पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में कई बेमिसाल खूबियां थीं मगर उनके व्यक्तित्व में न तो बाहरी चमक-दमक थी और न ही कोई करिश्मा था। वास्तव में बाहरी चकाचौंध से दूर रहने में ही उनकी राजनीतिक यात्रा और शानदार उपलब्धियों का सार छिपा था।
अपने राजनीतिक जीवन और एक आर्थिक सुधारक के रूप में सिंह ने जो उपलब्धियां हासिल कीं उनकी वजह से वह भारत के अब तक के सबसे अच्छे वित्त मंत्री कहलाएंगे और शायद सबसे अच्छे प्रधानमंत्री भी (हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है)। वह जिंदगी भर मंझे हुए नीति निर्धारक के रूप में काम करते रहे। सिंह ने अपनी विद्वता और डटकर मेहनत करने की खूबियों के बल पर कठिन आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी हुनर हासिल किया।
करिश्मा नहीं होने के कारण ही राजनेताओं को कभी सिंह से कोई खतरा नहीं लगा। राजनीतिक गलियारों में उन्हे किसी ने भी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं माना। उनका कोई राजनीतिक आधार भी नहीं था, जिस कारण दूसरे नेताओं ने उन्हें देश को भीषण भुगतान संकट से उबारने और 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के उपाय करने से नहीं रोका। किसी के लिए सियासी खतरा नहीं होने की उनकी खासियत ने ही बाद में उन्हें प्रधानमंत्री भी बनाया।
प्रधानमंत्री के रूप में एक बार फिर सिंह ने देश की अर्थव्यवस्था को सधी हुई दिशा दी और उस भीषण वैश्विक वित्तीय संकट में भी देश की अर्थव्यवस्था को डगमगाने नहीं दिया, जैसा संकट पिछले कई दशकों में नहीं दिखा था।
राजनेता को चुनाव तो उसकी शख्सियत का करिश्मा ही जिताता है। अगर राजनेता इसके साथ जनता को गुमराह करने, मुरीद बनाने और झूठ बोलने की कला में भी पारंगत हो तो वह करिश्मा राजनीति में उसके बहुत काम आता है। मगर कुशल प्रशासक या अच्छा नीति निर्माता बनने के लिए ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व की जरूरत नहीं होती। मिसाल के तार पर एडॉल्फ हिटलर और एंगिला मर्केल को ही देख लीजिए। हिटलर की शख्सियत करिश्माई थी मगर उसके समय में जर्मनी का क्या हश्र हुआ? दूसरी ओर मर्केल ने करिश्मे से दूर रहते हुए जर्मनी को आर्थिक और भू-राजनीतिक ताकत बना दिया।
सिंह शायद एक चुनाव तक नहीं जीत पाते। वह राज्य सभा के सहारे संसद में पहुंचते थे। लेकिन उन्होंने संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को न केवल संभाला बल्कि उसे प्रगति के पथ पर भी आगे बढ़ाया। उन्होंने गठबंधन सरकार के बंधनों में रहते हुए भी वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान अर्थव्यवस्था को क्षति नहीं पहुंचने दी।
उनकी उपलब्धियां कितनी बड़ी थीं, इसका अंदाजा उन परिस्थितियों की कल्पना करने से हो जाता है, जिनमें भारत फंस सकता था। उदाहरण के लिए 1991 के मध्य में भारत भुगतान संकट से जूझ रहा था और कई लोगों को लगने लगा था कि देश आने वाले कई सालों के लिए आर्थिक उथलपुथल के दलदल में फंस जाएगा। ऐसी ही परिस्थितियों में फंसने के बाद अर्जेंटीना, ब्राजील, जमैका, मेक्सिको, रूस और यहां तक कि एशिया की मजबूत समझी जाने वाली अर्थव्यवस्थाएं कई साल तक महंगाई की आग में झुलसती रहीं, उनकी मुद्राएं धड़ाम हो गईं और पूरी अर्थव्यवस्था तहस-नहस होने के कगार पर पहुंच गईं।
भारत की दशा भी उस समय अर्जेंटीना जैसी होती। 1991 में भारत भुगतान संकट से जूझ रहा था, आर्थिक वृद्धि दर गिरकर शून्य के करीब रह गई थी, बुनियादी ढांचा चरमरा गया था, लालफीताशाही और ऊंची बेरोजगारी से चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। भारत पूरी तरह ऊर्जा के आयात पर निर्भर था मगर आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पा रही थीं। एक बड़ी आबादी अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए देश में बुनियादी हुनर सिखाने वाले लोगों का भी टोटा था।
सिंह की नई आर्थिक नीतियों ने देश को लाइसेंस राज की बीमारी से निजात दिलाई, जिससे शून्य के करीब मंडरा रही आर्थिक वृद्धि दर चढ़कर 6 प्रतिशत के ऊपर पहुंच गई। एक सोची-समझी नीति के तहत रुपये का अवमूल्यन कर व्यापार में संतुलन साधा गया। पीछे मुड़कर देखें तो सिंह ने आर्थिक चमत्कार कर दिखाया था। भुगतान संकट के पांच साल बाद भारत की आर्थिक सेहत न केवल सुधरी बल्कि 1991 की तुलना में बहुत बेहतर हो गई। भारतीयों का जीवन और उनका रहन-सहन पहले के मुकाबले बहुत शानदार हो गया। था।
सिंह को सब-प्राइम संकट (2007-2008 में अमेरिका में शुरू हुआ आवास ऋण संकट) संभालने और उसके बाद 2008 से 2012 तक इसके दुष्प्रभावों से देश को बचाने का पूरा श्रेय नहीं दिया जाता है। जब सिंह ने पहली बार प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी तो उस समय दुनिया में संपन्नता थी और भारत ने भी इसका खूब लाभ उठाया। उस समय भारत की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व गति से बढ़ी।
सब-प्राइम संकट के दौरान भी सिंह ने देश की आर्थिक गति कम होने नहीं दी। इसे समझने के लिए भी आप कल्पना कर सकते हैं कि सिंह ने अपनी आर्थिक सूझबूझ नहीं दिखाई देती तो भारत किस स्थिति में होता। अमेरिका में आवास ऋण संकट के दूरमागी प्रभावों से दूसरा वैश्विक वित्तीय संकट खड़ा हो गया। इस संकट से पूरा यूरोपीय संघ प्रभावित हुआ और वैश्विक अर्थव्यवस्था कई सालों तक लचर हालत में रही। मगर भारत इस संकट से भी बिना खरोंच निकल गया।
मुद्रा और उसके इस्तेमाल को दूसरों से कहीं बेहतर समझने वाले शख्स पर इतने संकटों से जूझने के बाद भी एक दाग तक नहीं लगा, जो खुद बड़ी उपलब्धि है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दोनों कार्यकालों में कई घोटाले सामने आए मगर सिंह की निष्ठा एवं ईमानदारी पर किसी ने शक नहीं किया। ज्यादा से ज्यादा लोग बोलने की कला में माहिर नहीं होने के लिए सिंह पर तंज कसा करते थे।
21वीं शताब्दी के भारतीय राजनीतिज्ञों में बिल्कुल अलहदा किस्म के सिंह ने अपना महिमामंडन करने, अपनी जेब भरने या अपने परिवार को फायदा पहुंचाने का काम कभी नहीं किया। सिंह की पुत्रियां काफी शिक्षित हैं और उन्होंने अपने बूते ही अपनी पहचान बनाई हैं।
सिंह के व्यक्तित्व और देश की तरक्की में उनके योगदान के बारे में काफी-कुछ लिखा जाएगा मगर वह सब बेमानी ही होगा। देश को तरक्की की जिस राह पर वह छोड़ गए हैं वही उनके व्यक्तित्व की असली पहचान है।