जिस व्यक्ति को मामले में केवल अपना पक्ष मालूम होता है, वास्तव मेंं वह उसके बारे मेंं काफी कम जानकारी रखता है-जॉन स्टुअर्ट मिल (1860)
बीते एक वर्ष के दौरान कम ब्याज दर वाली आर्थिक नीति (शिथिल मौद्रिक नीति) पर जोर देने वाले आर्थिक सलाहकारों का यह कहना एकदम उचित है कि गरीबों के हाथ में अधिक से अधिक पैसा जाना चाहिए। उनका यह कहना भी सही है कि देश का सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 90 फीसदी के स्तर पर है जो कई विकसित देशों की तुलना में काफी कम है।
उनका यह कहना भी एकदम उचित है कि ब्याज दरों के कम होने की स्थिति में सार्वजनिक ऋण-जीडीपी अनुपात की सीमा को संशोधित करके बढ़ाया जाना चाहिए। उनका यह कहना भी एकदम सही है मौजूदा दौर में उच्च शासकीय व्यय मुद्रास्फीति में इजाफा नहीं करेगा। यह भी सही है कि यदि निजी क्षेत्र विशुद्ध बचत करता है तो यह मददगार होता है, बशर्ते कि सरकार अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए समग्र मांग बढ़ाने के क्रम में बचत को व्यय करती है।
मसला क्या है?
वंचित वर्ग के लोगों की देखभाल के लिए वित्तीय मदद की तात्कालिक आवश्यकता हो सकती है लेकिन लंबी अवधि के लिए राजकोषीय घाटे में इजाफा जरूरी नहीं है। जिन लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है उनकी मदद पुनरावंटित राजकोषीय नीति के माध्यम से की जा सकती है। इसके तहत कुछ योजनाओं पर व्यय कम करना होगा जबकि मनरेगा जैसी कुछ योजनाओं पर व्यय बढ़ाना होगा।
हम पुनर्वितरण वाली राजकोषीय नीति की मदद भी ले सकते हैं जहां संपदा कर और अमीरों पर विरासत कर लगाया जा सकता है। इस पैसे का इस्तेमाल उन वंचितों पर किया जा सकता है जिनके खपत पर व्यय करने की संभावना अधिक है। सन 1930 के पहले आमतौर पर ये बातें एजेंडे में रहती थीं लेकिन उसके बाद राजकोषीय घाटा कुछ ज्यादा ही प्रतिष्ठित हो गया।
यह सही है कि निजी क्षेत्र निवेश की तुलना में अधिक बचत करता है, सरकार ऋण और व्यय के माध्यम से बचत कर सकती है ताकि वस्तुओं और सेवाओं की समग्र मांग बरकरार रखी जा सके।
नई सोच की आवश्यकता नहीं है। हालांकि इसे विचलन समझा जा सकता है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकारी अपनी परिसंपत्ति के पोर्टफोलियो में तब्दीली ला सकते हैं। वे अतिरिक्त शासकीय भूमि कम कर सकते हैं, अतिरिक्त विदेशी मुद्रा भंडार कम कर सकते हैं और नाकाम सरकारी उपक्रमों से निजात पा सकते हैं। इस दौरान बेहतर माध्यमों के जरिये सामाजिक लक्ष्य हासिल करना जारी रह सकता है। इन मौजूदा शासकीय परिसंपत्तियों को बचतकर्ताओं द्वारा हासिल किया जा सकता है क्योंकि निजी क्षेत्र में बचत, निवेश से अधिक है। यदि मौजूदा सरकारी संपत्तियों की बिक्री से हासिल फंड का इस्तेमाल नए निवेश के लिए किया जाए तो सरकार नवनिर्मित परिसंपत्तियां भी हासिल कर सकती है। अच्छी बात यह है कि इस प्रक्रिया में वस्तुओं की समग्र मांग बरकरार रखी जाती है और ऐसा बिना राजकोषीय घाटे में किसी इजाफे के और बगैर निजी संपत्ति की कोई बिक्री किए किया जाता है। यह तरीका आजमाना खासतौर पर आकर्षक है क्योंकि इस समय परिसंपत्तियों का मूल्य अनुकूल है।
मुद्रास्फीति का कोई खास दबाव नहीं है और सरकारी व्यय चाहे खपत पर हो या निवेश पर, समग्र मांग के उसी स्तर पर बरकरार रहने की आशा है। हालांकि निवेश के साथ जीडीपी वृद्धि में मजबूती देखने को मिल सकती है। हमेंं वृद्धि की भी आवश्यकता है। जीडीपी वृद्धि, पर्याप्त निजी निवेश और समग्र मांग में इजाफे की दृष्टि से काफी अहम है। ऐसे में साल दर साल प्रोत्साहन की जरूरत नहीं होगी।
भारत में ऋण-जीडीपी अनुपात अभी भी अमेरिका जैसे देशों की तुलना में कम है। ऐसे में सरकार आसानी से ऋण ले सकती है तो फिर उपरोक्त बातों पर विचार ही क्यों करना? ऋण-जीडीपी अनुपात तुलना करने के लिए उचित मानक नहीं है। यहां सन 2010 की चर्चित पुस्तक द टाइम इज डिफरेंट का हवाला लें तो ऋण-जीडीपी अनुपात की तुलना में ऋण-कर अनुपात कहीं अधिक सार्थक उपाय हैं। भारत का ऋण-कर अनुपात अमेरिका की तुलना मेंं काफी अधिक है। शायद यही बात कई एजेंसियों को परेशान कर सकती है जिन्होंने भारत को सॉवरिन ऋण के लिए कम रेटिंग दी है।
यह सच है कि सरकारी बॉन्ड की ब्याज दर, कर दरों में वृद्धि की तुलना में कम है। यह जीडीपी की तुलना में भी कम है। इससे यह संकेत निकल सकता है कि सरकारी ऋण में स्थायित्व की परिस्थितियां बन चुकी हैं। बहरहाल यहां दो बातें हैं। पहली, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आने वाले वर्षों में प्राथमिक घाटा नियंत्रण में रहेगा। दूसरा, बैंकों के सांविधिक तरलता अनुपात संबंधी नियमों के कारण सरकारी बॉन्ड पर ब्याज दर कृत्रिम रूप से कम है। ये परिस्थितियां सरकारी बॉन्ड के लिए सीमित बाजार उपलब्ध कराती हैं। यह एक वित्तीय दबाव है जिसकी सामाजिक कीमत काफी अधिक है। परंतु विकल्प क्या है?
जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, भारत सरकार पुनर्आवंटन राजकोषीय नीति, पुनर्वितरण राजकोषीय नीति और मौजूदा परिसंपत्तियों से ऐसी परिसंपत्तियों की ओर प्रस्थान की नीति अपना सकती है जो निवेश पर उच्च सार्वजनिक व्यय से संबंधित हैं।
ऐसे कदम सार्वजनिक ऋण में अहम इजाफे की जरूरत को कम करते हैं। यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वित्त वर्ष 2022 में देश के केंद्रीय करों में से 52.4 प्रतिशत को अकेले ब्याज भुगतान पर व्यय किए जाने की संभावना है।
(लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)