मैंने अक्सर इस बात पर जोर दिया है कि भारतीय उद्योग जगत को शोध एवं विकास (आरऐंडडी) पर अधिक रकम खर्च करनी चाहिए। भारतीय उद्योग जगत अपने आंतरिक आरऐंडडी में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 0.3 प्रतिशत निवेश करता है, जबकि दुनिया भर में यह औसत 1.5 प्रतिशत है। आरऐंडडी में सबसे अधिक निवेश करने वाली 2,500 कंपनियों में भारतीय कंपनियां केवल 25 हैं।
हमारे समक्ष चार चुनौतियां हैं। दुनिया में आरऐंडडी में निवेश करने वाले शीर्ष 10 उद्योगों में से 6 उद्योगों – तकनीक हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, निर्माण, स्वास्थ्य सेवा, सामान्य औद्योगिक और औद्योगिक इंजीनियरिंग में हम हैं ही नहीं। जहां भारतीय कंपनियां हैं, उन उद्योगों में भी वे आरऐंडडी पर वैश्विक औसत से कम खर्च करती हैं।
शीर्ष 2,500 कंपनियों में भारत की चार वाहन कंपनियां टाटा मोटर्स, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा, बजाज ऑटो और टीवीएस मोटर्स हैं, जो अपने वैश्विक कारोबार का 3.8 प्रतिशत आरऐंडडी पर खर्च करती हैं। ब्रिटेन में टाटा मोटर्स की सहायक इकाई जेएलआर को हटा दें तो आंकड़ा कम होकर 1 प्रतिशत से थोड़ा ही अधिक रह जाता है।
वाहन क्षेत्र में आरऐंडडी पर औसत वैश्विक खर्च 4.8 प्रतिशत है। सॉफ्टवेयर क्षेत्र में शीर्ष भारतीय कंपनियां (टीसीएस, इन्फोसिस, एचसीएल) अपने कारोबार का 1 प्रतिशत आरऐंडडी पर खर्च करती हैं जबकि शीर्ष 2,500 कंपनियों का औसत निवेश 14 प्रतिशत ठहरता है।
दवा क्षेत्र में शीर्ष 5 भारतीय कंपनियां अपनी बिक्री का 6 प्रतिशत आरऐंडडी पर खर्च करती हैं। यह 17 प्रतिशत के वैश्विक औसत से कम है मगर भारत में दूसरे किसी भी उद्योग से ज्यादा है। समस्या यह है कि हमारी दवा कंपनियां छोटी हैं। हमारी पांच सबसे बड़ी दवा कंपनियों (सन फार्मा, डॉ रेड्डीज, अरविंदो, ल्यूपिन, सिप्ला) का औसत कारोबार 3 अरब डॉलर है, जो दुनिया की शीर्ष 20 दवा कंपनियों के 45 अरब डॉलर के औसत कारोबार से बहुत कम है। हमारी पांचों कंपनियां आरऐंडडी पर औसतन 20 करोड़ डॉलर खर्च करती हैं, शीर्ष 20 कंपनियां औसतन 7 अरब डॉलर लगाती हैं।
हमारी सफलतम कंपनियां आरऐंडडी निवेश में बहुत पीछे हैं। वित्तीय क्षेत्र के बाहर सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली शीर्ष 10 भारतीय कंपनियों को कुल बिक्री का औसतन 16 फीसदी मुनाफा होता है मगर आरऐंडडी पर वे मुनाफे का 2 प्रतिशत ही लगाती हैं।
अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी में मुनाफे में रहने वाली शीर्ष 10 गैर-वित्तीय कंपनियों का औसत मुनाफा बिक्री के 9 से 25 प्रतिशत के बीच रहता है मगर वे मुनाफे का 29 से 55 प्रतिशत आरऐंडडी पर लगाती हैं। मुनाफे के लिहाज से आरऐंडडी पर खर्च में अंतर बहुत अधिक (20 गुना) है। वास्तव में किसी भी उद्योग में हमारी सर्वाधिक सफल कंपनियां आरऐंडडी में बहुत मामूली निवेश करती हैं।
प्रौद्योगिकी के अधिक इस्तेमाल वाले क्षेत्रों में गैर मौजूदगी, बाकी उद्योगों में कम आरऐंडडी गतिविधि और आरऐंडडी पर कम खर्च जैसी चुनौतियों के कारण ही भारत में आरऐंडडी पर खर्च कम रह जाता है। फिर क्या किया जाए? सितंबर में इसी समाचार पत्र में अपने एक लेख में लवीश भंडारी ने तर्क दिया था कि प्रतिस्पर्द्धा बड़ी समस्या है।
उनका कहना है कि कंपनियों को देश के भीतर आरऐंडडी में निवेश करने की कोई वजह नहीं दिखती क्योंकि वे पहले ही सुरक्षित बाजार में कारोबार कर ऊंची कमाई कर रही हैं। आरऐंडडी का नतीजा क्या आएगा, इस ऊहापोह से जूझने की उन्हें जरूरत ही नहीं है। यह तर्क दमदार है मगर मैं कहूंगा कि प्रतिस्पर्द्धा की गुणवत्ता मायने रखती है। प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी तो क्षमता बढ़ सकती है मगर उत्पादों में नवाचार आना जरूरी नहीं है। प्रतिस्पर्द्धा का स्वरूप बदलना चाहिए और उन कंपनियों को लाना चाहिए, जो बेहतर उत्पाद की होड़ करती हैं, कम कीमत की नहीं।
