विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोग भारत की विदेश नीति के लिए सदैव से मजबूत स्रोत रहे हैं। दुनिया के जिन हिस्सों, खासकर पश्चिमी देशों में, भारत से गए लोग बसे हैं, वहां की सरकारों और भारत के नीति निर्धारकों दोनों के लिए वे आपसी संबंधों को मजबूती देने वाली कड़ी के रूप में काम करते रहे हैं।
यह बात अमेरिका जैसे देशों के मामले में अधिक लागू होती हैं, जहां भारतीय मूल के लोग काफी उपयोगी एवं प्रभावशाली माने जाते रहे हैं। उदाहरण के लिए भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की माध्य आय कई अनुमानों के अनुसार अन्य देशों के लोगों की तुलना में अधिक रही है।
यह भी एक कारण है जिससे अमेरिका में आव्रजन को लेकर कड़ा रुख रखने वाले राजनीतिज्ञ भी भारतीय मूल के लोगों को ‘आदर्श अल्पसंख्यक’ के रूप में देखते हैं। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भारतीय मूल के लोगों ने राजनीति में भी दमदार छाप छोड़ी है। अमेरिका की उप-राष्ट्रपति सहित पुर्तगाल, आयरलैंड और ब्रिटेन में भारत से ताल्लुक रखने वाले लोग प्रधानमंत्री हैं।
यह एक लाभकारी स्थिति है जिसका लाभ भारत में वर्तमान सरकार ने स्वाभाविक तौर पर उठाया है। प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरे में नियमित तौर पर प्रवासी भारतीयों से मिलते हैं। ये मिलन समारोह प्रायः सार्वजनिक मंचों पर होते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन में तो कई बार ऐसे आयोजन बड़े स्टेडियमों जैसे मैडिसन स्क्वायर गार्डन आदि में हो चुके हैं। दो अवसरों पर तो स्थानीय नेता (टैक्सस में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और लंदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन) भी इन आयोजन को संबोधित कर चुके हैं।
अब तक सबकुछ ठीक रहा है मगर इस बात को लेकर चिंता भी जताई जा रही है कि अगले दशक में प्रवासी भारतीय विदेश एवं घरेलू नीतियों के लिए अधिक पेचीदा स्थिति खड़ी कर सकते हैं। पंजाब में कुछ समय से व्याप्त तनाव को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। राज्य में पूरी समस्या एक प्रचारक की धर-पकड़ की कोशिश के बाद शुरू हुई है।
भारत सरकार इस प्रचारक को राज्य में पृथकतावादी आंदोलन को हवा देने का दोषी मानती है। जिन देशों, खासकर राष्ट्रमंडल देशों में जहां सिख समुदाय की अधिक आबादी है वहां भी टकराव पूरी तरह खुलकर सामने आ गया है। ऑस्ट्रेलिया में जनवरी के अंत में हिंसा फैल गई जिसमें दो लोगों की मौत हो गई। मेलबर्न में कथित तौर पर दो मंदिरों को नुकसान पहुंचाने की खबर सोशल मीडिया पर आने के बाद हिंसा फैल गई।
भारतीय प्रधानमंत्री ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ एक आधिकारिक समारोह में जोर दिया कि दुनिया में शांति-सद्भाव के लिए ऐसी घटनाओं से निपटना महत्त्वपूर्ण है। हाल के दिनों में लंदन और सैन फ्रांसिस्को दोनों जगहों में भारतीय कूटनीतिक मिशन को प्रदर्शनकारियों से जूझना पड़ा है। अमेरिका और ब्रिटेन दोनों देशों की तरफ से इन घटनाओं पर सख्त बयान जारी किए गए।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स क्लेवर्ली ने इन्हें ‘बरदाश्त नहीं की जाने वाली घटना’ करार दिया। हालत यहां तक पहुंच गई है कि अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें भारत में राष्ट्रवादी भावना के निशाने पर आ गई हैं। इस बीच, कनाडा में स्थानीय राजनीतिज्ञ भी इस मामले में शामिल हो गए हैं।
