कारोबारी कंपनियों के बीच करार में मध्यस्थता की जो शर्तें रखी जाती हैं, उनसे अक्सर कोई न कोई विवाद उठ खड़ा होता है। ऐसे में न्यायाधीशों को शर्तों की व्याख्या करनी पड़ती है।
हालांकि इन शर्तों का जिक्र करने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, वह कानून के विशेषज्ञ खुद तैयार करते हैं, पर कई दफा इसके बाद भी स्थिति स्पष्ट नहीं होने की स्थिति में मामले को अदालत में ले जाना पड़ता है।
अगर इन दोनों पक्षों में कोई भी पक्ष सरकारी संगठन या निगम हो तो ऐसे में दूसरे पक्ष के पास कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है। दूसरे पक्ष को चाहे सही हो या गलत, हर शर्त के लिए तैयार होना पड़ता है। एक शर्त, जिसके सही नहीं होने के बावजूद उसे सरकारी, सार्वजनिक इकाइयां और निगम अक्सर थोपने की कोशिश करते हैं, वह मध्यस्थ के चयन को लेकर है।
सार्वजनिक इकाइयों की ओर से यह दबाव होता है कि किसी विवाद को सुलझाने के लिए कार्यरत अधिकारी की सहायता ली जाए। ऐसे ही एक मामले में एक सार्वजनिक संगठन ने एक सेवानिवृत्त अधिकारी को मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए जोर दिया था। इस मामले में दूसरे पक्ष के पास विकल्प ही नहीं बचा था।
हाल के हफ्तों में उच्चतम न्यायालय ने दो मामलों में जो फैसले सुनाए हैं, उनमें भी मध्यस्थ कार्यरत अधिकारी ही थे। अदालत ने इस प्रणाली में बदलाव लाने का आदेश दिया। इनमें से एक यूनियन ऑफ इंडिया बनाम सिंह बिल्डर्स सिंडिकेट का मामला था।
इस मामले में अदालत ने फैसला सुनाया, ‘अगर किसी विवाद की स्थिति में एक पक्ष के अधिकारी को विवाद सुलझाने के लिए मध्यस्थ नियुक्त किया जाता है तो ऐसे में दूसरे पक्ष की ओर से जबरदस्त विरोध उठता है। यह खुद में विवाद का एक मसला है। मध्यस्थता एवं सुलह कानून में स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर जोर दिया गया है।
इसे ध्यान में रखते हुए सरकार और सरकारी कंपनियों को किसी विवाद के निपटारे के लिए किसी एक पक्ष के अधिकारी को मध्यस्थ बनाने से बचना चाहिए। मध्यस्थ की नियुक्ति में भी पेशेवर रवैये को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए।’
जब कभी किसी निजी पार्टी से करार पर हस्ताक्षर करने होते हैं तो सरकारी निगम आमतौर पर करार की आम शर्तों का ही जिक्र करते हैं। ऐसे मामले में मध्यस्थता क्लॉज में यही कहा गया है कि किसी भी विवाद की स्थिति में मध्यस्थता किन्हीं दो राजपत्रित अधिकारियों के जरिए की जाएगी।
इनमें से एक अधिकारी का चयन सरकारी उपक्रम के जरिए किया जाएगा, दूसरे अधिकारी का चयन निजी कॉन्ट्रैक्टर के अधिकारियों का पैनल करेगा और फिर ये दो अधिकारी एक अंपायर का चुनाव करेंगे। जब नौकरशाहों को अनिवार्य तौर पर खुद के मामलों में विवाद के निपटारे के लिए मध्यस्थ के तौर पर नियुक्त किया जाता है तो नतीजा क्या होता है, इसे इस मामले और इससे जुड़े दूसरे मामलों में साफ देखा जा सकता है।
इस मामले में विवाद 1999 में पैदा हुआ था। पर रेलवे ने काफी समय तक कोई मध्यस्थ का नाम ही नहीं सुझाया। ऐसे में कॉन्ट्रैक्टर को दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। अदालत ने 2002 में एक अधिकारी को मध्यस्थ नियुक्त किया। पर कुछ समय बाद उसे किसी दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया गया।
