केंद्र सरकार ने 23 दिसंबर 1993 को एक ऐसी योजना की शुरुआत की जिसके तहत संसद सदस्यों को विकास परियोजनाओं की सिफारिश करने की अनुमति मिली।
ये परियोजनाएं इस तरह की हैं कि उनसे टिकाऊ सामुदायिक संपदा और बुनियादी ढांचा तैयार किया जा सकता है। इसे मेंबर ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट स्कीम यानी एमपीलैड्स का नाम दिया गया। मार्च 2009 तक सरकार इस योजना के तहत 19,426 करोड़ रुपये जारी कर चुकी है।
ऐसी परियोजनाओं के लिए हर संसद सदस्य को साल में 2 करोड़ रुपये मिलते हैं। जब एमपीलैड्स की शुरुआत हुई थी तो उस वक्त यह रकम इतनी नहीं थी। इस योजना के शुरूआती साल में एक संसद सदस्य को महज 5 लाख रुपये मिलते थे।
अगले साल इसे बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये कर दिया गया। इसे 1998-99 में दुगना कर दिया गया और उस वक्त से अब तक इस आवंटन में कोई बदलाव नहीं हुआ है। नई लोकसभा की मियाद आम चुनावों के परिणाम घोषित हो जाने के बाद अगले महीने शुरू होने वाली है।
उसके बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि एमपीलैड्स के तहत जारी रकम का जनप्रतिनिधियों ने किस तरह इस्तेमाल किया। इस मामले में सुखद आश्चर्य यह है कि दूसरी सरकारी योजनाओं अथवा परियोजनाओं के उलट एमपीलैड्स के तहत जारी रकम का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है।
समग्र तौर पर देखा जाए तो पिछले 15 सालों में इस योजना के तहत जारी रकम का 93 फीसदी तक उपयोग हुआ है। सिर्फ 4 राज्यों और 1 केंद्र शासित क्षेत्र के नुमाइंदों ने ही 90 फीसदी से कम रकम का इस्तेमाल किया है। ये राज्य बिहार, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और लक्षद्वीप हैं।
तकरीबन 9 राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र ऐसे हैं जहां के सांसदों ने इस योजना के तहत जारी रकम के 95 से 99 फीसदी तक का इस्तेमाल किया है। इस मामले में तमिलनाडु के सांसद शीर्ष पर हैं। इसके बाद मिजोरम, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, दादरा और नागर हवेली, चंडीगढ़ और सिक्किम के सांसदों की बारी आती है।
अहम तथ्य यह है कि छोटे राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों के संसद सदस्यों ने एमपीलैड्स के तहत आवंटित रकम का बेहतर इस्तेमाल किया है। इस मामले में तमिलनाडु एकमात्र अपवाद है। पर बडे राज्यों के संसद सदस्यों के प्रति ईमानदारी बरती जानी चाहिए।
क्योंकि एक ऐसे देश में जहां ज्यादातर योजनाओं के तहत जारी रकम का सरकारी एजेंसियों और मंत्रालयों द्वारा इस्तेमाल ही नहीं हो पाता, वहां एमपीलैड्स के 90 से 95 फीसदी का इस्तेमाल कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। क्या इस मामले में लोक सभा सदस्य, राज्य सभा सदस्यों की तुलना में बेहतर हैं?
जी हां, बिल्कुल। इस दौरान लोक सभा सदस्यों को 13,637 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। इसके 95 फीसदी का उन्होंने उपयोग किया। इसकी तुलना में अगर देखा जाए तो राज्य सभा सदस्यों को इस दौरान 5,789 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। इसके महज 88 फीसदी का ही इस्तेमाल राज्य सभा सदस्य कर पाए।
राज्य सभा सदस्यों को यह अधिकार है कि वे जिस राज्य से चुनकर आते हैं, उसके एक या ज्यादा जिले में काम की सिफारिश कर सकते हैं। इसके बावजूद इन संसद सदस्यों ने एमपीलैड्स का कम इस्तेमाल किया। लोक सभा सदस्य सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र में ही काम के लिए सिफारिश कर सकता है।
एमपीलैड्स के तहत जारी रकम के इस्तेमाल की बाबत जिला प्राधिकरणों द्वारा एकत्रित आंकड़े एक रोचक चलन को सामने लाते हैं। अभी तक इस योजना के तहत 19,426 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। इसमें से 7,000 करोड़ के खर्चे का ब्योरा सांख्यिकी एवं योजना कार्यान्वयन मंत्रालय के पास उपलब्ध हैं।
यही मंत्रालय इस योजना की निगरानी करता है। जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक एमपीलैड्स का बड़ा हिस्सा पेयजल सुविधा, शिक्षा, बिजली, गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, स्वच्छता एवं जन स्वास्थ्य, सिंचाई, सड़क एवं पुल, खेल, पशुपालन और अन्य जन सुविधाओं के मद में खर्च हुआ है।
जिले के अधिकारियों के मुताबिक शिक्षा, सड़क और पुल, पेयजल सुविधाएं और अन्य जन सुविधाओं के मामले में आधा से ज्यादा पैसा खर्च हुआ है। रोचक बात यह है कि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के संसद सदस्य इस योजना के इस्तेमाल में ज्यादा सक्रिय रहे। इसकी तुलना में अगर देखा जाए तो उत्तर पूर्वी राज्यों के संसद सदस्यों का प्रदर्शन खराब रहा।
जिला अधिकारियों ने जो आंकड़े एकत्रित किए हैं, उनके मुताबिक पिछले 15 साल में नगालैंड में एमपीलैड्स योजना के तहत कोई भी परियोजना शुरू नहीं हुई। अगर आवंटित रकम के इस्तेमाल को पैमाना माना जाए तो एमपीलैड्स बेहद सफल साबित हुई है। हालांकि, किसी भी योजना की सफलता को सिर्फ इसी एक पैमाने पर नहीं मापा जाना चाहिए।
सरकार के पास उपलब्ध आंकड़ों का इस्तेमाल यह पता लगाने के लिए किया जाना चाहिए कि आवंटित हुआ और उपयोग में लाया गया पैसा सही ढंग से खर्च किया गया या नहीं।
निश्चित तौर पर एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसके जरिए यह पता लगाया जा सके कि क्या इस योजना के तहत जारी रकम के जरिए संसद सदस्य सही मायने में टिकाऊ सामुदायिक संपदा का निर्माण कर रहे हैं या सिर्फ चुनाव में लाभ उठाने के लिए कर रहे हैं?
