड़े हुए हैं, उनमें कहा गया है कि ब्रांड और विज्ञापन को किसी एक बिंदु पर ही फोकस करना चाहिए।
जब हमने उन सीईओ महोदय को इस बारे में बताया तो उन्होंने मजाक के लहजे में कहा कि ‘विज्ञापन के जुड़े हुए आलसी लोगों ने एकल सोच की बात फैलाई है। उपभोक्ता कई फायदों के लिए खरीदारी करता है और हमें चाहिए कि विज्ञापन उन्हें इस बारे में जानकारी दे।’ चूंकि वे हमारे ग्राहक थे, इसलिए हमने उनकी बात मान ली और हमने एक ब्रांड तैयार किया, जो आज भारतीय बाजार में मजबूती के साथ पैर जमा चुका है।
भारत में उदारीकरण की शुरुआत के करीब 15 वर्षों और इस देश में वैश्विक ब्रांडों के प्रवेश के बाद से किताबों में कई मार्केटिंग सिद्धांत प्रकाशित हो चुके हैं और अब प्रबंधन स्कूलों में इस बात की शिक्षा देने का वक्त आ गया है कि भारत जैसे देश में हमें अलग नजरिए के साथ प्रवेश करना चाहिए।
क्या यह बाजार के विकासक्रम से जुड़ा हुआ मसला है या फिर यह सांस्कृतिक विभिन्नता को प्रतिबिंबित करता है, जिसे अब स्वीकार करने और उस पर विचार करने की जरूरत है। क्या संस्कृति से तटस्थ रहते हुए मार्केटिंग और मार्केटिंग सिद्धांत संभव हैं या क्या यह मार्केटिंग का नया दृष्टि दोष है?
पश्चिमी देशों के मार्केटिंग गुरुओं ने इस विश्वास के आधार पर अपने सिद्धांत तैयार किए कि उपभोक्ता का व्यवहार एक समान रहता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे किस जगह से ताल्लुक रखते हैं। आखिरकार उपभोक्ताओं की जरूरतें, उनकी चाहत और इच्छाएं एक समान होती हैं और मानवीय प्रेरणाएं एक सी ही होती हैं। इसलिए दुनिया भर में उपभोक्ताओं के लिए मार्केटिंग रणनीतियां अलग-अलग क्यों हों?
लेकिन जरा इस बात पर गौर कीजिए। विख्यात समाजशास्त्री पॉल हैरिस कहते हैं कि ‘उपभोक्ता वैश्विक हो सकते हैं, इंसान नहीं।’ ब्रांड सिर्फ उपभोक्ताओं के दिमाग में नहीं तैयार किए जाते हैं बल्कि यह लोगों के दिलो-दिमाग में भी तैयार होते हैं। और लोगों को परिभाषित करने का एक महत्त्वपूर्ण कारक संस्कृति है।
कार्ल यंग ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहा है कि संस्कृति सामूहिक बेहोशी है, जो शताब्दियों के दौरान तैयार होती है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उत्तराधिकार के रूप में सौंप दी जाती है। संस्कृति हमें बताती है कि लोगों का एक समूह किस तरह से सोचता है और उसका व्यवहार कैसा है।
जब हम एक देश से दूसरे देश की ओर जाते हैं तो इसका अर्थ है कि हम एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति का रुख कर रहे हैं। यहां तक कि हम आप भारत में उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं तो इसका मतलब है कि आप एक जैसा व्यवहार करने वाले लोगों से दूसरी तरह का व्यवहार करने वाले लोगों की ओर जा रहे हैं।
ग्रेट होफस्टेड ने अपने एक उल्लेखनीय शोध में संस्कृति के पांच आयामों को परिभाषित किया है- सत्ता अंतर, व्यक्तिवाद, पुरुषार्थ, अनिश्चितता और दीर्घकालिक उन्मुखीकरण। उन्होंने इन मानकों पर विभिन्न देशों और धर्मों का मूल्यांकन किया। सत्ता अंतर में भारत को 80 अंक मिले जबकि अमेरिका का स्कोर केवल 40 था। सत्ता अंतर का अर्थ है कि समाज के सबसे कम शक्तिशाली तबके को लगता है कि सत्ता का बंटवारा किस रूप में हुआ है।
व्यक्तिवाद में भारत का स्कोर केवल 40 था जबकि अमेरिका को 90 अंक मिल गए। स्पष्ट है कि भारत आपस में जुड़ा हुआ लेकिन असमान सजाम है जबकि अमेरिका में समानता अधिक है लेकिन वहां व्यक्तिवाद का फैलाव है। अनिश्चितता के पैमाने पर ईसाइयों को 80 अंक मिले जबकि हिंदू 38 अंकों के साथ जोखिमों को लेकर काफी सहज रहते हैं। सत्ता अंतर के लिहाज से हिंदुओं का सबसे अधिक 75 अंक मिले जबकि 30 अंकों के साथ ईसाइयों में अधिक समानता है। ये सभी तथ्य मार्केटिंग और उपभोक्ता व्यवहार को किस तरह से प्रभावित करते हैं।
