वर्ष 2022 में आमतौर पर मुद्रास्फीति 6 फीसदी के स्तर के ऊपर ही रही है। यह मुद्रास्फीति के घोषित लक्ष्य की ऊपरी सीमा है। सरकार ने हाल ही में संसद में कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक ने एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें उसकी नाकामी की वजह बताई गई है। रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के प्रश्न पर सरकार ने कहा कि कानून इसकी इजाजत नहीं देता। बहरहाल हमारा मानना है कि इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की पर्याप्त वजह मौजूद हैं। अगर जरूरत पड़े तो इसके लिए कानून में संशोधन भी किया जाना चाहिए।
जहां तक मुद्रास्फीति की बात है तो वह सबके लिए बुरी है और गरीबों को अधिक प्रभावित करती है। कम, स्थिर और अनुमानयोग्य मुद्रास्फीति को आर्थिक संस्थाओं की दीर्घकालिक योजनाओं की बुनियाद माना जाता है। कोई फर्म दीर्घकालिक योजना कैसे बना सकती है? 20 वर्ष की आयु में कोई व्यक्ति 90 वर्ष की आयु की पेंशन योजना कैसे तैयार कर सकता है? नियोजन के लिए यह जरूरी है कि भविष्य की कम, स्थिर और अनुमानित मुद्रास्फीति को लेकर तार्किक सुनिश्चितता हो। भारत कम, स्थिर और अनुमान योग्य मुद्रास्फीति हासिल नहीं कर सका है।
केंद्रीय बैंकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली फिएट मनी यानी कागजी मुद्रा का आविष्कार सदियों पहले किया गया था। यह सही है कि इन मुद्राओं के कई लाभ हैं लेकिन इसके बावजूद कागजी मुद्रा और केंद्रीय बैंकों को कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ा है। इस दिशा में बौद्धिक पहल 1980 के दशक के आरंभ में हुई जब यह स्पष्टता आई कि केंद्रीय बैंक को एक स्वतंत्र एजेंसी होना चाहिए जो फिएट मनी बनाती है तथा जिसका लक्ष्य कम, स्थिर और अनुमान योग्य मुद्रास्फीति को लक्षित करना है। मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने के साथ ही सदियों की नाकामी के बाद पहली बार केंद्रीय बैंकों को मजबूती मिली। केंद्रीय बैंकों के साथ मुद्रास्फीति को लक्षित करना आमतौर पर कारगर रहा और यह तेजी से एक देश से दूसरे देश तक फैला। अब तो ऐसी तमाम लिखित सामग्री उपलब्ध है जो यह बताती है कि किसी भी देश का आर्थिक प्रदर्शन इन सुधारों के क्रियान्वयन के बाद और बेहतर होता है।
भारत में आधुनिक मुक्त अर्थव्यवस्था और वृहद आर्थिक विचार के उभार के साथ मौद्रिक नीति व्यवस्था को लेकर विचार भी बदल रहे हैं। नए विचार की शुरुआत स्वर्गीय दिनांक खटखटे जैसे कुछ बौद्धिकों के साथ हुई। वित्त के अन्य क्षेत्रों की तरह ढेर सारी विशेषज्ञ समितियों ने इस नए विचार को भी एक नई रूढ़िवादिता में बदल दिया।
इसकी शुरुआत 2002 में वाईवी रेड्डी की अध्यक्षता वाली अंतरराष्ट्रीय मानक एवं संहिता पर स्थायी समिति से हुई। इसके बाद 2006 में एसएस तारापोर की अध्यक्षता में पूजी खातों की पूर्ण परिवर्तनीयता वाली समिति और 2009 में रघुराम राजन की अध्यक्षता में वित्तीय क्षेत्र सुधार समिति आई। अंत में 2013 में बीएन श्रीकृष्णा की अध्यक्षता में वित्तीय क्षेत्र विधायक सुधार आयोग का गठन हुआ। इन सभी ने यह सुझाव दिया कि दरें बदलने का अधिकार गवर्नर से एक सांविधिक मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) को हस्तांतरित कर दिया जाए। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को भारतीय रिजर्व बैंक का प्राथमिक लक्ष्य बनाने को लेकर बौद्धिकों की सहमति बनने में कुछ और वक्त लगा। 2014 में ऊर्जित पटेल की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति जो मौद्रिक नीति ढांचे को मजबूत बनाने और उसकी समीक्षा के लिए बनी थी उसने इन विचारों को आगे बढ़ाया और जोर दिया कि एक स्पष्ट प्रणाली होनी चाहिए जिसके तहत रिजर्व बैंक को इस लक्ष्य के लिए जवाबदेह ठहराया जाए।
