विवेक अग्निहोत्री की ताजा फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ जो संदेश देना चाहती है वह बुनियादी रूप से सही है। इसमें दो राय नहीं कि नवंबर 1989 और मई 1990 के बीच इस्लामिक चरमपंथियों ने कश्मीर घाटी के लगभग सभी हिंदू रहवासियों, खासतौर पर कश्मीरी पंडितों को वहां से जबरन बाहर निकलने पर विवश किया यह एक तरह का जातीय सफाया था।
कई लोग मारे गए और इसकी शुरुआत सितंबर 1989 में बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता और वकील टीका लाल टपलू की हत्या से हुई। स्थानीय उर्दू अखबारों में गुमनाम विज्ञापन छापे गए जिनमें हिंदुओं से घाटी छोडऩे को कहा गया। यह वह हकीकत है जो भारतीयों की दो युवा हुई पीढिय़ों को जाननी चाहिए।
इतिहासकार, कहानीकार, फिल्मकार आदि सबको इसमें अपना-अपना सच मिलेगा। एक ध्रुवीकृत और सदमे वाले माहौल में वे उन चीजों पर केंद्रित रहेंगे जो उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। यह हास्यास्पद और दुखद है कि कश्मीर फाइल्स से जुड़ी बहस ऐसे सवालों में उलझ गई है कि वास्तव में कितने कश्मीरी पंडित मारे गए? इनकी तादाद कितनी थी, सैकड़ों, हजारों या लाखों? क्या यह जातीय सफाया था, जबरिया पलायन, नरसंहार या एक और होलोकॉस्ट? इस बहस से कुछ भी हासिल नहीं होगा। उस भीषण राष्ट्रीय त्रासदी के 32 वर्ष बाद अहम यह है कि हम अभी भी इस बात पर बहस कर रहे हैं कि कितने लोग मारे गए? आंकड़ों से उस त्रासदी का असर कम या ज्यादा नहीं होगा। न ही इससे उस बड़े समुदाय की राष्ट्रीय शर्म में कमी आएगी जो उस राज्य में अल्पसंख्यक था और जिसे मजबूत सेना, पुलिस और खुफिया एजेंसियों वाले लोकतांत्रिक देश में पलायन पर विवश किया गया।
एक पक्ष को लगता है कि वह चाहे तो मृतकों की तादाद में कितने भी शून्य जोड़ सकता है। वहीं दूसरा पक्ष एक ओर तो म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय पर हुए अत्याचारों पर आंसू बहाता है तो वहीं दूसरी ओर कहता है कि कश्मीरी पंडितों के मामले को हल्के में लिया जाए। मेरी बातों का अर्थ फिल्म का समर्थन या विरोध करना नहीं है। मैंने अब तक फिल्म देखी भी नहीं है। मैंने रणवीर सिंह और आलिया भट्ट की फिल्में 83 और गंगूबाई काठियावाड़ी भी नहीं देखीं। कोविड के कारण मुझे अभी भी सिनेमा हॉल जाने में घबराहट होती है। यह मूर्खतापूर्ण है कि कश्मीर फाइल्स की बहस ऐसे सवालों में उलझ गई है कि कितने कश्मीरी पंडित मारे गए।
कश्मीर फाइल्स का सकारात्मक योगदान यह है कि इसने एक रिसता हुआ घाव सामने ला दिया जो कभी भरा ही नहीं था। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि सिनेमा हॉल में दर्शक डराने वाली और शर्मनाक कट्टर प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। एक समुदाय को नष्ट करने की बात कही जा रही है और आम मुस्लिम परिवारों से बदला लेने की बात कही जा रही है। शानदार पत्रकार और लेखक राहुल पंडिता जिन्होंने कश्मीर घाटी में घटी उस बर्बरता पर ‘अवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स’ जैसी पुस्तक लिखी है उन पर सोशल मीडिया में इसलिए हमला किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने कुछ तथ्य सामने रखे और फिल्मकार के साथ बरताव को लेकर कुछ बातें कहीं। पंडिता कहते हैं कि यह कश्मीरी पंडितों के लिए भाव विरेचन जैसा है और उन्हें इससे गुजरना ही चाहिए।
आजादी के बाद के 75 वर्षों में भारत ने कई त्रासदियों का सामना किया है। भारत अकेला देश नहीं है जिसे अपने विकासक्रम में हिंसात्मक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा हो। इस उपमहाद्वीप के निवासियों में एक साझा लेकिन खेद की बात यह है कि हम सच को आंखों में आंखें डालकर नहीं देख पाते, अपनी गलती नहीं स्वीकार कर पाते। पीडि़तों और पीड़ा पहुंचाने वालों के लिए सबकुछ वैसा ही छोड़कर शायद आगे बढ़ जाते हैं।
