केंद्र सरकार चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.8 फीसदी पर सीमित रखने का प्रयास कर रही है। यह पिछले वर्ष के 9.3 फीसदी से काफी कम होगा। चालू वर्ष में कर संग्रह ने जहां सकारात्मक ढंग से चकित किया है, वहीं कहा जा रहा है कि शायद सरकार अपना लक्ष्य इसलिए हासिल नहीं कर पाए क्योंकि विभिन्न मदों के तहत व्यय अनुमान से अधिक हुआ है और विनिवेश प्राप्तियां भी बहुत कम हैं।
इसके अतिरिक्त जैसा कि इस समाचार पत्र ने भी प्रकाशित किया, सरकार 2022-23 में राजकोषीय घाटे में उल्लेखनीय कमी न करने पर विचार कर रही है। उसका इरादा घाटे को जीडीपी के 6.5 से 6.8 फीसदी के बीच रखने का है। सरकार को यही सलाह होगी कि वह ऐसा न करे और राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की प्रकिया जारी रखे। ऐसा करने की कई वजह हैं। सरकार को चालू वर्ष का लक्ष्य हासिल करने का प्रयास भी करना चाहिए।
यह संभव है कि सरकार उच्च व्यय के साथ आर्थिक सुधार की प्रक्रिया की सहायता करना चाहे क्योंकि खपत और निजी निवेश मांग दोनों कमजोर हैं। बहरहाल यह महत्त्वपूर्ण है कि बिना मध्यम अवधि के नीतिगत लक्ष्यों की अनदेखी किए एक संतुलन कायम किया जाए। सरकार का इरादा 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.5 फीसदी तक लाने का है। हालांकि वह भी ऊंचा स्तर होगा लेकिन अगर सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया में देरी हुई तो इसे हासिल करना कठिन होगा। अगले वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर तेज होने के आसार हैं और उस समय सरकारी वित्त को मजबूत करने का अवसर भी होगा। चूंकि 2022-23 के बाद जीडीपी वृद्धि के कम होने का अनुमान है इसलिए उस वक्त सरकारी वित्त को मजबूत बनाना बहुत मुश्किल होगा।
लगातार ऊंचा सरकारी घाटा इस प्रक्रिया को और कठिन बना देगा। बड़े सरकारी घाटों की भरपाई पिछले और मौजूदा वित्त वर्ष में अपेक्षाकृत आसान रही है। मोटे तौर पर ऐसा रिजर्व बैंक की मदद से संभव हो पाया। लेकिन केंद्रीय बैंक लंबे समय तक ऐसी मदद मुहैया कराने की स्थिति में नहीं रहेगा। यदि वह ऐसा करता है तो इसका असर रिजर्व बैंक के अन्य नीतिगत लक्ष्यों मसलन कीमतों और वित्तीय स्थिरता आदि पर पड़ेगा। यदि राजकोषीय घाटा निरंतर ऊंचा बना रहता है तो सरकार की संभावित झटकों से उबरने की क्षमता सीमित हो जाएगी। महामारी के बाद कुछ अन्य देशों की तुलना में भारत सरकार का हस्तक्षेप सीमित होने की एक वजह यह भी थी कि सरकारी घाटा अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर पर था। इसके अतिरिक्त निरंतर उच्च राजकोषीय घाटा और संभावित ऊंची ब्याज दर निजी निवेश में सुधार की संभावना को सीमित करती है।
इसके अलावा राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को टालने से सरकार की विश्वसनीयता प्रभावित होगी तथा निवेशकोंका आत्मविश्वास कमजोर पड़ेगा। चूंकि सरकार का इरादा अब अपने घाटे की भरपाई विदेशी बचत के जरिये करने का है तो ऐसे में राजकोषीय विश्वसनीयता ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। साफ कहा जाए तो महामारी की प्रकृति के कारण आर्थिक परिदृश्य अनिश्चित है और अर्थव्यवस्था को मदद की आवश्यकता पड़ेगी।
ऐसे में जरूरत पडऩे पर वर्ष के दौरान कभी भी राजकोषीय स्थिति में संशोधन किया जा सकता है। बहरहाल, उच्च राजकोषीय घाटा लक्ष्य के साथ वर्ष की शुरुआत मददगार नहीं साबित होगी और मध्यम अवधि में नीतिगत जटिलता बढ़ेगी। मौजूदा हालात के मुताबिक केंद्र सरकार को अगले वर्ष राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 6 फीसदी के भीतर लाना चाहिए। इससे न केवल राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता सामने आएगी बल्कि अर्थव्यवस्था तथा राज्यों के घाटे से निपटने में भी महत्त्वपूर्ण मदद मिलेगी।
