हमारी दुनिया बदल चुकी है और इस बारे में किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। जलवायु के जोखिम भरा यह डॉनल्ड ट्रंप का युग है। जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का विरोध पहले से हो रहा है और यह बढ़ता ही जाएगा चाहे दुनिया को बढ़ती गर्मी का कितना ही खराब असर क्यों न झेलना पड़े। गर्म होती दुनिया में अमीर तगड़े नुकसान झेलेंगे, बीमा कराने वाले इन आपदाओं से सुरक्षा हासिल नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनकी कीमत बढ़ती जाएगी और बीमा कंपनियां अपना हाथ खींच लेंगी।
यह सब लिखने के पीछे मेरी मंशा वह बताने की नहीं है, जो सामने आता दिख रहा है बल्कि उन कामों की ओर ध्यान दिलाने को लिख रही हूं, जो जलवायु के जोखिम कम करेंगे और हमारी दुनिया की आजीविका तथा अर्थव्यवस्थाओं को सुधारेंगे। इस वक्त कार्बन उत्सर्जन कम करने की राह पर चलते हुए समावेशी और सतत विकास के लाभ हासिल करना बड़ी चुनौती है। उत्सर्जन कम करना विकासशील देशों के लिए ज्यादा कारगर और अहम है।
स्वच्छ ऊर्जा अपनाने की बात ही ले लीजिए। भारत के लिए लाखों लोगों की आजीविका सुरक्षित करने के मकसद से बिजली देना जरूरी है। आज भी देश में बड़ी संख्या में परिवार बिजली की किल्लत झेल रहे हैं। उन्हें या तो बिजली की भरोसेमंद आपूर्ति नहीं होती या बिजली उपलब्ध ही नहीं होती और होती भी है तो बहुत महंगी पड़ती है। कई लोग तो आज भी बिजली की लाइट नहीं जला पाते और उनके परिवार की महिलाएं उपले या कोयले से खाना बनाने को मजबूर हैं।
दूसरी ओर उद्योग भी इससे प्रभावित हो रहा है और तब हो रहा है, जब ऊर्जा पर आने वाला खर्च तय करता है कि उद्योग कितनी होड़ कर सकता है। यही कारण है कि भारतीय उद्योग कोयले जैसा ईंधन इस्तेमाल कर खुद बिजली बनाना (कैप्टिव पावर) पसंद करता है। इसलिए हमें अधिक ऊर्जा, स्वच्छ ऊर्जा और सस्ती ऊर्जा के लिए नीतियां बनानी होंगी। अगर ऊर्जा का परिवर्तन सही तरीके से करा लिया गया तो हम कार्बन के कम उत्सर्जन के साथ विकास की राह पर बढ़ सकते हैं, जो हमारे लिए कारगर होगा और दुनिया को तबाही की ओर ले जा रहे उत्सर्जन को कम करेगा।
इसीलिए 2030 तक 500 गीगावॉट स्वच्छ बिजली उत्पादन क्षमता हासिल करने की सरकार की योजना सराहनीय है। सरकार जानबूझकर कोयले को पूरी तरह नहीं हटा रही क्योंकि अब भी 75 फीसदी बिजली कोयले से बनती है। सरकार चाहती है कि कोयले की जगह किसी और स्रोत से स्वच्छ बिजली बनाई जाए। इसके लिए सौर और पवन ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो 2030 तक बिजली की 44 फीसदी मांग पूरी कर सकती है। इसके लिए स्वच्छ ऊर्जा दोगुनी से भी ज्यादा करनी होगी क्योंकि इसी दरम्यान भारत की बिजली की खपत भी दोगुनी हो जाएगी। सरकार स्वच्छ बिजली की तरफ बढ़ने के लिए पूरी तरह से तैयार है।
लेकिन हमें गैर-जीवाश्म स्रोतों से बिजली तैयार करने की भारत की क्षमता को ठीक से समझना होगा। भारत में आज 200 गीगावाट स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन करने की क्षमता है, जो मार्च 2024 में देश की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता की 45 फीसदी थी। मगर कुल ऊर्जा उत्पादन में इस क्षमता का बमुश्किल एक चौथाई योगदान ही रहा। अगर आप निवेश और स्थापना के मामले में साल दर साल तेजी से इजाफा करने वाले पवन और सौर ऊर्जा स्रोतों को ही देखें तो वे भी 13 फीसदी बिजली ही बना पाए। ऐसे तो हम स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ते नहीं दिखते। सरकार ने खुद कहा है कि कोयले की जगह लेने के लिए इन दो स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को 2030 तक 30 फीसदी बिजली बनानी पड़ेगी।
क्या सौर और पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता और उनसे हो रहे उत्पादन में फर्क है? यदि हां, तो क्यों? इसके लिए देखना होगा कि चालू संयंत्रों की कितनी क्षमता का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन यह आंकड़ा केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के संयंत्रों के लिए ही मिल सकता है निजी क्षेत्र के पवन और सौर ऊर्जा संयंत्रों के लिए नहीं। वास्तव में इस बात के सार्वजनिक आंकड़े ही नहीं हैं कि देश में कितनी इकाइयां शुरू की गईं, कितनी बिजली बनती है और बिजली कहां बेची या भेजी जाती है। विडंबना है कि ताप ऊर्जा संयंत्रों की यह जानकारी मिल जाती है नई ऊर्जा की नहीं।
लगता है कि इस निजी उद्योगों और निवेशकों वाले इस कारोबार में सबने चुप रहने की ठान ली है। सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (सेकी) की वेबसाइट बताती है कि जून 2024 तक कई परियोजनाएं शुरू ही नहीं हुई थीं जबकि उनके बिजली खरीद समझौतों के मुताबिक परियोजना का ठेका तभी दिया जाता है, जब बिजली खरीद समझौता हो जाता है यानी एक तय कीमत पर बिजली खरीदने की बात पक्की हो जाती है। यह भी तब होता है जब परियोजना शुरू करने वाली कंपनी बता देती है कि उसके पास निवेश, जमीन और दूसरी सुविधाएं हैं। सेकी के अनुसार ऐसी 34.5 गीगावॉट की सौर, पवन और हाइब्रिड परियोजनाएं हैं।
उनके अलावा 10 गीगावॉट या ज्यादा (सरकारी आंकड़ा नहीं हैं मगर उद्योग का अनुमान है) की परियोजनाओं को बिजली खरीद समझौते (पीपीए) का इंतजार है। ये इसलिए अटकी हैं क्योंकि राज्य की बिजली खरीद एजेंसियां बताई जा रही कीमत पर समझौता करने को राजी नहीं हैं। यह तब हो रहा है जब नई कोयला परियोजना से मिलने वाली बिजली सौर परियोजना की बिजली से महंगी पड़ती है। इसकी एक वजह यह बताई जाती है कि सौर और पवन ऊर्जा हमेशा नहीं मिलतीं। दोनों तभी मिलेंगी, जब धूप खिलेगी और हवा चलेगी। इसलिए ऐसी परियोजनाएं बनाई जाएं जो 24 घंटे बिजली दे सकें चाहे बैटरी स्टोरेज के साथ हो या ज्यादा क्षमता वाले संयंत्र लगाकर। लेकिन सेकी के मुताबिक ये परियोजनाएं ‘फंसी’ हुईं हैं और शुरू नहीं हो रही हैं। भारत को 500 गीगावॉट स्वच्छ बिजली का लक्ष्य पूरा करना है तो हमें ये कमियां दूर करनी होंगी। यह वाकई बहुत जरूरी है।