मुफ्त उपहार की संस्कृति को केंद्र बनाम राज्य का मुद्दा बनाना गलत है, क्योंकि दोनों पक्षों में से कोई भी इसके मूल विचार का विरोध नहीं करता। बता रहे हैं आर. जगन्नाथन
संभव है कि हाल के दिनों में आपने रेवड़ी संस्कृति का जिक्र अवश्य सुना होगा। रेवड़ी संस्कृति यानी सरकारी खजाने से भारी-भरकम चुनावी वादों की पूर्ति। कुछ लोग इसे जनता को मुफ्तखोरी की लत लगाने का नाम देते हैं। सार्वजनिक विमर्श में इसे फ्रीबी या कहें कि मुफ्त उपहार की पेशकश कहा जाता है। हाल में फ्रीबी की बहस ने खासा जोर पकड़ा है, लेकिन यह पटरी से उतरती प्रतीत हो रही है। उच्चतम न्यायालय ने भी इस मामले को अपनी जद में ले लिया है, जबकि उसके पास करने के लिए और तमाम बेहतर काम होने चाहिए। वहीं गैर-भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने इस मामले में केंद्र को आड़े हाथों लिया है कि उन्हें अपनी जनता के लिए बेहतर कल्याणकारी योजनाएं मुहैया कराने की राह में अवरोध उत्पन्न करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
कुछ स्तंभकार भी राज्यों के पक्ष में कूद पड़े हैं, जबकि वित्त मंत्री ने बिल्कुल सही मुद्दा उठाया है कि मुफ्त उपहारों के लिए रकम जुटाने के प्रश्न को अधर में छोड़ने या ऐसी पेशकश से दिवालिया होने (जैसे कि विद्युत वितरण कंपनियां-डिसकॉम) के बजाय इस प्रकार के कल्याणकारी व्यय की व्यवस्था अपने बजट में क्यों नहीं की जाती?
आइए, मूलभूत बिंदु से आरंभ करते हैं। वास्तव में दो कारणों से फ्रीबी को किसी भी स्वीकार्य रूप में (मसलन सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था के प्रावधान से परे) परिभाषित करना असंभव है। पहला यही कि किसी संदर्भ या राज्य में अगर कोई फ्रीबी है तो दूसरे में वही कल्याणकारी हो सकती है। दूसरा यही कि फ्रीबी (या सब्सिडी वाली सेवा) किसी सुपात्र लाभार्थी को लक्षित करती है या अनपेक्षित लाभार्थी भी उसे प्राप्त करते हैं?
कोई धनी राज्य वह कर सकता है, जो गरीब राज्य करने में सक्षम नहीं, भले ही उसमें एकसमान वस्तु या सेवा मुफ्त दी जा रही हो। अमेरिका और यूरोप में बेरोजगारी भत्ता फ्रीबी नहीं है, लेकिन भारत में उसे यह संज्ञा दी जा सकती है। बेरोजगारी को मात देने के लिए हम बस मनरेगा का सहारा ले सकते हैं। अमीर दिल्ली गरीब बिहार की तुलना में मुफ्त बिजली-पानी देने की स्थिति में हो सकती है तो क्या मुफ्त बिजली फ्रीबी है या नहीं?
बहरहाल, फ्रीबी संस्कृति को केंद्र बनाम राज्य का मुद्दा बनाना गलत है, क्योंकि दोनों पक्षों में से कोई भी इसके मूल विचार का विरोध नहीं करता। मुद्दा असल में मुफ्त बिजली और पानी उपलब्ध कराने में दिल्ली की उच्च क्षमताओं से जुड़ा है। ये क्षमताएं उसे अर्द्ध-राज्य होने की विशिष्ट स्थिति से प्राप्त होती हैं, जहां उसकी कमाई तो काफी ऊंची है, लेकिन उस अनुपात में खर्च कम हैं, क्योंकि कानून-व्यवस्था से लेकर कर्मचारियों की पेंशन तक का बंदोबस्त तो केंद्र सरकार करती है। इसलिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल केंद्र के समक्ष दिल्ली सरकार के अधिकारों को कमतर बताने की जो बात करते हैं, वह असल में उनके लिए राजकोषीय वरदान ही है।
वहीं अधिकांश राज्यों को मुफ्त बिजली या कर्जमाफी जैसे वादों की पूर्ति में उनके बजट की सीमाएं आड़े आ जाती हैं। यदि वे कुछ मुफ्त पेशकश करती हैं तो उन्हें किसी और मद में कटौती करनी पड़ेगी, जो कानून-व्यवस्था से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य भी हो सकता है। मुफ्त सेवाओं की पेशकश का खर्च उन पर बहुत भारी पड़ता है, क्योंकि इसके लिए उन्हें उन संसाधन तक का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिनसे राज्य का बुनियादी ढांचा बेहतर होता या सरकारी भर्तियां की जातीं। अधिकांश राजनीतिक दल रोजगार सृजन की जोर-शोर से मुनादी तो करते हैं, लेकिन मुफ्त पेशकशों पर निचुड़ चुका उनका बजट ऐसी भर्तियों की गुंजाइश नहीं देता।
सीधे शब्दों में कहें तो मुफ्त पेशकशों को लेकर अधिकांश राज्यों की अपनी एक स्वाभाविक सीमा है। वहीं दिल्ली इस मामले में अपवाद है। इस प्रकार देखें तो फ्रीबी समस्या दिल्ली-जनित है, जो केजरीवाल की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को देखते हुए उन राज्यों तक फैल सकती है, जो दिल्ली की इस प्रकार की अलक्षित रियायतों का बोझ नहीं उठा सकते। इस साल के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों से केजरीवाल बड़ी उम्मीद लगाए हुए हैं। राज्य में उन्होंने किसान कर्जमाफी, मुफ्त बिजली, महिलाओं और सरपंचों को मासिक भत्ते जैसे कई बड़े वादे किए हैं। कुछ समय के लिए भले ही गुजरात इनका बोझ वहन कर ले, लेकिन इनसे उसके सरकारी खजाने की हालत पतली होना तय है।