डेविड ओगिल्वे ने कई साल पहले बताया था कि लोकप्रियता कभी भी एक प्रतिस्थापन का आधार नहीं हो सकती है। वह आगे कहते हैं कि एक व्यक्ति इसलिए किसी उत्पाद को नहीं खरीदता है क्योंकि उसे दूसरे पसंद करते हैं। एक व्यक्तिवादी संस्कृति में यह बात काफी हद तक सच है। लेकिन हो सकता है कि हमारे जैसे समूहवादी समाज में यह बात पूरी तरह से खरी न उतरे। एक स्तर पर संख्या धारणा बनाने में मदद करती है – क्योंकि बड़ी संख्या में लोग इसे पसंद करते हैं, इसलिए अमुक वस्तु निश्चित तौर से अच्छी होगी।
दूसरे स्तर पर लोकप्रियता जुड़ाव पैदा करने और समग्रता में भी मदद करती है और इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत जैसे समाज में किसी उत्पाद की लोकप्रियता का काम करती है। लंबी कतारों में खड़े होना ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं होगा, लेकिन ऐसे दृश्यों वाले कई विज्ञापन इसलिए काम कर जाते हैं क्योंकि वे यह दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में लोग इस उत्पाद का इस्तेमाल कर रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि उत्पाद को बड़ी संख्या में लोग स्वीकार कर रहे हैं और इसलिए यह सभी के लिए अच्छा है।
समानता और सहजता की संस्कृति पर आधारित मार्केटिंग के साथ भी ऐसा ही है। यह एक ऐसा लोकतांत्रिक ब्रांड है जो कार्यात्मक और भावनात्मक रूप से सभी सामाजिक और आर्थिक वर्गों की जरूरतों को पूरा करता है। इस तरह ब्रांड सांस्कृतिक आर्थिक जनसांख्यिकी के साथ आसानी से श्रेणीबद्ध हो सकते हैं।
विभिन्न मनोवैज्ञानिक समूहों के कारण ऐसे बाजारों में कई ब्रांड एक साथ अस्तित्व कायम रख पाते हैं। हालांकि भारत जैसे वर्ग आधारित देश में विभिन्न आर्थिक समूहों के बीच बहुमत से लोगों की सोच तैयार होती है। इसका तात्पर्य है कि जब कोई ब्रांड समाज के निचले तबके तक पहुंचता है तो अचानक ही उच्च वर्ग के साथ उसकी दूरी बढ़ जाती है।
सांस्कृतिक विभिन्नता का तीसरा रोचक आयाम है कि कैसे किसी एक ब्रांड के प्रति वफादारी तैयार होती है। रिचर्ड नेसटिब ने अपनी पुस्तक ‘जियोग्राफी ऑफ थॉट’ में पूर्वी संस्कृति की बुनियादी अविश्वास की प्रकृति की चर्चा की है। किसी भी कारोबारी लेनदेन के दौरान विश्वास और सम्मान हासिल करना सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है।
पश्चिमी मार्केटिंग सिद्धान्त ब्रांड वफादारी तैयार करने के लिए प्यार और चाहत तैयार करने की जरूरत में विश्वास रखते हैं। ब्रांड वफादारी का पता लगाने का सबसे सही तरीका यह है कि किसी ब्रांड को हासिल करने के लिए आप किस हद तक जा सकते हैं। भारत में ब्रांड के प्रति वफादारी का अर्थ है कि ब्रांड के नाम से किसी दूसरे उत्पाद को खरीदा जा सकता है।
भरोसे से ही ब्रांड के प्रति वफादारी तैयार होती है। भारत में टाटा, बिड़ला और रिलायंस भरोसे के आधार पर विनिर्मित वस्तुओं से लेकर वित्तीय सेवाओं और सॉफ्टवेयर तक कई तरह के उत्पाद बेच रहे हैं। भारत में मार्केटिंग से जुड़े हुए ज्यादातर लोग भारतीय हैं और इसलिए वे अनायास ही भारतीय जरूरतों के लिए पश्चिमी सिद्धांतों को अपना लेते हैं।
हालांकि अब मार्केटिंग गुरूओं चाहिए कि वे पश्चिम में विकसित मार्केटिंग और ब्रांडिंग के के मॉडलों का पुनर्मूल्यांकन करें और इसे सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील बनाने की दिशा में पहल की जाए। आखिकार मानवीय व्यवहार को संस्कृतियों के जरिए ही परिभाषित किया जाता है, और इसलिए ब्रांड (जो उत्पाद और व्यक्ति के संबंधों पर आधारित है) इससे अछूता नहीं रह सकता है।
(मधुकर सबनवीस डिस्कवरी ऐंड प्लानिंग, ओगिल्वी एंड मैथर के भारत में कंट्री हेड हैं)