भविष्य में विकास के लिए एक भव्य रणनीति आवश्यक होगी। ऐसी रणनीति जो न केवल कुछ वर्षों, बल्कि दशकों तक कारगर साबित हो। इसके लिए विकास से जुड़ी नीतियों के विभिन्न पहलुओं पर नए सिरे से सोचना होगा। ऐसा ही एक क्षेत्र तकनीकी विकास का है। फिलहाल भारत में शोध एवं विकास (आरऐंडडी) के स्तर पर दिग्गज देशों की तुलना में काफी कम खर्च हो रहा है।
वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 0.67 प्रतिशत ही आरऐंडडी पर खर्च हुआ। इसी दौरान चीन और यूरोपीय संघ में आरऐंडडी पर जीडीपी का 2 प्रतिशत, अमेरिका और जापान में 3 फीसदी और दक्षिण कोरिया में तो और भी ज्यादा 4.5 फीसदी निवेश हुआ। जहां भारत में यह अनुपात अटका हुआ है, वहीं अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में निरंतर तेजी से बढ़ा है। भारत में आरऐंडडी के क्षेत्र में वेतन-प्रोत्साहन खासे कम हैं। इसी कारण कम ही लोग इसमें सक्रिय हैं। यदि इस पहलू पर गौर करें तो भारत में आरऐंडडी परिदृश्य में विसंगति उतनी नहीं चौंकाती। हालांकि परिणामों के स्तर पर सापेक्षिक खर्च भ्रमित नहीं करता।
आरऐंडडी पर खर्च होने वाली कुल रकम में से 45 प्रतिशत केंद्र सरकार करती है। इसमें से 60 प्रतिशत राशि रक्षा, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और कृषि में खर्च होती है, जिनमें से अंतिम तीन में उल्लेखनीय प्रौद्योगिकी लाभ भी प्राप्त हुए हैं। वैसे औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र में आरऐंडडी के लिए केंद्र सरकार व्यापक रूप से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों पर निर्भर है। इनमें से अधिकांश कंपनियां तकनीक डेवलपर नहीं, बल्कि आयातित तकनीक को अपनाकर उत्पाद विकास के मोर्चे पर संभवतः कुछ काम करती हैं। भविष्य में तकनीकी स्तर पर तरक्की के लिए बनाई जाने वाली भव्य रणनीति में इस पहलू को अवश्य ही बदलना होगा।
हमें उस आरऐंडडी मॉडल की ओर देखना चाहिए, जिसने अमेरिका को बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तकनीकी विकास की प्रमुख शक्ति के रूप में उभारा, जिसने सूचना प्रौद्योगिकी, संचार, दवाओं, अंतरिक्ष अन्वेषण, ऊर्जा और अन्य तमाम क्षेत्रों में उसे उल्लेखनीय सफलता दिलाई। इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में अमेरिका ने अग्रणी भूमिका निभाई। उसके सशक्त स्वतंत्र उद्यम-केंद्रित आर्थिक वैचारिक झुकाव को देखते हुए अक्सर यही माना जाता है कि ऐसे नेतृत्व की जड़ें निजी क्षेत्र में निहित हैं। यह पूरी तरह सही नहीं है। न केवल रक्षा और अंतरिक्ष तकनीक, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी नेतृत्व तो संघीय सरकार ने ही प्रदान किया।
यह कहानी 1950 के दशक के शुरुआती दौर से आरंभ हुई, जब संघीय सरकार ने नेतृत्व की कमान अपने हाथ में ले ली और यह सिलसिला 1960 के दशक के मध्य तक चला, जब उसका आरऐंडडी खर्च जीडीपी अनुपात में 1.86 प्रतिशत तक पहुंच गया, जबकि इस दौरान उद्योग जगत का आरऐंडडी खर्च सुस्ती से आगे बढ़ते हुए जीडीपी का 0.86 फीसदी ही रहा। यह वह दौर था जब संघीय सरकार नए क्षेत्रों में शोध को प्रोत्साहित कर रही थी। उन्होंने रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी बनाई। सामान्य किस्म की नहीं, बल्कि क्रांतिकारी परियोजनाओं को समर्थन दिया। आरऐंडडी में इस साहसिक नजरिये की सबसे उम्दा-नायाब मिसाल यही है कि इसने उस इंटरनेट के विकास को सहारा दिया, जबकि उस समय ‘इंटरनेट’ जैसा शब्द ही अस्तित्व में नहीं था।
संघीय सरकार ने उन तकनीकी परियोजनाओं पर पैसे लगाए, जिनमें 15 से 20 वर्षों के दौरान परिणाम निकलने की संभावना थी और यह इतनी लंबी अवधि होती है कि निजी कंपनियां उनमें शायद ही निवेश करने के लिए आगे आएं। मगर उनका पूरा ध्यान ऐसी तकनीकों के विकास पर था, जो अपनी परिपक्वता के स्तर पर निजी उद्यमियों द्वारा हाथोहाथ ले ली जाएं। यहां तक कि रक्षा और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्रों में, जहां संघीय सरकार ही मुख्य उपयोगकर्ता की भूमिका में थी, वहां भी उसने निजी क्षेत्र को साथ जोड़ने के प्रयास किए। इस प्रकार निजी आरऐंडडी से जुड़ा लक्ष्य भी 1980 के दशक के उत्तरार्ध से हासिल होने लगा। फिर 1990 के दशक से निजी-कारोबारी आरऐंडडी में उछाल आने लगी और उसमें बुनियादी या अनुप्रयुक्त शोधों के बजाय संघीय आरऐंडडी खर्च से निकली अग्रणी तकनीकों के व्यवसायीकरण की अहम भूमिका रही।