एक बार फिर काफी लंबे समय तक कोई मध्यस्थ नियुक्त नहीं किया गया। इसे देखते हुए कॉन्ट्रैक्टर ने एक बार फिर से उच्च न्यायालय में अपील की। एक बार फिर से नए पैनल का चयन किया गया। एक बार की सुनवाई के बाद इस अधिकारी को भी दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया गया। यह प्रक्रिया आगे भी तीन बार और दुहराई गई।
जिस समय जो अधिकारी उस जगह पर कार्यरत होता था उसे मध्यस्थ नियुक्त कर दिया जाता था और उसके वहां से स्थानांतरण के बाद फिर से मध्यस्थ की जगह भी खाली हो जाती थी। बार बार ऐसा होने से अदालत का भी संदेह बढ़ने लगा। अदालत ने भी जो प्रयास किए उसका भी कोई नतीजा नहीं निकलने से उच्च न्यायालय का धैर्य भी जवाब देने लगा था।
तो अदालत ने खुद आगे बढ़ते हुए सेवानिवृत्त न्यायाधीश को मध्यस्थ नियुक्त किया। सरकार इस मामले को उच्चतम न्यायालय ले गई। सरकार का कहना था कि मध्यस्थता क्लॉज को ध्यान में रखते हुए ऐसा नहीं किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने इस दलील को खारिज कर दिया और सेवानिवृत्त न्यायाधीश को विवाद निपटारे की प्रक्रिया जारी रखने का आदेश दिया।
कैलाश स्टोर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त रजिस्ट्रार को मध्यस्थ नियुक्त किया। यह तब किया गया जब सरकार अपनी ओर से किसी अधिकारी का नाम सामने नहीं कर सकी।
वहीं गोदावरी मराठवाडा सिंचाई विकास निगम बनाम पावर ऐंड कॉरपोरेशन के मामले में सार्वजनिक प्राधिकरण ने एक सेवानिवृत्त अभियंता को मध्यस्थ नियुक्त करने के लिए जोर दिया था। जबकि, करार में कहा गया था कि किसी कार्यरत पर्यवेक्षक अभियंता को ही मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने निगम को एक कार्यरत अधिकारी का नाम सुझाने का आदेश दिया।
वर्ष 2007 में बीएसएनएल बनाम मोटोरोला इंडिया का एक मामला आया था जिसमें मध्यस्थ को लेकर काफी विवाद उठा था। यहां उच्चतम न्यायालय ने बीएसएनएल की अपील को खारिज करते हुए कहा था, ‘मध्यस्थ की किसी नियुक्ति को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह एक सरकारी अधिकारी है।
या फिर इस बात पर भी नियुक्ति को लेकर आपत्ति नहीं जताई जा सकती है कि मध्यस्थ जिस मामले में फैसला सुनाएगा, सरकारी अधिकारी के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान उसने विवाद से जुड़े किसी मामले में विचार रखे थे।’ सिंह बिल्डर्स मामले में दिए गए फैसले ने नौकरशाहों के बढ़ते दखल को रोकने में मदद पहुंचाई है।
मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार है कि जब कभी उन्हें लगता है कि किसी मामले में किसी पक्ष के साथ कोई भेदभाव हो रहा है तो वह खुद मध्यस्थ नियुक्त कर सके। अदालत ने यह भी कहा कि जहां तक संभव हो सके करार की शर्तों का पालन किया जाना चाहिए।
हालांकि जब कभी मनोनीत व्यक्ति को लेकर संदेह हो और अगर पैनल ठीक तरीके से काम नहीं कर रहा हो तो मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार है कि वह वैकल्पिक इंतजाम कर सके। अगर किसी पक्ष की ओर से कोई व्यवधान उत्पन्न किया जा रहा हो तो मुख्य न्यायाधीश को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
