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  आज का अखबार  दोस्तों और दुश्मनों की पहेली में उलझा भारत
आज का अखबारलेख

दोस्तों और दुश्मनों की पहेली में उलझा भारत

मोदी सरकार अपने ही बनाए विरोधाभास की शिकार है। उसने रूस समर्थक और पश्चिम के विरुद्ध जनमत को बढ़ावा दिया जबकि उसकी सामरिक नीति इसके एकदम उलट है।

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता —March 12, 2023 7:10 PM IST
© Creative Commons license
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आज विश्व में भारत के साझेदार, मित्र या शत्रु अथवा प्रतिद्वंद्वी कौन हैं? चीन और पाकिस्तान तो जाहिर प्रतिद्वंद्वी हैं लेकिन मित्रों या साझेदारों की तलाश करना मुश्किल है। इसके बाद हम प्रतिद्वंद्वियों के मित्रों या मित्रों के प्रतिस्पर्धियों को लेकर वाकई उलझन में पड़ जाते हैं। यह स्थिति तब अधिक बनती है जब हमारा प्रतिद्वंद्वी एक ऐसे मित्र का सबसे करीबी मित्र हो जो हमारे एक सहयोगी का कट्टर दुश्मन और एक दुश्मन का सबसे अहम सहयोगी हो। मुझे पता है यहां सब गड्डमड्ड है। आइए इसे सुलझाते हैं।

चीन-रूस-अमेरिका-चीन-पाकिस्तान के बारे में विचार कीजिए। इस बात के तमाम सार्वजनिक प्रमाण हैं कि रूस बिना चीन की मदद के पश्चिम के साथ जंग में ज्यादा समय तक नहीं टिक पाएगा। चीन के सीमा शुल्क विभाग की ओर से उपलब्ध ताजा कारोबारी आंकड़े बताते हैं कि दोनों देशों के बीच कारोबार में उस समय तेजी आई है जब चीन की अर्थव्यवस्था धीमी पड़ी और उसके कुल व्यापार में कमी आई।

इस वृद्धि में अधिकांश योगदान रूसी निर्यात का रहा। भारत में एक गलतफहमी यह है कि हमारे तेल खरीदने से रूस की अर्थव्यवस्था चल रही है और वह जंग लड़ पाने में सक्षम है। जबकि रूस की अर्थव्यवस्था में चीन का योगदान हमसे कई गुना अधिक है।

इसके अलावा सैन्य सामग्री की आपूर्ति हमेशा एक करीबी संभावना रही है। ऐसे में भारत का सबसे पुराना सहयोगी सही मायनों में आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य रूप से जिस एक देश पर निर्भर है वह हमारा पुराना प्रतिद्वंद्वी है। उसके करीब 60,000 सैनिक जंगी तैयारी से हमारे मुहाने पर बैठे हैं। यह बात हमारे जटिल समीकरण के पहले हिस्से को सुलझाती है: हमारा प्रतिद्वंद्वी हमारे सबसे करीबी मित्र का मित्र है।

अब दूसरे हिस्से पर आते हैं। यह प्रतिद्वंद्वी यानी चीन उस देश के सबसे बुरे शत्रु का सबसे अच्छा मित्र है जो अब हमारा सामरिक साझेदार है। हमने यह व्याख्या भारत के कई प्रधानमंत्रियों और अमेरिकी राष्ट्रपतियों द्वारा जारी किए गए संयुक्त वक्तव्यों से निकाली है। वही प्रतिद्वंद्वी हमारे सबसे करीबी सरदर्द पाकिस्तान का संरक्षक, मित्र, कर्जदाता और सुरक्षा गारंटर है।

अगर इसे सरलीकृत करना चुनौतीपूर्ण है तो इससे यही पता चलता है कि हम कितनी जटिल दुनिया में रहते हैं। रूस पर हमारी सैन्य निर्भरता काफी अधिक है और शायद पांच और सालों तक हालात ऐसे ही रहेंगे। कोई भी 95 फीसदी टैंकों, 70 फीसदी लड़ाकू विमानों और नौसेना की उड़ान भरने वाली परिसंपत्तियों को रातोरात बदल नहीं सकता।

अगर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हालात गंभीर हुए तो रूस क्या करेगा? अगर वह 1962 की तरह उदासीनता भी बरतता है तो इसे गनीमत मानना होगा। कम से कम 1962 में सोवियत संघ एक बड़ी ताकत था, वह चीन का वैचारिक बड़ा भाई था। अब समीकरण उलट चुके हैं। पुतिन का रूस चीन के समक्ष छोटा है।

यही कारण है कि पिछले दिनों नई दिल्ली में संपन्न रायसीना संवाद में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव को भारतीय मेजबानों पर धाक जमाते देखना दिलचस्प था। वह काफी हद तक फिल्म स्लीपिंग विद द एनिमी के दृश्य की तरह था जिसमें पैटरिक बर्जी द्वारा निभाया गया मार्टिन बर्नी का किरदार जूलिया रॉबर्ट द्वारा निभाए गए लॉरा बर्नी के किरदार से कहता है: हम सभी बातों को भूल जाते हैं।

इसीलिए तो याद दिलाई जाती है। उन्होंने याद दिलाया कि भारत और रूस के बीच एक समझौता है जिसमें कहा गया है कि दोनों देशों के बीच ‘एक विशेष विशेषाधिकार संपन्न रणनीतिक साझेदारी है।’ उन्होंने श्रोताओं पर तंज कसते हुए पूछा, ‘क्या किसी और देश के साथ आपकी ऐसी संधि है?’

