बाजार के प्रति सकारात्मक रुझान रखने वाले टीकाकारों की ओर से मोदी सरकार को लेकर जो आलोचना की जाती है उनमें से दो मानक आलोचनाएं यह हैं कि क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों (FTA) से दूरी रखी जा रही है और सरकार की उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) योजना के माध्यम से घरेलू विनिर्माण को गति देने के लिए टैरिफ का सहारा लिया जा रहा है जो बुनियादी तौर पर गलत है।
दोनों आलोचनाओं में दम है। व्यापार समझौतों से बाहर रहने के कारण भारत क्षेत्रीय उत्पादन और आपूर्ति शृंखलाओं से बाहर हो सकता है और वहीं सब्सिडी और टैरिफ संचालित विनिर्माण नीति से गैर प्रतिस्पर्धी विनिर्माण क्षेत्र तैयार हो सकता है।
इतना ही नहीं वृहद आर्थिक परिणाम भी काफी गंभीर साबित हो सकते हैं क्योंकि कोई भी अर्थव्यवस्था तब तक तेज आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं कर सकी है जब तक कि उसका निर्यात क्षेत्र मजबूत और तेजी से विकसित होने वाला न हो। जो विनिर्माण क्षेत्र केवल संरक्षण के अधीन फलता-फूलता है वह औद्योगिक गतिविधियों की स्वस्थ दीर्घकालिक वृद्धि के लिए अच्छा नहीं है।
संदेश स्पष्ट है: भारत को क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में शामिल होना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला का हिस्सा बनकर जो भी लाभ हासिल हो सकें उन्हें लेने का प्रयास करना चाहिए।
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आलोचनाएं अपनी जगह सही हैं लेकिन उनमें उभरते हालात को लेकर एक बात की अनदेखी की जा रही है। वह यह कि वस्तु निर्यात अब देश की निर्यात वृद्धि का प्राथमिक वाहक नहीं रह गया है।
ध्यान रहे एशिया के क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में से ज्यादातर इसी पर आधारित हैं। अब यह भूमिका सेवा निर्यात के पास चली गई है जो कहीं अधिक तेजी से बढ़ा है। यदि मौजूदा रुझान बरकरार रहा तो कुछ ही वर्षों में यह आंकड़ा 50 फीसदी का स्तर पार कर जाएगा और वस्तु निर्यात से आगे निकल जाएगा। जब हम निर्यात की सफलता की ओर देखते हैं तो आलोचकों की नजर गलत जगह रहती है।
उन्होंने इस समस्या को तब और बड़ा कर दिया जब निर्यात आधारित वृद्धि के पूर्वी एशियाई मॉडल को अपनाने की बात कही गई जो कम मूल्य, कम मार्जिन वाले श्रम आधारित निर्यात पर आधारित था। तैयार वस्त्र ऐसे निर्यात का उदाहरण हैं। यह इसलिए दिवास्वप्न साबित हुआ क्योंकि भारत में काम करने के हालात पूर्वी एशिया से एकदम अलग हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता है। यहां तक कि आज भी ऐसे देश हैं जहां श्रम सस्ता है और जो अधिक उत्पादक हैं।
अगर श्रम आधारित निर्यात को भारत में सफलता पानी ही है तो वह सफलता उत्पादों की असेंबलिंग में आसानी से मिल सकती है जहां श्रम की लागत, उत्पाद के मूल्य का बहुत छोटा हिस्सा होती है और जहां घरेलू बाजार स्थानीय स्तर पर सामान लेने को प्रोत्साहित करता है। मोबाइल फोन तथा कुछ अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद इसका उदाहरण हैं। शेष विनिर्मित वस्तु निर्यात में ज्यादातर पूंजी या ज्ञान आधारित हैं। इसमें रिफाइंड पेट्रोलियम उत्पाद, इंजीनियरिंग वस्तुएं, औषधियां एवं रसायन आदि आते हैं।
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सेवा निर्यात की बात करें तो भारत विकास के जिस चरण में है उस चरण में इस तरह के निर्यात में बढ़त कायम करना अस्वाभाविक है। परंतु अब यह बात स्थापित हो चुकी है कि देश का सबसे बड़ा तुलनात्मक लाभ उसके शिक्षित, कम लागत वाले पेशेवर प्रबंधन कर्मियों में निहित है।
निश्चित तौर पर सेवा क्षेत्र जितना अधिक व्यापार अधिशेष तैयार करेगा, रुपया उतना ही मजबूत होगा और ऐसे में पूर्व एशिया शैली की कम मार्जिन, और श्रम आधारित वस्तु निर्यात वाली सफलता हासिल करना मुश्किल होगा। यह कोई नई बात नहीं है। अर्थशास्त्रियों को यह बात वर्षों से जाहिर थी, लेकिन वे अपने व्यापारिक और औद्योगिक नीति संबंधी नुस्खों में इस पर काम करने में नाकाम रहे।
दूसरी बात PLI के बारे में है। एक बार फिर आलोचनाएं वैध हैं लेकिन इस बात की अनदेखी कर दी गई कि अगर PLI नाकाम होती है तो ज्यादा कुछ गंवाना नहीं होगा। वृहद आर्थिक संदर्भ में प्रस्तावित प्रोत्साहन बहुत सीमित हैं।
पांच वर्ष में PLI से होने वाला कुल लाभ दो लाख करोड़ रुपये के भीतर ही रहने वाला है। यह राशि इस अवधि में अनुमानित जीडीपी के एक फीसदी के दसवें हिस्से के बराबर होगी। अगर PLI को स्थायी नहीं कर दिया जाता है तो भी इसे व्यवहार्य माना जा सकता है।
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अगर PLI सफल हो गई तो क्या होगा? सरकार का दावा है कि इसका परिणाम 3 लाख करोड़ रुपये के निवेश के रूप में सामने आएगा। पांच वर्ष की कुल राशि वर्तमान वर्ष के जीडीपी का महज एक फीसदी है। अगर इसकी तुलना तयशुदा परिसंपत्तियों के सालाना जीडीपी के 30 फीसदी के बराबर निवेश से की जाए तो यह कुछ भी नहीं है।
लेकिन अनुमान है कि इससे कुल पूंजीगत व्यय में विनिर्माण की हिस्सेदारी में इजाफा होगा, अच्छा खासा आयात प्रतिस्थापन होगा, निर्यात को गति मिलेगी और करीब 60 लाख रोजगार तैयार होंगे जो विनिर्माण के मौजूदा कुल रोजगार के दसवें हिस्से के बराबर होंगे।
कुल मिलाकर ऐसे दावों को लेकर शंकालु रहने की आवश्यकता है लेकिन अगर एक किफायती वित्तीय प्रोत्साहन से यह सब हासिल होता है तो यह PLI की कामयाबी ही होगी।