यह तब हुआ जब कनाडा में सरकार को समर्थन देने वाली एक प्रमुख पार्टी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता का ट्विटर फीड भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया। इन नेता का ट्विटर फीड इसलिए प्रतिबंधित किया गया कि उन्होंने पंजाब में स्थिति को लेकर जस्टिन ट्रूडो से हस्तक्षेप की मांग की थी।
कुछ दूसरी दीर्घ अवधि की समस्याएं भी हैं। खासकर, पिछले साल ब्रिटेन के शहर लीसेस्टर में सांप्रदायिक हिंसा काफी चर्चा में रही थी। लीसेस्टर में बड़ी संख्या में दक्षिण एशियाई मूल के लोग रहते हैं। इस हिंसा ने दक्षिण एशिया में हिंदू-मुस्लिमों के बीच अक्सर होने वाले दंगों की याद दिला दी। यह इस बात का भी संकेत था कि ब्रिटेन में दोनों संप्रदायों का तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है।
पहले ब्रिटेन में दक्षिण एशियाई समुदायों के बीच स्थानीय प्रशासन दोनों पक्षों के धार्मिक नेताओं के जरिये विवाद सुलझा लिया करता था। इनमें कई नेताओं के एक दूसरे के धर्म में भी गहरी आस्था रही है। मगर लीसेस्टर में यह तरीका काम नहीं आया। इसका कारण यह था कि दोनों समुदायों के युवा सदस्य सोशल मीडिया पर चरमपंथी विचारों से अधिक प्रभावित हो रहे थे। इनमें वे लोग भी थे जिनका ब्रिटेन से बिल्कुल कोई संपर्क नहीं था मगर वे अपने अतिवादी विचारों से लोगों के दिल-दिमाग पर नकारात्मक असर डाल रहे थे।
हालांकि इस दंगों का तात्कालिक कारण विवादित धार्मिक उपदेशक निशा ऋतंभरा की ब्रिटेन यात्रा थी। ऋतंभरा ब्रिटेन में वाचन करने आई थीं। हिंसा से ऐसे संकेत मिले कि मिडलैंड्स में तनाव की वजह भारतीय उपमहाद्वीप में दोनों समुदायों के बीच आपसी रंजिश थी और इसका कोई स्थानीय कारण नहीं था।
लीसेस्टर दंगों में भाग लेने वाले ब्रिटेन के मुस्लिम भारतीय मूल के थे मगर गोवा से ताल्लुक रखने वाले कुछ ईसाई भी इनमें शामिल थे। इस विषय पर भारतीय उच्चायुक्त की तरफ से आए बयान में ‘हिंदू धर्म की रक्षा की जरूरत’ पर जोर दिया गया था। इस खास मामले में यह उचित था या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है मगर इससे भारतीय उच्चायुक्त के स्थानीय राजनीति में उलझने का जोखिम बढ़ गया।
यह जोखिम तब और बढ़ जाता है जब भारत दुनिया के किसी देश में वहां के राजनीतिक दलों के बीच मतभेद का कारण बनने लगता है। कनाडा में यह खतरा तेजी से बढ़ रहा है, यह अलग बात है कि ट्रूडो भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात रखने की पूरी कोशिश करते रहे हैं।
अमेरिका में प्रधानमंत्री मोदी ने तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप के साथ खड़ा होकर ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ कहकर किसी भी लिहाज से बुद्धिमानी का परिचय नहीं दिया था। अगर यह नारा मजाक भी था तब भी इसकी जरूरत नहीं थी। ब्रिटेन में यह विभाजन और बड़ा हो गया है। वहां कंजर्वेटिव पार्टी हिंदुओं और लेबर पार्टी मुस्लिमों को रिझाने का प्रयास करती रही हैं। लेबर पार्टी ओपिनियन पोल में 30 से 40 प्रतिशत अंक की बढ़त बनाए हुए है।
पश्चिमी देशों के साथ भारत के संबंधों की दो सबसे मजबूत कड़ी यह रही है कि वहां भारतीय मूल को लोगों को सभी दलों का समर्थन प्राप्त रहा है भारतीय मूल के लोगों को बखेड़ा खड़ा करने वाले समुदाय के रूप में नहीं देखा जाता रहा है। अगर प्रवासी भारतीयों को लेकर विदेश में नजरिया बदलता है तो इससे भविष्य में भारत के लिए निर्णय लेना पेचीदा हो सकता है।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में निदेशक, सेंटर फॉर द इकॉनमी ऐंड ग्रोथ हैं)