केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने इस सप्ताह के शुरू में कहा कि सरकार 2036 में ओलिंपिक की मेजबानी के लिए भारतीय ओलिंपिक संघ के बोली लगाने के प्रस्ताव का समर्थन करेगी और इसके लिए मेजबान शहर अहमदाबाद होने की संभावना है। सचमुच? या हाल में हिमाचल प्रदेश चुनाव में हार के बाद खोई हुई जमीन को प्राप्त करने का प्रयास है। भारतीय जनता पार्टी संसद की जीती हुई सीटों के तहत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव हार गई।
लगता यह है कि ओलिंपिक की मेजबानी करने के लिए बन रही सर्वसम्मति आर्थिक रूप से फायदे का सौदा साबित नहीं होगी। बोली लगाने में जीतने वाला देश ओलिंपिक की मेजबानी करता है। मेजबानी करने वाले देश की घोषणा आमतौर पर सात से 10 साल पहले हो जाती है। लेकिन खर्च तो ओलिंपिक समिति को प्रभावित करने के प्रयास से ही शुरू हो जाता है। सभी खर्चे शामिल करने पर टोक्यो ओलिंपिक की लागत 35 अरब डॉलर (2.89 लाख करोड़ रुपये से अधिक) आई। हालांकि कोविड 19 के कारण यदि आंकड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया तो भी रियो गेम्स और लंदन ओलिंपिक में से हरेक की लागत करीब 13 अरब डॉलर आई। हालांकि पेइचिंग ओलिंपिक की भारी भरकम लागत 52 अरब डॉलर आई। लिहाजा अनिश्चितता से भरे भविष्य में भारी भरकम खर्च करने के लिए समिति के समक्ष अपना पक्ष रखने से पहले भारत को कई बार सोचना चाहिए।
टोक्यो 2016 के ओलिंपिक खेलों की बोली में विफल हो गया था लेकिन उसने करीब 15 करोड़ डॉलर (वर्तमान समय में भारतीय रुपये में 1,240 करोड़ रुपये) खर्च किए थे। हालांकि 2020 में बोली जीतने के लिए करीब 7.5 करोड़ डॉलर खर्च किए थे। हालांकि टोरंटो ने निश्चय किया कि 2024 के गेम्स की बोली लगाने के लिए 6 करोड़ डॉलर खर्च करने का आर्थिक बोझ वहन नहीं कर सकता है।
एक बार बोली जीतने पर शहर को भारी भरकम धन खर्च करना पड़ता है। अध्ययनों के अनुसार ओलिंपिक होने के बाद खर्च की गई राशि की पूरी तरह वसूली भी नहीं हो पाती है। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति के नियमों के अनुसार ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक के मेजबान शहर में दर्शकों के लिए कम से कम होटलों के 40,000 कमरे अनिवार्य रूप से होने चाहिए। ये कमरे ओलिंपिक गांव से अलग होते हैं। ओलिंपिक गांव में 15,000 खिलाड़ियों और अधिकारियों के ठहरने की क्षमता होती है।
रियो डी जनेरियो ने 2016 के खेलों से पहले शहर में होटलों के 15,000 से अधिक कमरों का निर्माण किया था। रियो डी जनेरियो की तरह अहमदाबाद पर्यटन स्थल नहीं है। यदि रियो डी जनेरियो में इतने कमरों को बनाना पड़ा था तो अहमदाबाद में इससे कई गुना अधिक कमरों का निर्माण करना पड़ेगा। इंतजाम इतने बड़े पैमाने पर किए जाते हैं कि यह खेल संपन्न होने के बाद ज्यादातर होटल खाली पड़े रहते हैं। इसका अच्छा उदाहरण नॉर्वे का लिलेहैमर है। साल 1994 में लिलेहैमर में ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक से कम लोकप्रिय शीतकालीन ओलिंपिक हुए थे। इन खेलों के पांच साल बाद इस कस्बे के 40 फीसदी होटल दिवालिया हो गए थे।
इसके अलावा खेल के लिए आधारभूत संरचना का भी ओलिंपिक के स्तर पर निर्माण करना पड़ता है। पूरे परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भारत खेल के क्षेत्र में नवोदित राष्ट्र है। भारत ओलिंपिक में होने वाली खेल की ज्यादातर प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा भी नहीं लेता है। कोविड-19 के कारण टोक्यो में साल 2020 में होने वाले ओलिंपिक खेल अगले साल 2021 में हुए थे। इसमें पानी से जुड़ी 49 प्रतिस्पर्धाएं (एक्वेटिक इवेंट्स) हुई थीं जिनमें भारत ने केवल तीन में हिस्सा लिया था।
एथलेटिक्स में भारत का प्रदर्शन मजबूत है। लेकिन भारत ने एथलेटिक्स की 48 प्रतिस्पर्धाओं में से केवल 14 में हिस्सा लिया। हालांकि बेसबॉल, सॉफ्टबॉल, मॉडर्न पेंटाथलॉन, कैनोइंग, स्केटबोर्डिंग, स्पोर्ट क्लाइंबिंग, सर्फिंग और कई अन्य खेलों में भारत की कोई मौजूदगी ही नहीं है। ऐसा लगता है कि इन खेलों में भारत की कोई रुचि ही नहीं है। या दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। हालांकि खास तरह की सुविधाएं बनानी होंगी। इन सुविधाओं का ओलिंपिक के फौरन बाद कोई इस्तेमाल नहीं होगा।
हालांकि इस खर्चे में सुरक्षा, यातायात की आधारभूत संरचना और लाखों लोगों के आने जाने के लिए कई अन्य सुविधाएं भी विकसित करनी होती हैं। यदि यह तर्क दिया जाता है कि ओलिंपिक का आयोजन किए जाने के बाद लोगों की खेल में रुचि बढ़ेगी तो ऐसे में एक बार खर्च करने की जगह लंबे समय तक निरंतर कोष मुहैया कराने के बेहतर परिणाम सामने आएंगे। एक बार भारी भरकम राशि खर्च करने के बाद निरंतर बढ़ावा देने, देखभाल करने व रुचि में कमी आ जाती है। ऐसे ही दिल्ली में 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स और 1982 के एशियन गेम्स के बाद हुआ था। इसके गवाह दिल्ली के स्टेडियम हैं। दिल्ली के स्टेडियमों की दयनीय स्थिति इस अरुचि का प्रमाण है।