अमेरिकी सरकार ने अभी भी भविष्योन्मुखी शोध को प्रोत्साहन देना जारी रखा है। जैसे सरकार ने उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी-ऊर्जा (एआरपीए-ई) की स्थापना की और विश्वविद्यालयों में ऊर्जा संबंधी अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए एक कोष भी स्थापित किया है। दवा क्षेत्र में संघीय सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के माध्यम से 41.7 अरब डॉलर आरऐंडडी पर खर्च कर रही है। इसमें से अधिकांश विश्वविद्यालयों के अनुदान स्वरूप है, किंतु सरकार अपनी प्रयोगशालाओं को भी वित्तीय संसाधन उपलब्ध करा रही है, जिनमें 6,000 वैज्ञानिक कार्यरत हैं। ऐसा अनुमान है कि उपचार में काम आने वाले 75 फीसदी से अधिक नए मॉलिक्यूल्स (तत्त्व) सरकारी निवेश की मेहरबानी होंगे। दवाओं में शोध-विकास पर अधिकांश निजी निवेश दवाओं के मूल्य वर्धन पर ही केंद्रित होता है, जिसकी राह अक्सर पेटेंट विस्तार तक खिंच जाती है।
वास्तव में बुनियादी और अनुप्रयुक्त शोध से तकनीक के वाणिज्यिक विकास वाली संक्रमण अवधि के लिए वित्तीय संसाधनों की चुनौती ही मुख्य है। यहीं ऐंजल निवेशकों की आवश्यकता महसूस होती है कि वे उन परियोजनाओं पर दांव लगाने के लिए जोखिम उठाएं, जिनकी व्यावसायिक संभावनाएं अभी तक साबित न हुई हों। चूंकि निजी निवेशकों के स्तर पर यह संभव नहीं लगता, लिहाजा अमेरिकी सरकार आरंभिक-स्तर वाली तकनीकी फर्मों के लिए 20 से 25 प्रतिशत वित्तीय बंदोबस्त करती है।
कॉम्पैक से लेकर इन्टेल और ऐपल जैसी दिग्गज कंपनियां इसी संघीय दरियादिली से लाभान्वित हुई हैं। असल में वेंचर फंड तो बाद में ही आते हैं, क्योंकि वे व्यावसायिक रूप से सफल उपक्रमों में ही दांव लगाते हैं, जिनमें पांच से सात वर्षों के भीतर प्रतिफल मिलने लगे। यह निवेश भी आईपीओ या विलय-अधिग्रहण के माध्यम से होता है। असल में नव-उदित तकनीकों के लिए उनका फलक बहुत छोटा है।
तकनीकी विकास की दृष्टि से देखें तो आज भारत उसी पड़ाव पर खड़ा है, जहां 1950 और 60 के दशक में अमेरिका था। अपने तकनीकी विकास के अभियान की कमान संभालने के लिए हम निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं रह सकते। ऐसे में हमें वही करना चाहिए जो अतीत में अमेरिका ने कर दिखाया। इससे जुड़ी रणनीति में कुछ पहलू अवश्य शामिल होने चाहिए।
-तीन से पांच वर्षों के दौरान केंद्र सरकार को आरऐंडडी पर अपना खर्च जीडीपी के 0.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 1.5 प्रतिशत तक तो करना ही चाहिए। इस राशि को केवल सरकारी शोध प्रयोगशालाओं तक ही सीमित न करके बुनियादी एवं अनुप्रयुक्त शोध के लिए व्यापक आधार तैयार करने पर भी खर्च किया जाना चाहिए।
-केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभागों का पुनर्गठन किया जाए। मिशन-आधारित उपक्रम बनाए जाएं, जो बाहरी शोध क्षमताओं के साथ भी जुड़ सकें। उन्हें ऐसे अधिकार मिलें कि नाकामी का डर उनके जोखिम उठाने के आड़े न आए।
-डीआरडीओ और अंतरिक्ष आयोग जैसे मिशन-केंद्रित अनुसंधान संस्थानों का निजी क्षेत्र के साथ बेहतर जुड़ाव किया जाए।
-जलवायु परिवर्तन और जैव-अर्थव्यवस्था जैसी उभरती चुनौतियों से निपटने के साथ ही नैनो टेक्नोलॉजी और एआई जैसे दीर्घकालिक अवसरों को भुनाने के लिए नए मिशन-केंद्रित कार्यक्रमों पर ध्यान लगाया जाए।
-विश्वविद्यालयों/आईआईटी को शोध अनुदान में भारी बढ़ोतरी कर उनकी शोध क्षमताओं को बढ़ाने के साथ-साथ अहम तकनीकी लक्ष्य निर्धारित करना होगा।
-बड़ी कंपनियों के लिए एक सुगम सीमा निर्धारित करना कि वे अपने लाभ का एक हिस्सा आरऐंडडी पर व्यय करें।
-सरकारी और निजी क्षेत्र के आरऐंडडी खर्च में बेहतर कड़ी बनाना, विशेषकर उच्च-तकनीकी स्टार्टअप में ऐंजल निवेश के लिए प्रावधान करना।
चिप डिजाइन और फार्मा एंड-उत्पादों जैसे क्षेत्रों में पहले से ही भारत की वैश्विक मौजूदगी है। ऐसे में आरऐंडडी की ऐसी भव्य रणनीति, जो सरकार, निजी क्षेत्र और शोध संस्थानों के बीच सहजीविता-सुसंगति को बढ़ाने में मददगार बन सके तो उसके दम पर भारत एक या दो दशकों के भीतर एक वैश्विक तकनीकी दिग्गज बन सकता है।
