आदित्य चोपड़ा की 1995 में आई फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ दुनिया की चर्चित फिल्मों में से एक है। राज एवं सिमरन की प्रेम कहानी वाली यह फिल्म शाहरुख खान के उदय, उदारीकरण के दौर में दुनिया से जुड़ाव के साथ ही पारिवारिक लगाव, शादियों एवं देसीपन को भी संजोए रखने के अहसास से अपरिहार्य रूप से जुड़ी है।
दिलवाले दुल्हनिया… भारत के भीतर और बाहर दोनों जगह सबसे सफल फिल्मों में से एक है। पिछले महीने की शुरुआत में इस फिल्म के प्रदर्शन के 25 साल पूरे होने के मौके पर हार्ट ऑफ लंदन बिज़नेस अलायंस के डेस्टिनेशन मार्केटिंग निदेशक मार्क विलियम्स ने कहा कि फिल्म के मुख्य कलाकारों शाहरुख एवं काजोल की एक कांस्य प्रतिमा लंदन के लीसेस्टर स्क्वेयर पर अगले वसंत में लगाई जाएगी। यह प्रतिमा लीसेस्टर स्क्वेयर पर फिल्माए गए दृश्य को दर्शाएगी और इसमें हैरी पॉटर, मेरी पॉपिंस एवं मिस्टर बीन जैसे नौ मशहूर किरदारों को भी शामिल किया जाएगा।
फिल्म पर्यटन एवं टिकट बिक्री के माध्यम से ब्रिटेन में खुशी एवं समृद्धि लाने का जश्न मनाने एवं सम्मान देने का यह एक अद्भुत तरीका है। यह 19,100 करोड़ रुपये के आकार वाले भारतीय फिल्म उद्योग को बदनाम करने एवं कलंकित करने की उन कोशिशों के ठीक उलट है जो कुछ शरारती समाचार चैनल एवं सोशल मीडिया पर अपमानजनक ट्रॉलिंग करने वाले कर रहे हैं। करीब छह महीनों से भारतीय फिल्म उद्योग को नशे के आदी, पथभ्रष्टों एवं अवसादजनक लोगों की स्थली के तौर पर पेश किया जाता रहा है। चार कारण हैं जो देश की बेहतरीन छवि पेश करते हैं। पहला, यह परिघटना के स्तर तक लचीला है। पचास के दशक में स्टूडियो व्यवस्था खत्म होने के बाद कई समितियों ने फिल्म निर्माण को उद्योग का दर्जा देने की मांग रखी लेकिन वर्ष 2000 तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया। इसके पास कोई भी संस्थागत सहयोग नहीं था, न ही कोई संरक्षण और न ही किसी तरह की सब्सिडी मिलती थी। फिर भी भारतीय सिनेमा 100 वर्षों से अपनी जड़ों से मजबूती से जुड़ा रहा है जबकि दुनिया के अधिकांश हिस्से हॉलीवुड के असर में आ चुके हैं। सिनेमा उद्योग से मिलने वाले राजस्व का 85 फीसदी से अधिक हिस्सा भारतीय फिल्मों से आता है। मोटे तौर पर टेलीविजन पर प्रसारित कार्यक्रमों का एक-चौथाई, गीत-संगीत बिक्री में 70 फीसदी से अधिक और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हो रहे कार्यक्रमों में भी बड़ा हिस्सा फिल्मों का है।
दूसरा, यह भारत की सॉफ्ट पावर का सबसे सक्षम प्रतीक है, शायद सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग एवं हमारे प्रबंधन कौशल से भी कहीं अधिक। जब 3ईडियट्स और दंगल चीन में बड़ी हिट हुईं तो घबराए चीन ने रचनात्मक सॉफ्ट पावर में अपनी कमी को समझने के लिए एक बैठक भी बुलाई थी। जब ए आर रहमान, दिवंगत इरफान खान, ऐश्वर्या राय बच्चन, प्रियंका चोपड़ा और शाहरुख जैसी हस्तियां कोई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतते हैं, ऑस्कर समारोह में कार्यक्रम पेश करते हैं, दावोस सम्मेलन को संबोधित करते हैं या टेड टॉक में हिस्सा लेते हैं तो वे भारत को गौरवान्वित ही करते हैं।