मुझे इस संधि के बारे में कुछ शोध करना पड़ा। ऐसा लगता है कि यह वह संधि थी जिस पर सन 1993 में पी वी नरसिंह राव और बोरिस येल्तसिन ने हस्ताक्षर किए थे। यह सन 1971 के भारत-सोवियत शांति, मित्रता और सहयोग समझौते का अगला चरण था।

चूंकि शीतयुद्ध खत्म हो चुका था और सोवियत संघ का अंत हो चुका था इसलिए भारत यह दबाव महसूस कर रहा था कि उसके उत्तराधिकारी देश के साथ खास रिश्ता बरकरार रखे। मूल संधि का अहम अनुच्छेद 9 जो साझा सुरक्षा गारंटी देता है उसे नई संधि में शामिल नहीं किया गया।

निश्चित तौर पर दिल्ली के उस आयोजन में हुए जमावड़े में शायद ही कोई ऐसा था जो लावरोव को उसकी याद दिलाता या फिर यह याद दिलाता कि बीते 25 सालों में भारत ने अमेरिका के साथ जितने संयुक्त समझौते किए या वक्तव्य जारी किए उनमें उसे सार्वजनिक तौर पर अनिवार्य सामरिक सहयोगी बनाया।

यह सन 1990 के दशक का वही दौर था जब लावरोव के तत्कालीन पूर्ववर्ती येवगेनी प्रिमाकोव ने रूस-भारत-चीन की तीन देशों वाली साझेदारी की बात की थी। लावरोव ने हमें याद दिलाया कि वह एक उपयोगी मंच हो सकता है जहां भारत और चीन मिलकर अपने मतभेद दूर कर सकते हैं वह भी बिना किसी हिचक या दबाव के। रूस वहां एक ईमानदार, खामोश मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है।

लावरोव कई दिलचस्प दावे करके निकल गए, उनमें से कुछ तो अक्सर भारतीय सामरिक बहस में भी दोहराए जाते हैं। उदाहरण के लिए तथाकथित ग्लोबल साउथ (अविकसित देश) का मुद्दा। एक बार फिर तथ्यों की सामान्य पड़ताल से स्पष्टता आएगी। मसलन ग्लोबल साउथ का वोटिंग प्रदर्शन जिसके बारे में भारतीय नेता और टीकाकार भी हाल के दिनों में बात करते रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र में पिछले मतदान में केवल सात देशों ने उस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया जिसमें रूस से यूक्रेन पर हमला रोकने और वहां से हटने को कहा गया था। ये वही देश थे जो अक्सर शक के दायरे में रहते हैं: सीरिया, बेलारूस, निकारागुआ, उत्तर कोरिया, इरिट्रिया और माली और सातवां रूस। भारत समेत 32 देश अनुपस्थित रहे जबकि 141 देशों ने उसके पक्ष में मतदान किया।

यह बात हमें भारत के आसपास के जलेबीनुमा सामरिक आकार की ओर ले आती है: रूस एक अभिन्न मित्र जो चीन पर निर्भर है, पाकिस्तान एक स्थायी प्रतिद्वंद्वी जिसकी शक्ति और धन का स्रोत चीन है और अमेरिका एक अनिवार्य रणनीतिक साझेदार।

पाकिस्तान की हताशा अलग तरह की है। खाड़ी के अरब देश उससे सतर्क रहते हैं और पश्चिम से भी वह अलग-थलग है। हालांकि ब्रिटेन परदे के पीछे लगातार कोशिश कर रहा है कि अमेरिका में पाकिस्तान के लिए कुछ गुंजाइश बन जाए।

अगर पाकिस्तान यूक्रेन को जरूरी टैंक और रॉकेट के गोले बेच रहा है तो वह ऐसा अपनी मर्जी से नहीं कर रहा है। बदले में उसे डॉलर या कुछ और चाहिए। यह अमेरिका से पुराने अपराधों की माफी की अर्जी भी है।

भारत का वास्ता इसी जटिल सामरिक दुनिया से है। ग्लोबल साउथ, समान दूरी और रणनीतिक स्वायत्तता की बातों के पीछे अगर रणनीति का कारोबार पहलू ठीक है तो सब ठीक है। नाटो की एक टीम ने हाल ही में भारत में समकक्ष दल से मुलाकात की ताकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग की बेहतर संभावनाएं तलाश सके। यह तब जबकि जी 20 में हितों का टकराव जारी है।

क्वाड के ताजा वक्तव्य में एक पैराग्राफ यूक्रेन पर है जिसमें बिना नाम लिए रूस से कहा गया है कि वह हमला बंद करे और यूक्रेन की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का सम्मान करे। वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि परमाणु हमलों की धमकी स्वीकार्य नहीं है।

इस बीच अमेरिकी वाणिज्य मंत्री जिना राईमोंदो दिल्ली आईं। जाहिर है वह केवल रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के घर होली खेलने नहीं आईं। सेमीकंडक्टर को लेकर साझेदारी भी एजेंडे में शामिल है। इससे पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल अमेरिका गए थे।

मोदी सरकार अब खुद अपने बनाए विरोधाभासों में उलझी हुई है। उसने जनता में पश्चिम विरोधी और रूस समर्थक राय बनने दी जबकि उसकी सामरिक नीति इसके एकदम उलट है। यह मोदी के विपरीत है जो आमतौर पर अपनी नीतियों और जनमत को सुसंगत रखना चाहते हैं। ऐसे में आने वाले समय में दोनों में से किसी में सुधार की आवश्यकता होगी। मेरा मानना है कि यह बदलाव जनमत में ही आएगा। आज जो विरोधाभास हैं वे अस्थायी हैं।

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