पिछले दो-तीन दिन में डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में लाखों शब्द लिखे और कहे जा रहे हैं। उनमें से ज्यादातर 1991 में शुरू किए गए सुधारों की ही बात करेंगे। इससे हम समझ सकते हैं कि कैसे उनके प्रशंसक भी उनके जीवन का अक्सर एक ही पहलू देखते हैं। इनमें उनके वे प्रशंसक भी शामिल हैं, जिन्होंने कांग्रेस को कभी वोट नहीं दिया और शायद आगे भी कभी नहीं देंगे।
सिंह के प्रति यह अच्छा बरताव नहीं है। पहले तो यह उन्हें और उनकी विरासत को केवल उस एक बात तक बांध देता है, जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से करीब डेढ़ दशक पहले अंजाम दी थी। दूसरा, ऐसा कहते हुए सुधारों का पूरा श्रेय उन्हें दे दिया जाता है जबकि 1991 के सिंह के इन सुधारों के लिए असली राजनीतिक जोखिम तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने उठाया था। ऐसे में सुधार का उतना ही श्रेय राव को भी मिलना चाहिए, जितना सिंह को मिलता है।
तीसरा, इसके साथ ही उनकी विरासत इस जुगलबंदी तक सिमटकर रह जाती है और उन्हें इतिहास में वह जगह नहीं मिलती, जिसके वह हकदार हैं क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा है। इनमें सामरिक से लेकर विदेश मामले और राजनीति तक सब शामिल है।
सन 2004 की गर्मियों में जब सिंह प्रधानमंत्री बने तब ज्यादातर चर्चा इसी बात पर थी कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) किस तरह का आर्थिक एजेंडा बढ़ाएगा? क्या वह शुरुआत वहीं से करेंगे, जहां पर राव और मनमोहन सिंह ने 1996 में छोड़ा था या वह अपनी पार्टी की विचारधारा और सबसे बड़े संसदीय साझेदार यानी वाम मोर्चे के मुताबिक चलेंगे? नॉर्थ और साउथ ब्लॉक पर बहुत करीबी नजर रखने वाले भी उन महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक बदलावों के लिए तैयार नहीं थे, जो विदेश नीति और सामरिक नीति में नजर आए।
यह इसलिए भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण था क्योंकि कांग्रेस के मन में अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रति हमेशा संदेह रहा था और वह भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन तथा तीसरी दुनिया की पुरानी यादों में खोई रहती थी। अगर 24 जुलाई 1991 की सुबह आपने किसी से कहा होता कि बजट से पहले दोपहर तक बतौर उद्योग मंत्री (वह मंत्रालय भी उनके ही पास था) नरसिंह राव अपने एक ही भाषण से जवाहरलाल नेहरू की 1956 की औद्योगिक नीति को खारिज कर देंगे तो शायद आपसे अपने दिमाग की जांच कराने के लिए कहा जाता।
आपके दिमाग और समझ पर तब और भी ज्यादा सवाल उठाए जाते, जब 2004 की गर्मियों में आप सोचते कि वाम मोर्चे के 61 सांसदों के बल पर चल रहा वाम-मध्यमार्गी गठबंधन अमेरिका के साथ देश की पहली बेहद महत्त्वपूर्ण संधि को अंतिम रूप दे रहा होगा। बाद में पता चला कि यह संधि सामरिक क्षेत्र की थी।
इस बदलाव की जड़ें गहरी बौद्धिक सोच में निहित थीं। वह सोच 1991 में सुधार लाने वाली सोच से भी ज्यादा गहरी थी। उस समय कम से कम संकट का बहाना था और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की मांग भी थी। परंतु भारत के सामने रणनीतिक रूप से नया रुख अपनाने के लिए किसी तरह की बाध्यता नहीं थी। भारत को पश्चिम के साथ गर्मजोशी का रिश्ता कायम करना चाहिए, यह विचार 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में वापस आने के साथ ही चर्चा में था। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में अतिक्रमण से और संयुक्त राष्ट्र में इसका समर्थन करने की भारत की विवशता ने इंदिरा को बुरी तरह परेशान कर दिया था। उन्होंने 1981 में रोनल्ड रीगन से कानकुन में मुलाकात भी की थी।
परंतु वह रिश्ता परवान नहीं चढ़ सका। राजीव गांधी और फिर राव ने कुछ कदम उठाए लेकिन वे सावधानी से उठाए गए छोटे-छोटे कदम थे। यकीनन सोवियत संघ बंट चुका था लेकिन अमेरिका की शंकाएं और संदेह पहले की तरह पुख्ता थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ बड़े कदम उठाए और बदले में कांग्रेस ने उन पर पाला बदलने और नया रुख अपनाने का आरोप लगा दिया।
