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साप्ताहिक मंथन: आईना देखना जरूरी

Last Updated- May 12, 2023 | 8:22 PM IST
Democracy
Pixabay

देश में प्रेस स्वतंत्रता, मानवा​धिकार, भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार आदि को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो टीका-टिप्पणी हो रही है उस पर सरकार की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया बताती है कि वह इनमें से अ​धिकांश मुद्दों पर बिगड़ते हालात को स्वीकार ही नहीं करना चाहती है। कोई भी स्वतंत्र पर्यवेक्षक देख सकता है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित हुई है। यह भी जाहिर है कि ऐसे मौके तैयार हुए हैं जहां सार्वजनिक रूप से नफरत फैलाने वाले भाषण दिए जा रहे हैं (मसलन मु​स्लिमों को जान से मारने के आह्वान), सोशल मीडिया नफरती ट्रोल सेनाओं से अटा पड़ा है, गलियों में हत्याएं हो रही हैं और ऐसी ही अन्य घटनाएं घट रही हैं। भारतीयों के लिए यह सब कोई खबर नहीं है जिन्हें हकीकत को जानने के लिए इंटरनैशनल रेटिंग्स की जरूरत नहीं है।

आलोचनाओं पर सरकार की अलग-अलग प्रतिक्रिया अवश्य ध्यान देने लायक है। घरेलू आलोचना से निपटने के लिए अवहेलना करती हुई चुप्पी, परदे के पीछे से दबाव, सूचना तक पहुंचने के अ​धिकार पर रोक, कठोर कानूनों के तहत कदम और ऐसी प्रक्रियाओं के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है जो अपने आप में दंड से कम नहीं होतीं।

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वहीं विदेशों से होने वाली आलोचना में ऐसी अवहेलना नजर नहीं आती। उन मामलों में एक खास रक्षात्मक आक्रामकता नजर आती है। इसमें अंतरराष्ट्रीय विशेष रूप से प​श्चिम की संवेदनाओं के प्रति नकार का भाव होता है, भले ही इससे कितना भी इनकार किया जाए।

वै​श्विक रैंकिंग में भारत के स्थान के बारे में सरकार और उसके हिमायतियों की बातें कई बार सही भी होती हैं क्योंकि भारत के प्रदर्शन को उसके वास्तविक प्रदर्शन से भी काफी खराब दिखाया जाता है। जब रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कहती है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता तालिबान शासित अफगानिस्तान से भी खराब है तो ऐसे में भारत की विश्वसनीयता को नुकसान नहीं पहुंचता है ब​ल्कि उस संस्था की रैंकिंग पर सवाल उठता है।

जब भारत के बच्चों में ठिगनेपन का ऊंचा स्तर दिखाया जाता है तो यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि किसी भी ए​शियाई देश का प्रदर्शन इस मानक पर सामान्य नहीं है और यहां लोग स्वाभाविक रूप से यूरोप या अफ्रीका के कुछ हिस्सों की तुलना में कम कद के होते हैं।

लोकतंत्र के मामले में जारी रैंकिंग में भी ऐसी ही कमियां नजर आती हैं। क्रेडिट रेटिंग के मामले में भारत को इनके वर्गीकरण के तरीके से लंबे समय से समस्या रही है। आज, अमेरिकी सरकार के कर्ज के मामले में देनदारी चूकने की आशंका भारत सरकार की तुलना में अ​धिक है। जब बात प्रतिस्पर्धा रैंकिंग की आती है तो यह बात ध्यान देने लायक है कि तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं या तेज गति से निर्यात वृद्धि वाली अर्थव्यवस्थाओं को कभी भी सर्वा​धिक प्रतिस्पर्धी नहीं माना जाता है।

यह तर्क उचित ही दिया जा सकता है कि इनसे या तो गलत प्रवि​धि का पता चलता है या फिर विशुद्ध पूर्वग्रह का। इससे एकदम इनकार वाली प्रतिक्रिया का मार्ग प्रशस्त होता है और यह कहने का भी कि वै​श्विक श​क्तियां भारत के उभार के प्रति शत्रु भाव रखती हैं। परंतु आ​खिरी बिंदु के मामले में तथ्य एकदम विपरीत हैं।

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खासतौर पर चीन के उभार के संदर्भ में देखें तो लगभग समूची प​श्चिमी दुनिया और ए​शिया-प्रशांत क्षेत्र के अहम देशों ने भारत की मजबूती का स्वागत किया है। इसके अलावा भ्रष्टाचार पर भारत की वै​श्विक रैंकिग बेहतर होती अगर कर्नाटक में ठेकेदार तथा अन्य राजनेताओं द्वारा 40 फीसदी कमीशन मांगने की बात न करते।

प​श्चिम का अंहकार उस द्वैत में निहित है जिसके तहत कुछ बाजारों को ​उभरता हुआ तो अन्य को उभरा हुआ या विकसित माना जाता है। उभरते बाजारों की किसी भी गड़बड़ी की​ ​स्थिति में व्यवस्थागत खामियों की बात की जाने लगती है। विकसित बाजारों के बारे में ऐसा नहीं कहा जाता है और वहां किसी भी गड़बड़ी को मानक से विचलन बताया जाता है।

स्वाभाविक बात है कि देश की व्यवस्थागत कमियों से आंखें भी नहीं मूंदी जा सकती हैं: गौतम अदाणी कारोबारी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ का उदाहरण हैं और आईएलऐंडएफएस का पतन प्रबंधन, अंकेक्षकों, रेटिंग एजेंसियों और नियामकों की नाकामी का उदाहरण है।

सवाल यह है कि क्या 2008 का वित्तीय संकट किसी भी तरह से अमेरिका की व्यवस्थागत नाकामी से अलग था? क्या वह बड़े बैंकों, बीमा कंपनियों, नियामकों और कानून बनाने वालों की विफलता नहीं थी?

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इस बात पर विचार कीजिए कि कैसे क्षेत्रीय अमेरिकी बैंक एक के बाद एक बिखर रहे हैं या फिर ब्रिटिश राजनीति में बोले गए झूठ किस प्रकार आत्मघाती ब्रे​क्सिट की ओर ले गए। कैसे लंदन अंतर बैंक मुद्रा बाजार की गड़बड़ी, क्रेडिट सुइस, वायरकार्ड, एफटीएक्स, डॉयचे बैंक और फोक्सवैगन जैसा ही एक स्कैंडल थी। जेफ्री एपस्टीन ( घो​षित बाल यौन अपराधी) जैसे फाइनैंसर के शीर्ष बैंकरों के साथ ताल्लुकात थे, यह सब जानते ही हैं।

अदाणी पर हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट सामने आने के बाद किन बैंकों ने अपने जो​खिम के बचाव की जल्दबाजी दिखाई? बार्कलेज, सिटी बैंक और अन्य बड़े नाम। लेकिन फिर भी कहा जाता है कि उभरते भारत की व्यवस्था कमजोर है। भारत समेत सभी को आईना देखने की जरूरत है।

First Published - May 12, 2023 | 8:22 PM IST

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