दिल्ली राजस्व अधिशेष वाला राज्य है, क्योंकि उसके तमाम बिलों का भुगतान केंद्र सरकार करती है और केजरीवाल राज्य के समृद्ध खजाने से भारी रकम अपने प्रचार पर खर्च कर सकते हैं। सूचना के अधिकार के अंतर्गत मिली जानकारी के अनुसार प्रचार पर दिल्ली सरकार के खर्च में 4,200 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 में केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने से ठीक पहले 2012-13 तक दिल्ली सरकार ने विज्ञापनों पर 12 करोड़ रुपये से कम खर्च किया, जबकि 2021-22 में केजरीवाल ने अर्द्ध-राज्य के प्रचार पर 488 करोड़ रुपये से अधिक व्यय कर दिए।
ऐसे में जो घटित हो रहा है उसका अनुमान लगाने के लिए किसी राजनीतिक विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं। अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को परवान चढ़ाने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अमीर अर्द्धराज्य के खजाने का इस्तेमाल कर रहे हैं। उसे दिल्ली मॉडल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जबकि उसे न तो कर्ज के बोझ तले कराहते पंजाब और न ही उससे बेहतर स्थिति वाले उस गुजरात तक कहीं भी दोहराना संभव नहीं, जहां केजरीवाल कांग्रेस की कीमत पर उभरना चाहते हैं, जो पार्टी पिछले तीन दशकों से अधिक से इस राज्य में भाजपा के किले को हिला तक नहीं पाई है।
ऐसे में फ्रीबी को लेकर बहस और विवाद केंद्र और राज्य के बीच कोई सामान्य टकराव न होकर केंद्र और केजरीवाल के बीच का मुद्दा है, जो दिल्ली की विशिष्ट स्थिति के कारण बना है। वास्तव में ऐसी समस्याएं तो प्रत्येक राज्य में सामने आ सकती हैं। जैसे यदि मुंबई को महाराष्ट्र से अलग वित्तीय रूप से स्वतंत्रता मिली होती तो वह शेष राज्य की तुलना में अधिक फ्रीबी की पेशकश में सक्षम हो सकती। पुनः मुद्दे पर लौटें तो इसका समाधान दिल्ली के दर्जे को लेकर कड़े विकल्प में ही निहित है। इसके दो स्पष्ट समाधान हैं। पहला यही कि इसका दर्जा अपनी विधानसभा के साथ वापस केंद्रशासित प्रदेश का कर दिया जाए, बिल्कुल पुदुच्चेरी या लद्दाख की तरह। दूसरा विकल्प जरा हलचल भरा हो सकता है कि राज्य का विभाजन कर दिया जाए। जहां कैंट और नई दिल्ली क्षेत्र केंद्रशासित प्रदेश का हिस्सा बनें और शेष दिल्ली को पूरी शक्तियों के साथ एक सामान्य शहरी राज्य बनाया जाए।
परंतु यदि ऐसा भी किया जाता है तो विभाजित एवं पूर्ण अधिकार-संपन्न दिल्ली राज्य को भी अपने नागरिकों पर सामान्य क्षेत्राधिकार नहीं मिलेगा, क्योंकि उसमें केंद्र सरकार के कार्यालयों और कर्मियों का पेच फंसेगा। तब दिल्ली सरकार द्वारा केंद्रीय कर्मियों को निशाना बनाने जैसी बेतुकी बातें सामने आ सकती हैं, बिल्कुल वैसे जैसे अभी विपक्षी दल यही मानते हैं कि उन्हें निशाना बनाने के लिए सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका सरल समाधान यही है कि सीमित राजनीतिक एवं राजकोषीय शक्तियों के साथ दिल्ली को एक बार फिर केंद्रशासित प्रदेश बना दिया जाए।
तब फ्रीबी बहस तत्काल दफन हो जाएगी। शहरों को सशक्त-अधिकारसंपन्न बनाने की आवश्यकता है, लेकिन दिल्ली की तरह नहीं। उल्लेखनीय है कि यदि सरकारी खजाने के समक्ष खतरे की घंटी वाली स्थिति को छोड़ दिया जाए तो फ्रीबी को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच पहले कभी इस तरह की स्थिति नहीं आई। परंतु इनके पक्ष-विपक्ष में सामान्य राजनीतिक तर्क-वितर्क होते रहते थे, लेकिन वे नेताओं द्वारा कम और अमूमन अर्थशास्त्रियों के होते थे। असल में दिल्ली के विशिष्ट दर्जे और विशेषाधिकारों ने फ्रीबी तर्क को अधिक सामान्य प्रकृति का बना दिया।
पुनश्चः यह केंद्र बनाम राज्य का मुद्दा नहीं है। यह तो बेतरतीब तरीके से खर्च करने की दिल्ली की अनूठी क्षमताओं से जुड़ा है। यह स्थिति शेष राज्यों के लिए एक गलत नजीर पेश करती है, जो इस प्रकार की दरियादिली दिखाना गवारा नहीं कर सकते।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)