बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली में आयोजित नौसेना नवाचार एवं स्वदेशीकरण संगठन संगोष्ठी को संबोधित किया। उन्होंने रक्षा आयात को लेकर लगी लत छुड़ाने एवं भारत को रक्षा उत्पाद निर्यातक बनाने के अपनी सरकार के संकल्प को दोहराया। ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल की मिसाल देते हुए मोदी ने कहा कि भारतीय सैन्य बलों को व्यापक स्तर पर देसी रक्षा उत्पादों को आत्मसात करने की आवश्यकता है ताकि इन उत्पादों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भरोसा बढ़े। उल्लेखनीय है कि भारत फिलिपींस को ब्रह्मोस मिसाइलों का निर्यात कर रहा है।
रक्षा मंत्रालय द्वारा जारी हालिया आंकड़े यही पुष्टि करते हैं कि इस दिशा में सरकारी प्रयास रंग ला रहे हैं। वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान रक्षा निर्यात 13,000 करोड़ रुपये के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गया। इसमें 70 प्रतिशत हिस्सेदारी निजी क्षेत्र की थी। रक्षा मंत्रालय देश से होने वाले रक्षा निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मानव-रहित तंत्रों, रोबोटिक्स, इंटेलिजेंट सर्विलांस और ऐसी ही तमाम अन्य चीजों को जोड़कर 75 उत्पादों की सूची तैयार करने की तैयारी कर रहा है ताकि पांच वर्षों में 35,000 करोड़ रुपये के रक्षा निर्यात का वह लक्ष्य प्राप्त किया जा सके, जो प्रधानमंत्री ने 2020 में निर्धारित किया था। महामारी से प्रभावित वित्त वर्ष 2021 में भारत से 8,434 करोड़ रुपये का रक्षा निर्यात हुआ था, जबकि 2020 में यह 9,115 करोड़ रुपये रहा और वित्त वर्ष 2016 में 2,059 करोड़ रुपये ही था। यानी तेजी का रुझान साफ दिख रहा है।
वर्ष 2017 से 2021 के बीच भारत के कुल रक्षा निर्यात का करीब आधा हिस्सा जहां म्यांमार तो एक चौथाई भाग श्रीलंका को गया। हालांकि इस समय श्रीलंका जिस प्रकार के आर्थिक संकट से जूझ रहा है तो उसे होने वाला रक्षा निर्यात ठहराव का शिकार हो गया है। इस बीच वित्त वर्ष 2021 में अमेरिका भारत का सबसे बड़ा ग्राहक बन गया। दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया और अफ्रीका ने भी भारत का रक्षा-साजोसामान खरीदा। भारत से निर्यात होने वाले सैन्य उपकरणों में आधुनिक हल्के हेलीकॉप्टर, मिसाइल, ऑफशोर पेट्रोल व्हीकल्स, सर्विलांस सिस्टम, पर्सनल प्रोटेक्टिव गियर और विभिन्न प्रकार के रडार मुख्य रूप से शामिल थे। भारतीय रक्षा निर्यात परिदृश्य पर एक सरसरी नजर भी सरल औद्योगिक लाइसेंसिंग, निर्यात प्रतिबंधों पर राहत और अनापत्ति प्रमाण पत्रों के मामले में उदारता जैसे पहलुओं को प्रमुखता से दर्शाती है।
वर्ष 2014 के बाद अलग से रक्षा निर्यात रणनीति बनाई गई। इसका जोर मुख्य रूप से निर्यात प्रोत्साहन या निर्यात नियमन को सुगम बनाने पर केंद्रित था। विदेश मंत्रालय को उन देशों के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने (लाइन ऑफ क्रेडिट सृजन) का जिम्मा सौंपा गया, जो भारत से रक्षा आयात कर सकें। ऐक्जिम बैंक के हिस्से में यह काम आया कि वह व्यवहार्यता का परीक्षण कर देशों को रक्षा निर्यात के लिए राशि मुहैया कराए। विभिन्न देशों में भारतीय मिशन में पदस्थापित रक्षा अताशे इसके लिए अधिकृत किए गए कि वे भारतीय निर्यात को बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास करें।