हमारी संस्कृति और सभ्यता विभिन्न मामलों पर गोलमोल रुख अपनाने की है। दलीलों पर दलीलें दी जाती हैं। शर्मनाक तथ्य यह है कि बतौर एक देश और विधि व्यवस्था के रूप में हम अपनी सबसे बड़ी त्रासदियों को अंजाम देने वालों को जवाबदेह ठहराने में नाकाम रहे। सन 1983 में नेल्ली में छह घंटे तक चला मुस्लिमों का नरसंहार हो, दिल्ली तथा अन्य जगहों पर 1984 में हुआ सिखों का कत्लेआम हो, सन 1990 में कश्मीरी पंडितों पर गुजरी त्रासदी हो या 1983 से 1993 के बीच पंजाब में हिंदुओं का हत्याकांड हो या 2002 का गुजरात हो, हम हर बार विफल रहे। कानूनी निपटारा भी हर बार मामले को समाप्त नहीं करता लेकिन इससे मदद मिलती है। कुछ मामलों में तो इनकी स्मृतियों के धुंधला होने का दिखावा भी किया जाता है, मसलन नेल्ली मामला। दिखावा कहने से मेरा तात्पर्य यह है एक व्यापक अन्याय को अस्थायी तौर पर भले भुला दिया जाए लेकिन उसकी माफी कभी नहीं मिलती। यह मौखिक इतिहास का हिस्सा रहता है और अंतहीन रक्तपात में बदल जाता है। ऐसे असंतोष समाप्त नहीं होते। विभाजन के दौरान हुए रक्तपात पर कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म के लिए तैयार रहिए। हमें उसके नतीजे भी भुगतने पड़ सकते हैं।
समाज और समुदाय कभी अपने सबसे दुखद क्षणों को नहीं भूलते, लेकिन वे माफ कर सकते हैं। कोई सच इतना कड़वा या असहज करने वाला नहीं होता कि उसे परे न रखा जा सके। एक बार अगर आप कश्मीरी पंडितों का कष्ट समझ कर यह माफी मांग लें कि देश उन्हें संविधान तथा कानून के तहत उपलब्ध संरक्षण नहीं दे सका तो विवाद को विराम दिया जा सकता है। तब यह तर्क बढ़ाया जा सकता है कि आतंकवादियों की उसी आपराधिकता ने भारत की सेना, पुलिस और खुफिया एजेंसियों को पूरी ताकत झोंकने पर विवश किया और तब से अब तक करीब 20,000 लोग मारे गये जिनमें ज्यादातर कश्मीरी मुस्लिम हैं, और इनमें से अनेक लोगों की जान पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित मुस्लिम आतंकवादियों ने भी ली। यह भी कि घाटी में तब तक शांति नहीं हो सकती जब तक पंडित वापस नहीं जाते और अन्य कश्मीरियों की तरह सुरक्षित नहीं महसूस करते। हां, उन्हें इस तरह सुरक्षित नहीं रखा जा सकता जैसे पश्चिमी किनारे पर यहूदियों को एन्क्लेव बनाकर रखा गया।
भारत कश्मीर मसले से ठीक से नहीं निपटा और फौरी उपाय अपनाए गए। उदाहरण के लिए यासीन मलिक ने 25 जनवरी, 1990 को एक आतंकी दस्ते के साथ मिलकर चार निहत्थे वायुसेना अधिकारियों तथा दो महिलाओं को उस समय मार दिया था जब वे श्रीनगर में एक बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। मामले की सुनवाई 30 साल बाद 2020 में शुरू हुई आखिर क्यों?
ऐसा भी नहीं है कि मलिक पाकिस्तान भाग गया था। वह यहीं था। वह ज्यादातर समय एजेंसियों की देखरेख में आराम से रहा जिनका सोचना था कि वे उसे आतंकी से शांति चाहने वाले के रूप में बदले व्यक्ति की तरह पेश कर सकेंगी। यह तब जब उसने कभी उस हत्याकांड में शामिल होने से इनकार नहीं किया। बीबीसी को दिए साक्षात्कार में उसने कहा कि वह सशस्त्र संघर्ष में शामिल था और वे भारतीय सैनिक सही निशाना थे। लंबे समय तक वह शांति चाहने वालों का चहेता रहा। करीब 25 वर्ष पहले जब मैं द इंडियन एक्सप्रेस का अपेक्षाकृत नया संपादक ही था, एक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता (मैं नाम नहीं ले रहा क्योंकि तब से अब तक उनका रुख भी बहुत बदला है) ने मुझसे कहा कि मैं स्वर्गीय कुलदीप नैयर के नेतृत्व वाले एक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर श्रीनगर जाऊं ताकि ‘इस युवा बच्चे को बचाया जाए और वह शांति के लिए इतना अहम है कि अगर यह बच्चा मर गया तो बहुत बड़ी त्रासदी होगी।’
मेरे लिए यह तथ्य कहकर निकल जाना आसान था कि द इंडियन एक्सप्रेस की आचार संहिता सभी पत्रकारों को मीडिया स्वतंत्रता के अलावा किसी पैरवी में शामिल नहीं हो सकता। काश मैं उनसे कह पाता कि मासूम नागरिकों और शस्त्रहीन वायु सेना अधिकारियों की हत्या करने वाले को बचाने का विचार कितना नापसंद था मुझे। यह भी कि अगर शांति का यही तरीका था तो इससे भारत और अधिक नाराज होगा। वही नाराजगी हमें सिनेमा घरों में कश्मीर फाइल्स के दर्शकों में दिख रही है। व्यापक अन्यायों के विरेचन के लिए किसी भी धर्म के यासीन मलिक जैसे व्यक्ति को कीमत चुकानी चाहिए। जर्मनों ने पुराने नाजी यातना शिविरों को जैसे का तैसा स्मारकों में बदल दिया ताकि भावी पीढिय़ां वह गलती न दोहराएं। लेकिन इससे पहले प्रमुख नाजी हत्यारों को पकड़कर अंजाम तक पहुंचाया गया। किसी घटना को नकारते हुए जीना अन्याय के दुष्चक्र में जीना है। जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता एली विजेल ने कहा था, ‘यदि हम भूलते हैं तो यह मृतकों की दोबारा मौत होगी।’ यह बात सभी अन्यायों पर लागू होती है। इन बातों का कोई अर्थ नहीं है कि इनमें से कोई पलायन था, जातीय सफाया था, नरसंहार था या होलोकॉस्ट था।