इस क्षेत्र में औपचारिक घोषणा 2014 में नई सरकार के पहले बजट भाषण में की गई और फरवरी 2015 में मौद्रिक नीति ढांचा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। आखिर में सितंबर 2016 में आरबीआई अधिनियम 1934 में संशोधन करके एमपीसी को सांविधिक दर्जा दिया गया ताकि वह वृद्धि को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता के लिए काम करे। एमपीसी को मुद्रास्फीति के लक्ष्य निर्धारण का काम सौंपना मौजूदा सरकार की प्रमुख कामयाबियों में से एक है। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता तथा वस्तु एवं सेवा कर भी ऐसी ही सफलताएं हैं।
भारतीय वित्तीय तंत्र की सीमाओं को देखते हुए आरबीआई को दो फीसदी या चार फीसदी का मुद्रास्फीति लक्ष्य सौंपना शायद कारगर न होता। भारतीय बॉन्ड बाजार तथा बैंकिंग क्षेत्र में कई कमजोरियां हैं। बॉन्ड-करेंसी-डेरिवेटिव के गठजोड़ की बात करें तो वह नदारद है। ऐसे में मौद्रिक नीति पारेषण कमजोर है। हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि रिजर्व बैंक से ऐसी मांग कर सकें जो विकसित देशों में स्वीकार्य हैं। आरबीआई को एक व्यापक लक्ष्य दिया गया कि वह मुद्रास्फीति को दो से छह फीसदी के दायरे में रखे।
कुछ वर्षों से यह कारगर रहा है और भारत को मूल्य स्थिरता की नई व्यवस्था मिली। हाल के वर्षों में एक अहम चिंता यह है कि मुद्रास्फीति निरंतर छह फीसदी के स्तर को पार कर गई। यह दिक्कतदेह बात है जिसे चिह्नित किया जाना चाहिए। नाकामियों की वजह का पता करके सुधार करने के लिए जरूरी उपाय करने होंगे।
सैद्धांतिक तौर पर चार संभावनाएं हैं जिनके चलते कोई केंद्रीय बैंक लक्ष्य प्राप्ति में विपुल हो सकता है।
हर बार जब मुद्रास्फीतिक लक्ष्य हासिल करने में नाकामी हाथ लगती है तो हमें नाकामी के चार स्रोतों पर इसका बोझ डालना होता है। एक बार ऐसा होने के बाद हमें उपचारात्मक कदम उठाने चाहिए। यह प्रिंसिपल यानी संसद का काम है जिसे हर हाल में एजेंट यानी आरबीआई के साथ अनुबंध की समीक्षा करनी चाहिए और उसमें संशोधन करना चाहिए ताकि बेहतर प्रदर्शन तय हो सके। इस प्रक्रिया के लिए यह उपयोगी होगा कि आरबीआई अपनी नाकामी का स्वआकलन सार्वजनिक करे और जरूरी उपायों को लेकर अपने विचार भी दे। यह मानते हुए कि इस मामले में आरबीआई की रुचि है, दस्तावेजों को सार्वजनिक रूप से पेश किया जाना चाहिए ताकि निष्पक्ष पक्षकार सही उपाय सुझा सकें।
खामियों को दूर करके सांस्थानिक सुधार की इस निरंतर प्रक्रिया को पारदर्शिता से मदद मिलेगी। आरबीआई की नियमित रिपोर्ट के अलावा एमपीसी की बैठकों में इस्तेमाल होने वाले मॉडल और डेटा तथा स्लाइडशो आदि को भी जारी किया जाना चाहिए। एमपीसी के हर सदस्य को करीब 1,000 शब्द का तार्किक वक्तव्य लिखना चाहिए ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उन्होंने किस आधार पर मतदान किया। ऐसा करके निर्णयों के लिए एमपीसी के हर सदस्य की व्यक्तिगत जवाबदेही तय की जा सकेगी।
(लेखक पूर्व लोक सेवक, सीपीआर में मानद प्रोफेसर एवं कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य हैं)