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नए श्रम कानून: भारतीय नीति के साथ इसका क्रियान्वयन है मुख्य चुनौती

नए श्रम कानूनों से रोजगार और सामाजिक सुरक्षा में सुधार का लक्ष्य रखा गया है लेकिन राज्यों में कमजोर क्रियान्वयन और प्रशासनिक सीमाओं ने चुनौतियां बढ़ाई हैं

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देवाशिष बसु   
Last Updated- December 14, 2025 | 9:54 PM IST

भारत के नए चार श्रम कानूनों का उद्देश्य 29 पुराने कानूनों को हटाकर उनकी जगह लेना है। ये कानूनों का पालन आसान बनाने, सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाने, कंपनियों को कर्मचारियों की भर्ती करने, नौकरी से निकालने और अपने कारोबार को बढ़ाने में अधिक सहूलियत देने का वादा करते हैं। लेकिन भारत में अक्सर ऐसा होता है कि सुधारों की घोषणाएं शानदार तरीके से की जाती हैं पर जब उन्हें लागू करने की बारी आती है तब कई दिक्कतें देखी जाती हैं। क्या ये नए श्रम कानून भी उसी राह पर चलेंगे? हाल के समय में भारत में आर्थिक सुधारों का सफर कुछ ऐसा ही रहा है। केंद्र में तो महत्त्वाकांक्षी कानून बनाए जाते हैं लेकिन राज्यों में उनका क्रियान्वयन धीमा होता है और आखिर में जो नतीजा निकलता है वह कानून बनाए जाने के वास्तविक इरादे से कोसों दूर होता है।

उदाहरण के तौर पर, दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) का उद्देश्य चूक करने वाले कर्जदारों को अनुशासित करने के लिए एक त्वरित निवारण वाले और डर का माहौल बनाने वाला तंत्र बनना था। लेकिन जल्द ही यह अदालती देरी, प्रक्रियात्मक विवादों और भ्रष्टाचार में फंस गया। देरी के साथ-साथ तंत्र में हेराफेरी आम बात हो गई। रियल एस्टेट (विनियमन एवं विकास) अधिनियम (रेरा), जिसे घर खरीदारों की सुरक्षा के लिए बनाया गया था, वह राज्य स्तर पर बने कमजोर नियमों का मिला-जुला रूप बन गया। यहां तक कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), जो दशकों का सबसे बड़ा वित्तीय सुधार है, वह भी जटिल नियमों और असमान तरीके से लागू किए जाने के कारण अब भी अधूरा है।

इसमें पहली बाधा भारत का संघीय ढांचा है। हालांकि ये केंद्रीय कानून हैं लेकिन श्रम मामला संविधान की समवर्ती सूची में आता है, जिसका अर्थ है कि राज्यों को अपने नियम बनाने होंगे और वास्तविक तरीके से इन्हें लागू करना होगा। इसी तरह के अन्य मामलों में, कुछ राज्य सतर्क रहे हैं लेकिन कई राज्यों ने ऐसी सतर्कता नहीं भी बरती है। इनमें से अधिकांश राज्य नियामकीय कामकाज के बजाय राजनीतिक दिखावे में दिलचस्पी दिखाते हैं। एक राज्य में किसी श्रमिक को ऐसे लाभ मिल सकते हैं जो दूसरे राज्य में उपलब्ध नहीं हैं। विभिन्न राज्यों में कारखाने के लिए अलग-अलग नियम हो सकते हैं। नए श्रम कानून इन असंगतियों को दूर करने का वादा करते हैं। लेकिन अगर राज्य इससे पीछे हटते हैं या अपनी इच्छानुसार इसकी व्याख्या करते हैं तब कानून अपने मूल इरादे से पीछे रह जाएंगे।

दूसरी समस्या शासन की क्षमता और गुणवत्ता है। कानूनों में श्रमिक पंजीकरण के लिए डिजिटल तंत्र, जोखिम-आधारित निरीक्षण के लिए एल्गोरिदम और लाखों ऑनलाइन अनुपालन को संभालने में सक्षम प्रशासकों की जरूरत समझी गई है। लेकिन वास्तविकता इतनी अच्छी नहीं है। भारत का सरकारी तंत्र जो आमतौर पर खराब स्तर के प्रशिक्षण, कमजोर निगरानी और भ्रष्टाचार की वजह से और भी कमजोर होता जाता है, उसमें मामूली नियमों को भी लागू करना आसान नहीं है ऐसे में पीढ़ीगत सुधार दूर की बात है। डिजिटलीकरण का दायरा भी समान नहीं है और पोर्टल अक्सर दबाव में क्रैश हो जाते हैं। 

इन कानूनों को बनाने वालों को डिजिटल तरीके से नियमों का पालन करवाने पर बहुत भरोसा है। उनका मानना है कि इलेक्ट्रॉनिक तरीके से दस्तावेज जमा करने, ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराने और आधार कार्ड से जुड़े सामाजिक सुरक्षा खातों से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन भारत में डिजिटल सुविधाएं हर जगह एक जैसी नहीं हैं। आज भी जीएसटी भरने में छोटे व्यापारियों को बहुत परेशानी होती है। लाखों कर्मचारियों के पास सही इंटरनेट कनेक्शन नहीं है। जो लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं जैसे कि निर्माण मजदूर, ड्राइवर और घरेलू स्टाफ उनके पास शायद ही कोई जरूरी कागजात होते हैं।