मनमोहन सिंह की सफलता इस बात में निहित है कि कांग्रेस की सरकार के प्रधानमंत्री रहते हुए भी वह बहुत निर्णायक तरीके से यह बदलाव लाए। यह बहुत साहसिक कदम था। मेरी नजर में तो यह 1991 के सुधारों से भी अधिक साहसी था क्योंकि इस मुद्दे पर कांग्रेस और संप्रग साझेदारों के बीच उन्हें बहुत कम समर्थन मिल रहा था। कांग्रेस में उस समय भी शीतयुद्ध के दौर के नेता मौजूद थे। कुछ तो उनके मंत्रिमंडल में भी थे। 10 जनपथ भी इसके लिए तैयार नहीं था और न ही उसे इसकी कोई जरूरत लग रही थी। समर्थन तो भूल ही जाइए, इसका काफी विरोध हो रहा था और विदेश सेवा के अधिकारियों में तो इस पर बहुत रोष था। उन अधिकारियों में कई को उम्मीद थी कि वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार जाने के बाद कांग्रेस की चिर-परिचित पुरानी नीति और रवैये वाला दौर लौट आएगा। इसके उलट हालात की न तो कोई कल्पना कर रहा था और न ही कोई उनके लिए तैयार था। सोनिया गांधी को भी शंका हो रही थी और उन्हें वाम नेताओं पर ज्यादा भरोसा था, जो इस कदम को धोखेबाजी मान रहे थे। यह इकलौता मुद्दा था, जिस पर मनमोहन सिंह अपनी ही पार्टी के आकाओं के सामने अड़ गए और अपनी सरकार को भी खतरे में डाल दिया। सियासी तौर पर यह 1991 के सुधारों से अधिक जोखिम भरा था। उस वक्त राव को पार्टी के किसा आका की चिंता करने की जरूरत नहीं थी और न ही उन्हें वाम दलों की दरकार थी।
अमेरिका में भारत के तत्कालीन राजदूत रोनेन सेन में सिंह को भरोसे का एक साथी मिला क्योंकि सेन परिवार के भी काफी करीबी थे। इस किस्से को विस्तार से जानने के लिए आपको सेन के संस्मरण की प्रतीक्षा करनी होगी। मगर लगता नहीं कि उसे लिखने की कोई हड़बड़ी उन्हें है। उसी समय सेन ने भारतीय सांसदों को ‘हेडलेस चिकन’ (हड़बड़ाहट भरा दिशाहीन आचरण) कहा था। आखिरकार उन्होंने और राजनयिक रह चुके विदेश मंत्री तथा गांधी परिवार के करीबी के नटवर सिंह ने 10 जनपथ को इसके लिए तैयार किया।
क्या इस जोखिम की जरूरत थी? क्या इससे उसी तरह के लाभ होने थे, जैसे 1991 के सुधारों से हुए थे? आर्थिक लाभ के बदले हमेशा वोट नहीं मिलते, खास तौर पर जब ये लाभ नए मध्य वर्ग को हो रहे हों। कूटनीतिक बदलाव से होने वाले फायदे तो और भी कम नजर आते हैं। चुनावों में भी इसका तब तक कोई फायदा नहीं मिलता, जब तक आप इसका इस्तेमाल ऐसे मजबूत शासक की छवि पेश करने में नहीं करें, जिसे दुनिया भर में पसंद किया जाता हो। मनमोहन सिंह ऐसे नेता नहीं थे।
आलोचकों ने कहा कि इस समझौते से हमें ज्यादा परमाणु ऊर्जा तो हासिल नहीं होगी। हमारी दलील थी कि यह सौदा परमाणु ऊर्जा के लिए था ही नहीं। यह शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में भारत को अमेरिका और पश्चिम के मित्र और साझेदार के रूप में स्थापित करने के बारे में था। इतिहास का चक्र उसी तरह बदला। मणि शंकर अय्यर इस समझौते के धुर विरोधी थे और उन्होंने मुझसे कहा था, ‘कम से कम आप ईमानदार हैं और खुलकर कह रहे हैं कि यह समझौता किस बारे में है और किस बारे में नहीं। यह परमाणु ऊर्जा के बारे में नहीं है बल्कि कूटनीतिक और सामरिक तौर अपना रुख बदलने के बारे में है। मैं इसी का विरोध कर रहा हूं।’
नरेंद्र मोदी की भाजपा ने इसे लपक लिया और इस पर मजबूती से आगे बढ़ी मगर लाल कृष्ण आडवाणी समझौते के विरुद्ध थे। 2008 में जब उनके संस्मरणों की पुस्तक आई तब एक साक्षात्कार में आडवाणी ने मुझे ताना मारते हुए कहा था कि मैं उस समझौते का कांग्रेस से भी बड़ा समर्थक था। उनकी भाजपा ने इसे भारत की सामरिक स्वायत्तता का अंत करार दिया और कांग्रेस सरकार को विश्वास मत में परास्त करने के लिए वाम दलों से हाथ मिला लिया। उसके बाद क्या हुआ यह हम सब जानते हैं। मैं आपका ध्यान उन दो बातों पर ले जाऊंगा, जो मनमोहन सिंह ने समझौते को सही ठहराते हुए अपने भाषण में कही थीं। पहला, उन्होंने यह कहते हुए आडवाणी का मजाक उड़ाया था कि वह अविश्वास प्रस्ताव इसलिए लाए हैं क्योंकि उनके ज्योतिषी ने उनसे कहा है कि वह देश के प्रधानमंत्री बनेंगे।
दूसरा, उन्होंने गुरु गोविंद सिंह के दशम ग्रंथ की वे अमर पंक्तियां सदन में पढ़ीं, जहां गुरु शत्रु के साथ युद्ध में उतरने के पहले ईश्वर से आशीर्वाद मांगते हैं: ‘देह शिवा वर मोहे इहे, शुभ कर्मन ते कबहूं न टरों/ न डरों अरि सों जब जाये लड़ों, निश्चय कर अपनी जीत करों।’
ये शानदार रोमांचक पंक्तियां एक समय बठिंडा में मेरे स्कूल की प्रार्थना में शामिल थीं। नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री मोदी ने भी गुरु नानक की 552वीं जयंती पर कृषि सुधार कानून वापस लेते समय ये पंक्तियां ही दोहराई थीं। यानी जोखिम भरे एक सुधार पर अड़े रहने के लिए दसवें गुरु की इन्हीं पंक्तियों का इस्तेमाल किया गया और एक सुधार को वापस लेने के लिए भी इन्हें ही दोहराया गया। दोनों ही स्थितियां बताती हैं कि भारत में सुधारक कितने अकेले होते हैं और कितनी चुनौतियों से जूझते हैं।