रक्षा उत्पादन एवं निर्यात संवर्धन नीति, 2020 ने भी निर्यात को बढ़ावा दिया। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा उत्पादन इकाइयों को अपने राजस्व का कम से कम 25 प्रतिशत निर्यात से प्राप्त करना निर्धारित किया गया। डिफेंस एक्सपो और एरो इंडिया जैसी प्रदर्शनियों के माध्यम से भारत की रक्षा उत्पादन क्षमताओं का प्रदर्शन और उत्पादों की बढ़िया ब्रांडिंग की गई। रक्षा उत्पादन विभाग से निर्यात के लिए समयबद्ध स्वीकृति की व्यवस्था बन पाई और रक्षा उत्पादों के निर्यात में संभावनाओं को भुनाने के लिए सैन्य बलों से सक्रिय सहयोग मिला। ऐसे उत्साहजनक रुझानों के बावजूद कुछ पहलू अभी भी भारतीय रक्षा निर्यात की वृद्धि में बाधक बने हुए हैं। उनमें कुछ खासे महत्त्व वाले हैं। जैसे कि महत्त्वपूर्ण तकनीकों का अभाव। पूंजी और तकनीकी-बहुल उत्पादन आधार तैयार करने में लगने वाली लंबी अवधि। कड़े श्रम कानूनों और अनुपालन बोझ से व्यवसाय परिचालन संचालन से जुड़ी मुश्किलें। साथ ही रक्षा शोध एवं विकास (आरऐंडडी) के लिए अपर्याप्त वित्तीय संसाधन और आवश्यक इंजीनियरिंग एवं अनुसंधान कौशल का अभाव निर्यात की रफ्तार बढ़ाने में खलल डाल रहे हैं। इनके साथ ही अहम तकनीकों में लचर डिजाइनिंग क्षमताएं, आरऐंडडी के लिए नाकाफी वित्तीय सहयोग और महत्त्वपूर्ण सबसिस्टम्स एवं पुर्जों को बनाने में अक्षमता ने भारत में स्वदेशी विनिर्माण को लंबे समय से अटकाए रखा है। कई बार उत्पाद बनने में इतना विलंब हो जाता है कि बनने तक वह नई तकनीक के आगे बेमानी हो जाता है। उद्योग-अकादमिक स्तर पर असंगति ने स्थिति को और जटिल बना दिया है।
इन चुनौतियों को देखते हुए प्रधानमंत्री द्वारा रक्षा निर्यात के लिए तय किया गया 35,000 करोड़ रुपये का लक्ष्य महत्त्वाकांक्षी प्रतीत होता है। हालांकि हमारी मौजूदा प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त के चतुराई भरे प्रयोग से सही अवसरों को भुनाकर इसे संभव बनाया जा सकता है। स्वदेशी रक्षा उत्पादन में विभिन्न स्तरों पर हासिल लागत लाभ को देखते हुए भारत अल्जीरिया, मोरक्को और अंगोला जैसे उन अफ्रीकी देशों में संभावनाएं टटोल सकता है, जो अपनी रक्षा आवश्यकताओं के लिए अमेरिकी और रूसी आयात पर ही मुख्य रूप से निर्भर हैं। साथ ही सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर जैसे पश्चिम एशियाई देशों को भी भारतीय रक्षा निर्यात की दृष्टि से लक्षित करना चाहिए।अपनी पड़ोसी प्रथम नीति के अंतर्गत अगर भारत-मालदीव, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे अपनी सामुद्रिक सीमा से जुड़े हुए पड़ोसियों को भी लाइन ऑफ क्रेडिट के जरिये साधता है तो हिंद महासागर क्षेत्र में भी उसकी स्थिति मजबूत होगी। रक्षा भागीदारी में अपने अवरोधों को किनारे कर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की विदेश नीति प्राथमिकता ही चीन के आक्रामक मंसूबों के खिलाफ बढ़ती सावधानियों-सतर्कता का बखूबी उपयोग करने की होनी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में तो सही समझदारी होगी कि शुरुआती स्तर पर कुछ मध्यम से लेकर उच्च तकनीकी निर्यात पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इनमें ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल, पिनाका मल्टी-बैरल रॉकेट लॉन्चर, एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टर ध्रुव और आकाश एयर-डिफेंस सिस्टम को शामिल किया जा सकता है। साथ ही साथ दीर्घकाल में एंड-टू-एंड डिफेंस सॉल्यूशंस उपलब्ध कराने के प्रयास भी अवश्य किए जाने चाहिए। इसमें तकनीकी जानकारी, कलपुर्जों और प्रशिक्षण की अहम भूमिका होगी। यूं तो भारत ने स्वयं को रक्षा में उत्तरोत्तर आत्मनिर्भरता की दिशा में उन्मुख किया है, लेकिन इस लंबी राह में कठिनाइयों की कमी नहीं। इन चुनौतियों से नीति-निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में दृढ़ता और फोकस के जरिये ही पार पाया जा सकता है, जिसमें स्वदेशी रक्षा विनिर्माण इकोसिस्टम बनाने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी भी बढ़ानी होगी।