भारत पहले से ही कई डिजिटल कल्याणकारी योजनाएं बना चुका है जो वितरण प्रणाली के बजाय डेटाबेस के रूप में अधिक काम करती हैं। अनौपचारिक श्रमिकों के लिए ई-श्रम पोर्टल अधूरा है और डुप्लिकेट तथा लापता लाभार्थियों से भरा हुआ है। एक सरकारी ऑडिट में पाया गया कि साफ डेटा के अभाव में निर्माण श्रमिकों के कल्याण कोष, कई राज्यों में बिना खर्च किए पड़े हैं। 

एक बड़ी दिक्कत लोकलुभावन राजनीति से भी जुड़ी है जो किसी भी सुधार को कमजोर करने के लिए तैयार है। कोई भी आर्थिक मंदी, बड़ी छंटनी या औद्योगिक दुर्घटना नेताओं को किसी क्रियान्वयन को टालने के लिए प्रेरित कर सकती है। भारत में सुधार अक्सर आर्थिक तर्क के बजाय राजनीतिक जोखिम से बचने पर अधिक निर्भर करता है। राज्य स्तरीय संशोधनों के माध्यम से रेरा कमजोर हो गया, राजनीतिक समझौतों के कारण जीएसटी दरों में वृद्धि हुई। इसी तरह श्रम सुधारों को भी राजनीतिक पुनर्विचार का सामना करना पड़ सकता है। ये कानून अंशकालिक कर्मियों (गिग वर्कर) और प्लेटफॉर्म श्रमिकों को मान्यता देने का श्रेय ले सकते हैं लेकिन भारत की नियामकीय महत्त्वाकांक्षा इसकी व्यावहारिक क्षमताओं से आगे निकल जाती है।

इस कानून में दी गई परिभाषाएं बहुत स्पष्ट नहीं हैं, अंशदान का तरीका अस्पष्ट है और इसे लागू करने का तरीका भी स्पष्ट नहीं है। गिग वर्कर कई अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर काम करते हैं, उनकी पहचान बदलती रहती है और उनके पास अधिक दस्तावेज भी नहीं होते हैं। अंशदान पर नजर रखना या रोजगार से जुड़े इतिहास को सत्यापित करना भी अधिक कर्मचारियों से लैस नियामकों के लिए एक चुनौती होगी। संदेह यह भी है कि गिग वर्कर को सुरक्षा देने के नाम पर जो योजना बने वह भी भारत के अलग-अलग उपकर फंड जैसी ही निकले? यानी, पैसा तो इकट्ठा किया जाए लेकिन शायद ही इसका वितरण हो और जिन लोगों की मदद के लिए वो पैसा इकट्ठा किया गया है, उन तक वह पहुंच ही न पाए।

ऐसा नहीं है कि ये सुधार पूरी तरह से नाकाम हो जाएंगे बल्कि कुछ मामलों में ये सफल होंगे, कुछ में अटक जाएंगे। आखिर में एक अस्त-व्यस्त और औसत दर्जे का संतुलन बन जाएगा। जैसे, जीएसटी बस थोड़ा अधिक जटिल हो गया। आईबीसी की प्रक्रिया धीमी और अनियमित हो गई। रेरा भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ लेकिन कुछ मामलों में यह कमजोर पड़ गया। हो सकता है कि यह कानून भी उसी राह पर चलें। कुछ राज्यों में इसका थोड़ा असर दिखे, कुछ में इन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाए और हर जगह इन्हें लागू करने में एकरूपता न हो। 

किसी भी आधुनिक श्रम कानून को सफल बनाने के लिए जरूरी है कि हमारे पास रोजगार, कमाई, सुरक्षा, फायदे और नियमों के पालन से जुड़ा भरोसेमंद व्यापक डेटा हो। जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में इस तरह की व्यवस्था बहुत ही कुशलता से काम करती है। लेकिन भारत में आंकड़े अधूरे हैं, प्रशासनिक रिकॉर्ड में गड़बड़ियां हैं और सर्वेक्षण भी नियमित रूप से नहीं होते हैं। ये कानून इस उम्मीद पर बनाए गए हैं कि भारत में एक ऐसा डेटा तंत्र होगा जो अभी तक बना ही नहीं है। आईबीसी के पंचाटों को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि सरकार का ध्यान नतीजों पर ठीक से नहीं था और जब हालात उम्मीद से बहुत ज्यादा बिगड़ने लगे तब सरकार ने समय पर जरूरी कदम नहीं उठाए। समस्या गलत नियुक्तियों से शुरू हुई। रेरा को लागू करने में भी राज्यों में एकरूपता नहीं है। 

श्रम सुधार, लाखों कर्मचारियों और कंपनियों की निगरानी पर निर्भर करता है और उसे लागू करने के लिए ज्यादा सख्ती की जरूरत है। इन कानूनों में अधिक उत्पादक और संगठित अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया गया है। लेकिन कोई भी कानून तभी तक अच्छा है, जब तक उसे लागू करने वाली सरकार अच्छी हो और भारत सख्ती से परिणाम देने वाले प्रशासनिक अनुशासन के लिए नहीं जाना जाता है।

(लेखक मनी लाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)

First Published : December 14, 2025 | 9:54 PM IST