भारतीय राजनीति में कुछ राजनीतिक दल अस्तित्व में बने रहने की अपनी जिद से लोगों को चकरा देते हैं। यह स्थिति तब और पेचीदा हो जाती है जब दूसरे राजनीतिक दलों और इन दलों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखता है। उदाहरण के लिए सोनिया गांधी के विदेशी मूल के विषय पर उठे विवाद के बाद अस्तित्व में आई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) कांग्रेस से किन मायनों में अलग दिखती है? राकांपा और कांग्रेस दोनों ही गठबंधन सरकारों में सहयोगी रहे हैं और इससे भी बड़ी बात यह है कि इन सरकारों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सोनिया गांधी का प्रभाव रहा था।
या फिर जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) किस तरह अन्य दलों से अलग है जिसकी धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत काफी लचीला है? जेडीएस भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस दोनों में से किसी की धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा की परवाह किए बिना उनके साथ गठबंधन कर चुकी है।
आज कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे यह तय कर देंगे कि जेडीएस आने वाले समय में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना अस्तित्व कायम रख पाएगी या इसकी पकड़ और कमजोर होती जाएगी। मगर इससे पहले कि हम जेडीएस के भविष्य को लेकर कोई अनुमान लगाएं, हमें इसके राजनीतिक इतिहास और कर्नाटक की राजनीति में इसके महत्त्व एवं योगदान पर जरूर विचार करना चाहिए।
कांग्रेस नेता मणिशकर अय्यर ने जेडीएस के संस्थापक एवं पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा पर एक बार तंज कसा था। अय्यर ने टिप्पणी की थी कि देवेगौड़ा ‘हंबल फार्मर’ (मृदुल किसान) नहीं बल्कि ‘फंबल हार्मर’ (ऐसे राजनीतिज्ञ जिनसे हालात संभलने के बजाय और बिगड़ जाते हैं।) अय्यर ने भले ही बड़ी चालाकी से शब्दों का इस्तेमाल किया था मगर उनकी टिप्पणी से देवेगौड़ा के साथ कहीं न कहीं अन्याय हुआ होगा।
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सुगत श्रीनिवासराजू ने देवेगौड़ा की जीवनी में उल्लेख किया है कि किस तरह आर्थिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1962 में एक तालुका चुनाव के साथ की। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया है कि देवेगौड़ा राजनीतिक जीवन पर किन व्यक्तियों (वह मोरारजी देसाई और चंद्रशेखर से खासे प्रभावित थे) का प्रभाव रहा और उन व्यक्तियों के साथ उनके संबंध कैसे थे। देवेगौड़ा के जीवन पर लिखी पुस्तक में श्रीनिवासराजू ने जमीन, जल और कृषि से उनके जुड़ाव की भी चर्चा की है।
देवेगौड़ा के राजनीतिक करियर की शुरुआत कर्नाटक में किसी राजनीतिक विचारधारा नहीं बल्कि जाति पर आधारित थी। राम मनोहर लोहिया और मधु लिमये सामाजिक न्याय का नारा बुलंद कर रहे थे मगर देवेगौड़ा कर्नाटक में शूद्र जाति का होने के कारण वास्तविक संघर्ष कर रहे थे। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और राजनीतिक मार्गदर्शकों के साथ उनके संबंध काफी पेचीदा थे।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री देवराज अर्स के साथ भी देवेगौड़ा के संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव रहा। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से देवेगौड़ा अर्स की जमकर आलोचना किया करते थे मगर वह उनका सम्मान भी किया करते थे। इसके अलावा श्रीनिवासराजू ने देवेगौड़ा की जीवनी में रामकृष्ण हेगड़े के साथ उनकी राजनीतिक लड़ाई और कांग्रेस एवं उसके पूर्व नेता सीताराम केसरी के साथ सांस्कृतिक अंतर की भी चर्चा की गई है।
मगर वर्ष 1999 में जेडीएस की स्थापना तमाम राजनीतिक चुनौतियों के बीच राजनीतिक संघर्ष की कहानी है। इससे पहले देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था और 1999 का लोकसभा चुनाव भी वह हासन सीट से हार गए थे। जनता दल टूट चुका था और इसके कई नेता जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो गए। हेगड़े ने लोक शक्ति पार्टी बना ली और भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया।
हेगड़े के साथ गठबंधन करने से भाजपा को काफी लाभ मिला, खासकर उत्तरी कर्नाटक में पार्टी की पकड़ मजबूत हो गई। तब से लेकर 2002 के बीच देवेगौड़ा कनकपुरा लोकसभा सीट से सांसद रहे और कर्नाटक में अपनी पार्टी की बुनियाद मजबूत करने में जुटे रहे। 2004 के राज्य विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी देवेगौड़ा के पास आ गई।
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उन्होंने साफ कर दिया था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा पर तीखे हमले किए थे। इससे अल्पसंख्यक समुदाय का झुकाव देवेगौड़ा की पार्टी की ओर बढ़ गया। विधानसभा चुनाव में भाजपा को 75 सीट जबकि कांग्रेस और जेडीएस को क्रमशः 65 और 57 सीट पर जीत मिली। अन्य दलों के खाते में 27 सीट आई।
कांग्रेस और जेडीएस ने गठबंधन कर दिया और धर्म सिंह राज्य के मुख्यमंत्री बन गए। मगर कांग्रेस में शामिल होने वाले रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाला जनता दल का धड़ा देवेगौड़ा पर कभी भरोसा नहीं कर पाया और वह उनके कार्य करने की शैली से भी खुश नहीं था।
2006 में धर्म सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया मगर चुनाव का सामना करने के बजाय देवेगौड़ा के पुत्र एच डी कुमारस्वामी ने भाजपा के साथ सरकार गठन का सौदा कर लिया। इस समझौते के तहत यह तय हुआ विधानसभा के बचे शेष कार्यकाल में आधे समय तक मुख्यमंत्री जेडीएस का होगा और शेष अवधि में मुख्यमंत्री भाजपा से होगा। उस समय भाजपा के 75 विधायक थे मगर पार्टी ने सत्ता में आने के लिए 57 विधायकों वाली जेडीएस के साथ राजनीतिक सौदा करना स्वीकार कर लिया।
भाजपा के साथ जेडीएस के तालमेल से अल्पसंख्यक समुदाय को चोट पहुंची। देवेगौड़ा ने भी कह दिया कि भाजपा के साथ मिलकर उनके पुत्र ने उनके साथ विश्वासघात किया है। मगर देवेगौड़ा की नाराजगी केवल कुछ दिनों के लिए थी और अंततः वह पुत्रमोह के आगे विवश हो गए। इसके साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय का जेडीएस से भरोसा उठ गया।
कुमारस्वामी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत की तो उन्होंने जेडीएस की एक अलग पहचान बनाने का प्रयास किया। उन्होंने कई रातें दलित समुदाय के लोगों के घर पर गुजारीं। हां, यह अलग बात थी कि कुमारस्वामी अपने साथ अपनी जरूरत के सामान जैसे गद्दा और मिनरल वाटर साथ ले गए थे।
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उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेने का भी प्रयास किया और उनके साथ मेल-जोल बढ़ाना शुरू कर दिया। जब समझौते की शर्त के तहत भाजपा के मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने की बारी आई तो कुमारस्वामी मुकर गए। 2008 में जब राज्य विधानसभा चुनाव हुए तो मैदान में महत्त्वाकांक्षी भाजपा और कमजोर कांग्रेस बच गई थीं। देवेगौड़ा की पार्टी के विधायकों की संख्या विधानसभा में 57 से कम होकर मात्र 17 रह गई।
वर्ष 2013 में भाजपा में चल रही अंदरूनी उठापटक (बी एस येदियुरप्पा ने भाजपा से अलग होकर अलग पार्टी बना ली थी) के कारण जेडीएस को लाभ मिला और उसे 40 सीट पर सफलता मिली। भाजपा को भी इतनी ही सीट मिलीं। 2018 में देवेगौड़ा की निगरानी में गठबंधन सरकार बनी।
मगर जब देवेगौड़ा ने 2019 में चुनाव लड़ा तो उनकी उम्र 87 वर्ष हो चुकी थी। वह चुनाव हार गए और राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंचे। संभवत: देवेगौड़ा अब दूसरा चुनाव नहीं लड़ने जा रहे हैं। इससे जेडीएस की भविष्य की राजनीति एवं संभावनाओं पर प्रश्न उठने लगे हैं। आज जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे तो जेडीएस को लेकर स्थिति काफी साफ हो जाएगी।