तीसरा, भविष्य में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका। तकनीक, मीडिया, दूरसंचार एवं खुदरा क्षेत्र के बीच की दीवारों के ध्वस्त होने के साथ ही गूगल, फेसबुक, एमेजॉन, डिज्नी एवं ऐपल के रूप में एक नई पारिस्थितिकी का उदय हो रहा है। वे भौगोलिक सीमाओं, तकनीकों, विधाओं और उद्योगों से भी परे अपना फलक बढ़ाने एवं दर्शक जुटाने की उन्मादी होड़ में लगे हुए हैं। इस नई पारिस्थितिकी में भारत अपनी मीडिया या तकनीकी फर्मों के बूते नहीं बल्कि अपनी सृजनात्मक क्षमता के दम पर बढ़त लेने के साथ ही आगे भी निकल सकता है। अग्रणी स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म यूट्यूब पर सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल भारतीय संगीत कंपनी टी-सीरीज है। वर्ष 2016 में भारतीय बाजार में दस्तक देने के बाद से नेटफ्लिक्स स्थानीय स्तर पर 60 कार्यक्रम पेश कर चुका है। इन भारतीय कार्यक्रमों को नेटफ्लिक्स ने 190 देशों में मौजूद अपने 19.3 करोड़ दर्शकों के लिए परोसा। काफी दिलचस्प है कि इसके चर्चित कार्यक्रम सेक्रेड गेम्स के दो-तिहाई दर्शक भारत से बाहर के हैं और माइटी लिटल भीम को लैटिन अमेरिकी देशों समेत दुनिया भर के 2.7 करोड़ दर्शकों ने देखा। एमेजॉन प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही भारतीय कहानियों के बारे में भी स्थिति काफी हद तक ऐसी ही है।
चौथा, भारतीय सिनेमा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से करीब 70 लाख लोगों को रोजगार देता है। इसके बावजूद लगभग सभी सरकारें फिल्म उद्योग को अर्थव्यवस्था के भोले-भाले आकर्षण के तौर पर ही देखती हैं। फिल्मी हस्तियों से किसी सरकारी मकसद के लिए कार्यक्रम पेश करने की अपेक्षा तो रखते हैं लेकिन इस पर मोटा कर लगाते हैं, इसे सामाजिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार बताते हैं और इसकी सृजनात्मक स्वतंत्रता के लिए कभी भी खड़े नहीं होते हो।
ऐसा क्यों है कि पीकू, मसान, उयारे और पलास जैसी बेहतरीन कहानियां परोसने वाला उद्योग किसी फिल्म, किसी कलाकार या समूचे फिल्म उद्योग पर हमला होने के समय अपना बचाव भी नहीं कर पाता है? यह मीडिया, सरकार एवं अपने दर्शकों को यह क्यों नहीं दिखा पाता है कि यह किस तरह भारत की सेवा करता है? बाहुबली फिल्म के निर्माता शोबू यारलागड्डा कहते हैं कि फिल्म उद्योग भाषाओं, राज्यों एवं विभिन्न हितों के खांचों में बंटा है। इस वजह से एक सुर में बोल पाना मुश्किल होता है। टेलीविजन उद्योग भी कई वर्षों तक इस समस्या से जूझता रहा लेकिन कुछ बड़े प्रसारकों ने इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन (आईबीएफ) का गठन कर इस समस्या का हल निकाला। वे समय पर भुगतान एवं कीमत से जुड़ी बंदिशों पर दो-दो हाथ करते हैं।
यह वक्त शायद भारतीय फिल्म उद्योग के लिए आईबीएफ जैसी संस्था बनाने का है। सितंबर में फिल्म एवं टीवी प्रोड्यूसर गिल्ड ने एक बयान जारी कर फिल्म उद्योग पर लगातार हो रहे हमलों की निंदा की थी। लेकिन यह तो महज शुरुआत है। यह पलटवार करने का वक्त है।