कंपनी की वर्तमान स्थिति भी मायने रखती है। फिलिप एगियन, सेलीन एंटोनिन और सिमोन ब्यूनेल की हाल ही में आई ‘द पावर ऑफ क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन’ नवाचार पर अच्छी पुस्तक है। इसमें ‘इज कॉम्पटिशन अ गुड थिंग’ नाम के अध्याय में उन्होंने कहा है कि कंपनियां बढ़ती होड़ पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देती हैं, जो इस बात पर निर्भर करती है कि वे तकनीकी मोर्चे से कितनी दूर हैं। वे अत्याधुनिक तकनीक से ज्यादा दूर हुईं तो होड़ में उतरेंगी ही नहीं। अगर नजदीक हुईं तो होड़ से बचने के लिए ज्यादा नवाचार करेंगी।
आयात से बचने का मतलब निर्यात बाजार में प्रतिस्पर्द्धा करना भी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में सामान बेचने के कई फायदे होते हैं। पहला फायदा बड़ा बाजार है। भारत बेशक बड़ा बाजार होगा, लेकिन बाकी दुनिया के मुकाबले छोटा ही है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) के मुक्त व्यापार क्षेत्र में शामिल 15 एशियाई देशों का जीडीपी हमारे जीडीपी का 8 गुना है। 10 दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का आसियान बाजार हमारे बाजार से दोगुना है।
दूसरे फायदे भी हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बेचने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कंपनियों से होड़ करने पर नवाचार को बढ़ावा मिलता है। मगर एगियन और उनके साथियों के मुताबिक निर्यात बाजार बढ़ने से उन कंपनियों में नवाचार बढ़ता है, जो तकनीक के बेहद करीब होती हैं। जो कंपनियां दूर होती हैं, वे निर्यात के बाद भी नवाचार नहीं करतीं।
मनमोहन सिंह का 1991 का ऐतिहासिक बजट आने के बाद फोर्ब्स मार्शल ने दो फैसले किए। सबसे पहले हम समझ गए कि दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां जल्द भारत का रुख करेंगी और अगर हमने विदेश में उन्हें मात दे दी तो घर में तो पीट ही लेंगे। लिहाजा सीखने के लिए हमने निर्यात शुरू कर दिया। दूसरा, हमने आरऐंडडी में खूब निवेश शुरू कर दिया और ऐसे उत्पाद तैयार करने लगे, जिन्हें पूरी दुनिया में बेच सकें। भारतीय बाजार के विदेशी कंपनियों के खुलने से पहले जो भी समय था, उसका इस्तेमाल हमने नई तकनीक के करीब पहुंचने में किया। भारतीय उद्योग के लिए अब भी यह मौका है।
जब मैं अपने मित्रों से कहता हूं कि भारतीय कंपनियां आरऐंडडी में कम निवेश क्यों करती हैं तो पुरानी दलील सुनाई पड़ती हैं कि हम कारोबारी मिजाज की वजह से आरऐंडडी में कम निवेश करते हैं या हम भांप नहीं पाते कि आरऐंडडी पर खर्च का आगे जाकर कितना फायदा होगा। मुझे लगता है कि मामला अलग है। कई उद्योगपतियों को लगता है कि वे आरऐंडडी पर पहले ही पर्याप्त खर्च कर रहे हैं। इसलिए ज्यादातर उद्योगों की दिग्गज कंपनियां आरऐंडडी पर कितना कम खर्च कर रही हैं, यह दिखाना ही मैंने अपना मिशन बना लिया है।
शायद इसका कुछ फायदा हो मगर असली फर्क तब पड़ेगा, जब सभी को दिखेगा कि आरऐंडडी की मदद से कंपनियां किस तरह सफल हो रही हैं। इसके साथ मजबूत निर्यात नीति अपनाई जाए तो आरऐंडडी से मिलने वाले लाभ कई गुना और बढ़ जाएंगे। चंद कंपनियों की सफलता भारतीय उद्योग को अपने लिए खास तकनीक तैयार करने और दुनिया भर में उसे आजमाने का हौसला दे सकती है। समय आ गया है कि हमारे पास नई तकनीक के मोर्चे पर काम करने वाली सैकड़ों कंपनियां रहों, जो नवाचार बढ़ाने के लिए आयात और निर्यात के मोर्चों पर ज्यादा से ज्यादा होड़ करें।
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन एवं सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं)